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पिछले दिनों राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन ने बीजिंग यात्रा के दौरान अपने चीनी समकक्ष दाइ बिंगुओ से वार्ता की। इससे पहले इसी साल जनवरी में भी दोनों की मुलाकात हुई थी। हालिया वार्ता का उद्देश्य मार्च में सेवानिवृत्त होने जा रहे दाई के उत्तराधिकारी के साथ वार्ताओं के सिलसिले को सुनिश्चित करना था। वार्ता के बाद शिवशंकर मेनन ने कहा कि सीमा वार्ता पर अब तक जो प्रगति हुई है उससे दोनों पक्ष साझा सहमति के स्तर पर पहुंच गए हैं, जो सीमा की उचित, निष्पक्ष और परस्पर स्वीकार्य रूपरेखा उपलब्ध कराएगा। दूसरे शब्दों में कहें तो इसका यह अर्थ है कि अब तक की वार्ताओं से कुछ भी हासिल नहीं हुआ है और भविष्य में भी वार्ताओं की कुछ ऐसी ही गति रहेगी। इन सीमा वार्ताओं की शुरुआत 2003 में हुई थी जब भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और चीनी राष्ट्रपति हू जिंताओ सीमा विवाद के हल के लिए एक नए ढांचे पर सहमत हुए थे।
2003 में वाजपेयी की चीन यात्रा भारतीय प्रधानमंत्री की एक दशक में होने वाली पहली चीन यात्रा थी। वार्ता के दौरान दोनों देशों ने सीमा विवाद हल करने की दिशा में प्रगति के लिए विशेष प्रतिनिधि नियुक्त किए थे। प्रधानमंत्री के तत्कालीन मुख्य सचिव भारत के राजनीतिक वार्ताकार थे। भारत ने तिब्बत पर चीन की संप्रभुता का अनुमोदन किया था और भारत में चीन विरोधी राजनीतिक गतिविधियों को अनुमति न देने का वचन दिया था, जबकि चीन ने 1975 में सिक्किम के भारत में विलय को स्वीकार कर लिया था। चीन ने सीमा के साथ व्यापार केंद्र खोलने पर सहमति जताई थी और बाद में सिक्किम को भारत का अंग मानते हुए आधिकारिक नक्शों में बदलाव किया था।
2005 में दोनों पक्षों ने राजनीतिक मापदंड और मार्गदर्शक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। चीन ने परस्पर सहयोग, इतिहास के सम्मान और वास्तविकता के आधार पर उलझे हुए सीमा मुद्दे का उचित समाधान निकालने की इच्छा जताई थी। 2008 में जब मनमोहन सिंह ने चीन की यात्रा की तो दोनों देशों ने 21वीं सदी की साझा दृष्टि घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए। इसका लक्ष्य दोनों देशों के बीच सामरिक और सहयोगात्मक साझेदारी के विकास से शांति व साझा संपन्नता के सौहार्दपूर्ण वातावरण के निर्माण को प्रोत्साहन देना था। साथ ही 2005 के सीमा समाधान समझौते को समर्थन देने की बात भी कही थी।
भारत और चीन के विशेष प्रतिनिधि सीमा सवाल पर किसी सहमति पर पहुंचने का प्रयास कर रहे हैं, किंतु उन्हें बहुत कम सफलता मिली है। 2005 के बाद से इन वार्ताओं में कोई प्रगति नहीं हुई है। चीन ने अपने पुराने दावों को फिर से उछालना और सीमा पर आक्रामक ढंग से पेट्रोलिंग शुरू कर दी है, जिसे भारत 1993 के एलएसी समझौते का उल्लंघन बताता है। यहां तक कि भारत जिस सिक्कम सीमा विवाद को सुलझा हुआ मान रहा था, चीन ने इस पर अपना दावा जताकर पिछले कुछ वर्षो से भारत के खिलाफ नया मोर्चा खोल दिया है। इस बात पर भी चिंता व्यक्त की जा रही है कि विवादित सीमाई इलाके में अपना दावा मजबूत करने के लिए चीन इस भूभाग में निरंतर घुसपैठ कर रहा है। यह घुसपैठ खासतौर पर सिलीगुड़ी गलियारे को ध्यान में रखकर की जा रही है, जो शेष भारत को पूर्वोत्तर से जोड़ता है। सीमा पर परिवहन ढांचागत सुविधाओं में चीन का व्यापक विस्तार और आधुनिकीकरण भी भारत को चिंतित कर रहा है। इस क्षेत्र में भारत चीन से दशकों पीछे है। हिमालयी क्षेत्र में परिवहन सुविधाओं का आधुनिकीकरण दशकों से चीन की योजनाओं में शामिल है।
