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आतंकवाद पर राजनीति

जागरण मेहमान कोना
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हाल ही में देश के अलग-अलग हिस्सों में दो घटनाएं घटीं। दोनों ने राजनीति, मजहब और आतंकवाद के जटिल रिश्तों की ओर ध्यान खींचा। जयपुर में हुए कांग्रेस के चिंतन शिविर के दौरान 20 जनवरी को केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) और भाजपा पर अपने प्रशिक्षण कैंपों में हिंदू आतंकवाद फैलाने का आरोप लगाया। शिंदे ने भाजपा की सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की नीति को समाज में फूट डालने और देश के सामाजिक ताने-बाने को कमजोर करने वाली करार दिया। भाजपा सहित समाज के एक धड़े से इस पर कड़ा विरोध जताने के बाद शिंदे को स्पष्टीकरण देना पड़ा। गृह मंत्री ने साफ किया कि उन्होंने जो कुछ भी कहा उसमें आश्चर्यजनक रूप से नया कुछ भी नहीं है। ऐसी बातें राष्ट्रीय मीडिया में प्रमुखता से उठती रही हैं। विशेष तौर पर हैदराबाद और मालेगांव आतंकी हमलों को लेकर, जिनमें पहले मुस्लिम युवकों को पकड़ लिया गया था। बाद में इन धमाकों में दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी तत्वों की मिलीभगत का खुलासा हुआ। शिंदे के बयान और भगवा आतंक को राजनीतिक दलों से जोड़ने पर देश ने तीखी प्रतिक्रिया जताई। कांग्रेस पार्टी बचाव करती नजर आने लगी, हालांकि कुछ आवाजें शिंदे के समर्थन में भी सुनाई दीं। दूसरी घटना हरियाणा में पंचकूला के एक गुरुद्वारे की है। स्व. लेफ्टिनेंट जनरल आरएस दयाल के परिवार को उनकी बरसी पर स्थानीय गुरुद्वारे में भोग आयोजित करने की अनुमति नहीं दी गई। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) के प्रबंधन ने इसका कारण सिर्फ यह बताया कि जनरल दयाल 1984 के ऑपरेशन ब्लू स्टार का हिस्सा थे, जिसमें भारतीय सेना को स्वर्ण मंदिर में घुसे सिख आतंकियों को वहां से खदेड़ने के आदेश दिए गए थे। आखिरकार परिवार को वह भोग अपने स्तर पर ही आयोजित करना पड़ा। एसजीपीसी के इस रुख से सेना के सेवारत और सेवानिवृत्त, दोनों वर्गो की भावनाएं आहत हुईं।


