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सौदेबाजी वाली राजनीति

जागरण मेहमान कोना
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Rajnath Singh Surya भारत के पांच प्रधानमंत्री अपना कार्यकाल पूरा कर पाने में विफल रहे हैं। चौधरी चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, एचडी देवगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल। विश्वनाथ प्रताप सिंह के अलावा शेष प्रधानमंत्री कांग्रेस के समर्थन से बने थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार भाजपा और साम्यवादियों के बाहरी समर्थन से चल रही थी। समर्थकों की बैसाखी हटते ही ये सरकारें धराशायी हो गईं। इन सरकारों के असामयिक पतन से यह साफ हो गया कि अल्पमत वाली कोई भी सरकार तभी चल सकती है जब उसका नेतृत्व मुख्य दल संभाले।


अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पहली ऐसी साझा सरकार बनी जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में बनी दूसरी साझा सरकार अपना दूसरा कार्यकाल पूरा करने की ओर बढ़ रही है। जब से देश में किसी एक पार्टी के बहुमत वाली सरकार बनने की संभावना खत्म हुई है तब से क्षेत्रीय दलों की महत्ता बढ़ गई है।


ये दल अपनी सुविधा के अनुसार केंद्रीय सरकार के सहायक या समर्थक बनते रहे हैं, लेकिन जब चुनाव नजदीक आता है तो विरोधी खेमे में चले जाते हैं या अकेले विरोध में खड़े हो जाते हैं। जिस प्रकार क्षेत्रीय आग्रहों के कारण 2004 के लोकसभा चुनाव के समय द्रमुक वाजपेयी सरकार से अलग हो गया था वैसे ही संप्रग सरकार से अलग होने की शुरुआत ममता बनर्जी ने कर दी है।


वाजपेयी सरकार का साथ जिन दलों ने दिया था उनमें तृणमूल कांग्रेस को छोड़कर किसी ने भी ब्लैकमेल करने का प्रयास नहीं किया था। उन्होंने वही काम मनमोहन सिंह सरकार के साथ किया है। अंतर सिर्फ इतना है कि वाजपेयी सरकार से हटने का कोई कारण न होने के कारण ममता बनर्जी पुन: मंत्रिमंडल में शामिल हो गई थीं, लेकिन मनमोहन सिंह सरकार ने अपने प्रति जनरोष के इतने मुद्दे उछाल दिए हैं कि संप्रग से बाहर जाने वाले की वापसी की कोई संभावना नहीं है और जो साथ हैं वे अगला लोकसभा चुनाव उसके साथ मिलकर शायद ही लड़ें।


उत्तर प्रदेश के दोनों बड़े दल-सपा और बसपा भय से ग्रस्त होकर संप्रग सरकार को बचाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। उन्होंने भी साफ कर दिया है कि वे अकेले दम पर लोकसभा का चुनाव लड़ेंगे। मुलायम सिंह यादव दो नावों पर सवार हैं। उनके इस कथन पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है कि वह रिटेल में एफडीआइ के खिलाफ तृणमूल कांग्रेस के संसद में लाए जाने वाले प्रस्ताव का समर्थन करेंगे और न इस दावे पर कि सरकार को गिरने नहीं देंगे। बहुत संभव है कि वह पूर्व के बयान के अनुरूप विरोध जताते हुए वाकआउट कर जाएंगे। जिस प्रकार लालू प्रसाद यादव चारा घोटाला में आरोपित होने के कारण कांग्रेस के साथ बंधे रहने के लिए बाध्य हैं उसी प्रकार मुलायम सिंह यादव और मायावती भी आय से अधिक संपत्ति के मामलों में लंबित वाद के कारण कांग्रेस का साथ देने को मजबूर हैं।


उन्हें यह भय भी सता रहा है कि कांग्रेस का साथ छोड़ने पर मुस्लिम मतदाता नाराज हो जाएगा। दरअसल, सपा और बसपा समाज को मजहब और जाति के आधार पर विभाजित करते हुए उन लोगों को सांप्रदायिक बता रहे हैं जो सभी नागरिकों में समानता के पक्षधर हैं। सेक्युलरिस्ट यह समझते हैं और समझाने का प्रयास करते हैं कि केवल मुसलमानों को ही मतदाता मानकर उनके लिए ही किए गए प्रावधानों के सहारे चुनाव जीता जा सकता है। हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, जैसे अमेरिका में बनी किसी फिल्म और फ्रांस में बने किसी कार्टून पर हो रही है। किसी को यह अनुभूति भले ही न हो, लेकिन राम मनोहर लोहिया के दृष्टिकोण के प्रति आस्थावान होने का दावा करने वाले मुलायम सिंह यादव को तो कई बार इसका अनुभव भी हो चुका है।


संभवत: यूपी में पांचवीं बार सत्ता उनके हाथ में आई है। इसमें दो राय नहीं है कि उन्हें सत्ता दिलाने में मुस्लिम मतदाताओं का योगदान कम नहीं है, लेकिन क्या बसपा के शासनकाल में हुए शोषण से केवल मुस्लिम मतदाता ही त्रस्त थे। यदि ऐसा होता तो मुलायम सिंह को उत्तर प्रदेश की विधानसभा में आधी से अधिक सीटें नहीं मिलतीं। इतना बड़ा बहुमत उन्हें पूरे समाज के समर्थन से मिला है, जिसमें मुस्लिम सिर्फ 15-16 प्रतिशत हैं। इसी प्रकार पूरे समाज के साथ मुस्लिम समुदाय को भी महंगाई, भ्रष्टाचार, कुशासन और लूट की मार झेलनी पड़ रही है। यह ठीक है कि अभी भी मुस्लिम समुदाय को भाजपा का भय सताता है, लेकिन समाज के अस्सी प्रतिशत लोग तो कुशासन से मुक्ति चाहते हैं। जो भी कुशासन के साथ खड़ा होगा उसकी वही स्थिति होगी जो आपातकाल का समर्थन करने वाले वामदलों की 1977 के चुनाव में हुई थी।


पता नहीं मुलायम सिंह को यह बात क्यों समझ में नहीं आ रही है कि उत्तर प्रदेश में जब-जब वह सत्ता में रहे अगले चुनाव में उनकी पराजय हुई। मुलायम सिंह यादव को अपेक्षा है कि 2014 के चुनाव में किसी दल को बहुमत नहीं मिलेगा, इसलिए कांग्रेस उन्हें प्रधानमंत्री बनाने पर सहमत हो सकती है। यदि ऐसा हुआ भी तो वह चरण सिंह, चंद्रशेखर, देवगौड़ा या गुजराल ही बन सकेंगे, क्योंकि कांग्रेस का इतिहास ही ऐसा रहा है। देवगौड़ा को जबरन प्रधानमंत्री बनाया गया था, गुजराल मजबूरी के प्रधानमंत्री थे, चरण सिंह को पार्टी को कांग्रेस में विलय के वादे पर और चंद्रशेखर को जनता दल तोड़कर विश्वनाथ प्रताप सिंह को सत्ताच्युत करने के इनाम के तौर पर। मुलायम सिंह इनमें से किस रोल में हैं, यह वह खुद समझ सकते हैं।


राजनाथ सिंह सूर्य राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं


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