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भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सियासी चेहरों पर तीर चलाने में माहिर अरविंद केजरीवाल ने इस बार देश के सबसे बड़े उद्योगपति मुकेश अंबानी और उनकी कंपनी आरआइएल को निशाने पर लिया है। अब तक राजनेताओं पर घालमेल के आरोप मढ़ने वाले केजरीवाल ने इस बार अंबानी पर हाथ डाला। टीम केजरीवाल ने मुकेश अंबानी पर कई आरोप लगाए। इंडिया अगेंस्ट करप्शन के अरविंद केजरीवाल ने इससे पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा और भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे, लेकिन केजरीवाल ने इस बार कांग्रेस- भाजपा दोनों को लपेटने की कोशिश की।
वह अपने इन आरोपों के जरिये एक तो यह संदेश दे रहे हैं कि नेताओं की एक बड़ी जमात भ्रष्टाचार में लिप्त है और दूसरे सभी राजनीतिक दल खासकर कांग्रेस और भाजपा एक जैसे हैं। केजरीवाल ने आरोप लगाया कि मौजूदा संप्रग और पिछली राजग की सरकार ने कृष्णा- गोदावरी (केजी) बेसिन का ठेका देने में रिलायंस इंडस्ट्रीज को सरकार से अनुचित लाभ मिला। साथ ही इंडिया अगेंस्ट करप्शन के केजरीवाल और प्रंशात भूषण का कहना है कि रिलायंस को जो रियायतें दी गई, उससे सरकारी खजाने को भारी नुकसान हुआ है। केजरीवाल ने आरोप लगाया कि सरकार ने रिलायंस को 45 हजार करोड़ रुपये का फायदा पहुंचाया। हालांकि रिलायंस ने इन आरोपों को बेबुनियाद करार दिया है। रिलायंस इंडस्ट्री लिमिटेड का कहना है कि केजरीवाल ने जो भी आरोप लगाएं हैं, वे दुर्भावना से ग्रस्त हैं।
आरोपों में कोई तथ्य नहीं। खैर, एक के बाद एक खुलासे से अब सवाल यह उठ रहा है कि अरविंद केजरीवाल का अगला निशाना कौन होगा और उसका संबंध किस पार्टी या उद्योग घरानों के साथ होगा? बहरहाल, केजरीवाल ने आरआइएल को केजी बेसिन में प्राकृतिक गैस निकालने के लिए मिले ठेके को कॉरपोरेट-राजनीति का अवैध गठजोड़ बताया। उन्होंने कहा कि केजी बेसिन में आरआइएल साल 2001 से लगातार मनमानी और दादागीरी करती आ रही है। साथ ही केजरीवाल ने रिलायंस पर गैस की जमाखोरी का आरोप लगाते हुए कहा कि कांग्रेस-भाजपा दोनों अंबानी की जेब में हैं। ऐसा लगता है कि मनमोहन सिंह नहीं, बल्कि मुकेश अंबानी देश चला रहे है। केजरीवाल ने सीधे प्रधानमंत्री पर सवाल खड़ा करते हुए कहा कि क्या कांग्रेस मुकेश अंबानी की दुकान है? भ्रष्टाचार की परिभाषा के मुताबिक सिर्फ रिश्वत लेने वाला व्यक्ति ही नहीं, बल्कि अपने पद का दुरुपयोग कर किसी को फायदा पहुंचाने वाला भी भ्रष्टाचार का उतना ही दोषी माना गया है।
इस लिहाज से प्रधानमंत्री इस मामले में सीधे दोषी हैं। जिस तरह से अभी मनमोहन सिंह सरकार के मंत्रिमंडल के फेरबदल में जयपाल रेड्डी को पेट्रोलियम मंत्रालय से हटाया गया, उसने कई आशंकाओं को जन्म दिया है। हालांकि जयपाल रेड्डी ने यह कहकर सरकार की परेशानी दूर करने की कोशिश की है कि उन्हें पेट्रोलियम मंत्रालय से हटने का कोई मलाल नहीं, लेकिन एक ईमानदार और काबिल मंत्री की छवि के कारण अगर यह सवाल उठ रहा है कि सरकार के साथ तालमेल न बैठा पाने के कारण उनका मंत्रालय बदला गया तो फिर इसके लिए कहीं न कहीं नेतृत्व भी जिम्मेदार है। असल में जयपाल रेड्डी रिलायंस इंडस्ट्रीज को अनुचित लाभ रोकने के फैसले को लेकर चर्चा में आए थे। आज रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड और सरकार की मिलीभगत के कारण ही गैस के दाम बेतहाशा बढ़ गए हैं। उन्होंने सत्ता-विपक्ष और कॉरपोरेट के गठजोड़ में किसी को नहीं बख्शा। साथ ही सवाल उठाया कि जब रिलायंस गैस को कम कीमत पर बेचने से इन्कार कर रही है तो सरकार ने उसका अनुबंध रद क्यों नहीं किया? इस बात का संज्ञान क्यों नहीं लिया जाना चाहिए कि रिलायंस इंडस्ट्रीज ने न केवल गैस का उत्पादन कम किया, बल्कि वह अब गैस के दाम 14 डॉलर प्रति यूनिट की मांग कर रही है, जिसका असर उर्वरक और बिजली के दामों पर पड़ सकता है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अंबानी बंधुओं के विवाद के दौरान जब अनिल अंबानी ने केजी बेसिन में अपना हिस्सा मांगा था, तब अदालत ने कहा था कि यह देश की प्राकृतिक संपदा का मामला है, पारिवारिक मामला नहीं। असल में केजरीवाल ने इन्हीं तथ्यों को एक साथ रखकर देश के सतारूढ़ और विपक्षी पार्टियों और कॉरपोरेट जगत के बीच गठजोड़ दिखाने का प्रयास किया है।