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यह घटना भी इस वर्ग और राष्ट्र की आत्मा को उसी तरह सालती रहेगी जिस तरह 1984 के सिख विरोधी दंगों के घाव आज तक इस समुदाय को कष्ट देते रहे हैं। आतंक को किसी धर्म से जोड़ा जाना भारतीय राजनीति को लगा कोई नया आघात नहीं है। यह सिलसिला जनवरी 1948 में एक कट्टरपंथी हिंदू द्वारा महात्मा गांधी की हत्या से ही शुरू हो गया था। इसके बाद 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके ही सिख सुरक्षाकर्मी द्वारा की गई हत्या में भी इसी का अनुकरण किया गया। इन दोनों ही मामलों के मूल में धार्मिक भावना से उपजी अतिवादी व्यक्तिगत सोच थी, जिसके चलते ही दोनों नेताओं की हत्या कर दी गई। महात्मा गांधी की त्रासद हत्या के बाद के दशकों में पंथनिरपेक्ष भारत का विचार प्रबल बनकर उभरा। ऐसा भारत जहां संविधान की भावना के अनुरूप धार्मिक सौहा‌र्द्र और बंधुत्व की भावना न सिर्फ बनी रहे, बल्कि सुरक्षित भी रहे। वही संविधान जिसकी 64वीं वर्षगांठ हमने 26 जनवरी को मनाई। बहरहाल, बाहरी कारकों और संकटग्रस्त आंतरिक परिस्थितियों ने मिलजुल कर आंतरिक सुरक्षा के ढांचे को और बिगाड़ दिया है। 1992 में अयोध्या ढांचे विध्वंस के कारण 1993 का मुंबई हमला हुआ, जिसमें 250 से ज्यादा लोग मारे गए थे। इसके बाद से भारत की आंतरिक सुरक्षा पर पिछले 20 वर्षो से आतंक का साया मंडरा रहा है। पूरे देश को हिलाकर रख देने वाला नवंबर 2008 का मुंबई हमला तो और भी वीभत्स था। डेविड हेडली के बारे में हाल ही में हुए खुलासे तो इस उपमहाद्वीप के सुरक्षा ढांचे में आज भी मौजूद खामियों की ओर संकेत करते हैं, जहां घरेलू ताकतें और विदेशी हाथ मिले हुए हैं। 1998 में भाजपा नीत राजग के केंद्रीय सत्ता में आने के बाद से पिछले दो दशकों में दो प्रमुख राष्ट्रीय दलों कांग्रेस और भाजपा में इस पर मतभेद बने रहे कि आतंक को मजहब से जोड़े जाने की चुनौती से कैसे पार पाई जाए। अफसोस कि दोनों दलों के मतभेद और उनके द्वारा अख्तियार किए गए रुख का निष्कर्ष शून्य ही रहा, बल्कि इसने आतंक की चुनौती से निपटने के राष्ट्रीय संकल्प को कुछ कमजोर ही किया। अक्सर कहा जाता है कि आतंक का कोई मजहब नहीं होता। नि:संदेह वह रंग देखकर हमला नहीं करता, लेकिन जब कोई आतंक फैलता है तो सरकार को निष्पक्ष और प्रभावी रूप से इस चुनौती से निपटना चाहिए। इस लिहाज से शिंदे का बयान अविवेकपूर्ण और अल्पसंख्यक समुदाय को ध्यान में रखकर दिया गया है, जो उनकी राजनीतिक अदूरदर्शिता का परिचायक है।


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जब देश के गृहमंत्री जनता के बीच या जनता के लिए इतने संवेदनशील और जटिल मुद्दे पर कुछ बोलते हैं तो उनके एक-एक शब्द का चयन बेहद सावधानीपूर्वक किया गया होना चाहिए। जब भारत सरकार का कोई प्रतिनिधि भाजपा जैसे देश के प्रमुख राजनीतिक दल या आरएसएस जैसे संगठन को जानबूझकर आतंक फैलाने से जोड़ रहा है तो उसके पीछे न केवल कुछ ठोस तर्क और प्रमाण होने चाहिए, बल्कि उसे कानूनी दृष्टि से तार्किक अंजाम तक भी पहुंचाया जाना चाहिए। कानून का इस्तेमाल बिना किसी भय और पक्षपात के किया जाना चाहिए। यदि राष्ट्र-राज्य सत्तारूढ़ दल या गठबंधन की राजनीतिक अनिवार्यता के अंग के रूप में काम करता दिखाई देने लगे तो जनरल दयाल के संबंध में जो निंदनीय रुख एसजीपीसी ने अख्तियार किया, आने वाले दिनों में वही सब सामने आएगा। जनरल दयाल भारतीय सेना के अनमोल रत्न और हाजी पीर के नायक हैं। उन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया जा चुका है। जिस तरह एसजीपीसी ने उनके लिए एक धार्मिक संस्कार आयोजित करने की अनुमति देने से इन्कार किया वह दुखद है। इससे भी ज्यादा दुखद है सरकार तथा उस सिविल सोसायटी द्वाराइस फैसले को स्वीकार कर लेना जो आज तमाम मुद्दों पर आंदोलित हो रही है। ये लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। राजनीति और मजहब को एक लोकतंत्र में अलग-अलग नहीं किया जा सकता है। इसी तरह अतिवादी विचारधारा का तुष्टीकरण करना गणतंत्र की भावना के विरुद्ध है। राजनीति और मजहब में एक दूरी आवश्यक है। राजनीति और मजहब के संबंध में तथ्यों से छेड़छाड़ करने और तुष्टीकरण की नीति अपनाने के दूरगामी परिणाम देश की आंतरिक सुरक्षा की कब्र खोदने जैसे होंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि संसद के आने वाले सत्र में इस मुद्दे पर निष्पक्षता से बहस हो सकेगी।



लेखक सी उदयभाष्कर सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ हैं



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