बीजिंग और ल्हासा के बीच रेल लिंक ने भी तिब्बत पर चीन की पकड़ को मजबूत किया है। इसकी मदद से चीन ने 2008 के तिब्बत दंगों के दौरान तेजी से अपने सैनिक अशांत इलाकों में भेजने में सफलता पाई थी। चीन इस रेल लाइन को सिक्किम के नाथुला और बाद में उत्तरी अरुणाचल प्रदेश के निइंगची तक ले जाना चाहता है। अपने सीमाई इलाके के विकास की चीन की योजना ढांचागत विकास को लेकर भारत के ढुलमुल रवैये के बिल्कुल विपरीत है। चीन ने दक्षिण एशिया के साथ लगने वाली अपनी सीमाओं पर परिवहन ढांचे का कायाकल्प कर दिया है। भारत सीमा पर चीन का सड़क व रेल ढांचा उन्नत करने का फैसला भारत की भूराजनीति हकीकत को तेजी से बदल रहा है। नई दिल्ली और बीजिंग अपने सीमा विवाद को आज सामरिक परिप्रेक्ष्य में हल करने की कोशिश कर रहे हैं और यह उससे एकदम अलग है जो 2005 में स्थिति थी। निश्चित रूप से सीमा विवाद का समाधान एक जटिल और दुरूह कार्य है, क्योंकि किसी भी सरकार के लिए क्षेत्रों के मामले में कुछ देने और कुछ लेने के किसी फैसले पर पहुंचना बेहद कठिन होगा, लेकिन जो चीज हैरान करने वाली है वह है दोनों पक्षों के बीच बढ़ता विभाजन। यह गौर करने वाली बात है कि 15 दौर की बातचीत के बाद सीमा विवाद के समाधान के लिए निर्देशक सिद्धांतों के संदर्भ में 2005 के समझौते की दोनों पक्षों द्वारा जो व्याख्या की जा रही है उसमें काफी अंतर आता जा रहा है। एक ओर जहां भारत का मानना है कि साझा सीमा के निर्धारण के लिए केवल छोटे-छोटे क्षेत्रीय एडजस्टमेंट की आवश्यकता है वहीं चीन लगभग साठ हजार किलोमीटर के क्षेत्र पर अपना दावा बरकरार रखे हुए हैं। उसके इस दावे में अरुणाचल प्रदेश और तवांग का इलाका शामिल है।
चीन पूर्वी क्षेत्र में भारत से बहुत बड़ी मात्रा में रियायत चाहता है, जिसे स्वीकार करना नई दिल्ली के लिए संभव नहीं है। 2005 के समझौते पर जब हस्ताक्षर हुए थे तो इसे बहुत महत्वपूर्ण प्रस्थान बिंदु के रूप में देखा गया था, लेकिन मौजूदा सच्चाइयों ने अपने आप यह साफ कर दिया है कि अतीत को देखते हुए दोनों देशों के लिए किसी अंतिम समझौते तक पहुंचना आसान नहीं है। इतना ही नहीं 2005 का समझौता वास्तव में आने वाले वषरें में एक बड़ी बाधा के रूप में सामने आ सकता है। दरअसल यहां यह समझने की जरूरत है कि इस तरह के समझौते तभी सार्थक सिद्ध होते हैं जब संबंधित पक्षों के बीच अनुकूल सामरिक माहौल भी हो। एक ऐसे समय जब भारत-चीन संबंध अनेक मोर्चो पर परेशानी का सामना कर रहे हैं तब यह सोच लेना सही नहीं होगा कि 2005 में किया गया समझौता सीमा विवाद के समाधान में सहायक बन सकता है.
लेखक हर्ष वी. पंत लंदन के किंग्स कालेज में प्राध्यापक हैं
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