अरविंद केजरीवाल व्यवस्था परिवर्तन के नारे को आगे रखकर खुलासों और आरोपों की राजनीति कर रहे हैं, लेकिन उनके ये कथित आरोप जहां काफी तल्ख और गंभीर हैं, वहीं राजनीतिक अर्थो में लोकप्रियतावादी भी हैं। आरोपों की असलियत क्या है, इसलिए उस आरोप की जांच होनी चाहिए। लोकतंत्र का तकाजा तो यह कहता है कि यदि कोई आम आदमी भी घपले-घोटाले की शिकायत करे या किसी मामले पर संदेह जाहिर करे तो उसे दूर किया जाना चाहिए। यह भी विचित्र है कि केजरीवाल के आरोपों का निशाना बने गडकरी की तो जांच हो रही है, लेकिन रॉबर्ट वाड्रा और सलमान खुर्शीद के मामले में यह बताया जा रहा है कि उनकी जांच की कोई जरूरत ही नहीं। आखिर यह कौन-सा तर्क हुआ? अजीब बात यह है कि पिछले दो सालों से देश में चल रहे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों ने भी भ्रष्ट राजनेताओं की खाट खड़ी करते हुए इस पर कुछ कहना जरूरी नहीं समझा कि उन्हें पैसे दे कौन रहा है और किस काम के लिए दे रहा है। दरअसल, केजरीवाल ने रिलायंस के बहाने कॉरपोरेट घरानों और सरकार की नीतिगत साठगांठ पर सवाल उठाए हैं। ये सवाल खासे गंभीर भी हैं और तथ्यात्मक रूप में जनता इस मुद्दे पर जरूर वास्तविकता जानना चाहेगी, क्योंकि ये आरोप अगर सही हैं तो यह देश की जनता के हितों के साथ एक बहुत बड़ा धोखा है, जिसकी हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था कतई इजाजत नहीं देती है।
इन आशंकाओं के बावजूद सवाल घूम-फिर कर फिर वहीं पहुंच जाता है कि अगर यह देश भ्रष्टाचार के खिलाफ एक निर्णायक संघर्ष के लिए तैयार है तो उसके आगे विकल्प क्या है? बेशक अन्ना की साझी और अब विलग हो चुकी टीम को इस बात का श्रेय जरूर है कि उसने पिछले दो सालों में देश की जनता और राजनीति के आगे भ्रष्टाचार के मुद्दे को पहले पायदान पर ला दिया है। आज न तो कोई भी राजनीतिक पक्ष और न ही देश की संसद इस मुद्दे को खारिज कर सकती है, लेकिन एक पारदर्शी और उन्नत लोकतांत्रिक व्यवस्था को अस्तित्व में लाने का रास्ता इतना शॉर्टकर्ट तो नहीं हो सकता है कि इसे कुछ नाटकीय घटनाक्रमों और सनसनीखेज तथ्यों को उजागर कर हासिल कर लिया जाए, क्योंकि किसी व्यवस्था को खारिज करने की दरकार तब तक एक क्रांतिकारी बदलाव तक नहीं पहुंच सकती, जब तक ऊब और आक्रोश के साथ वैचारिक और ढांचागत विकल्प न तैयार कर लिया जाए? राजनीतिक दलों के विरोध को एक किनारे रख भी दें तो केजरीवाल ने जिस तरह से एक के बाद एक हमले किए हैं, उससे उनकी बेचैनी ही पता चलती है। यह ठीक है कि केजरीवाल पर तमाम राजनीतिक पार्टियां आरोप लगाती रही हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उनका आंदोलन दरअसल राजनीतिक आंदोलन था और वे सस्ती लोकप्रियता के लिए ये सारे मुद्दे उठाते रहते हैं।
इसके बावजूद केजरीवाल को यह समझना होगा कि राजनीति सिर्फ मीडिया के भरोसे नहीं की जा सकती, उसे जमीनी स्तर पर संगठन बनाने की जरूरत होगी। जिसका अभी अभाव दिख रहा है |खैर, यह भविष्य ही बताएगा कि टीम केजरीवाल जो संदेश देने की कोशिश कर रही है, उससे उसे राजनीतिक रूप से कोई लाभ होगा या नहीं, लेकिन इतना जरूर है कि उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। केजरीवाल मीडिया और आम जनता के साथ उन दलों का भी ध्यान खींचते हैं, जिनके नेताओं पर वह भ्रष्टाचार में डूबे होने का आरोप लगाते हैं।
लेखक रवि शंकर स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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