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वर्तमान समय में पर्यावरण प्रदूषण के दुष्प्रभावों की चर्चा आम है। यह बात और है कि हम इस विषय पर चर्चा अधिक और काम कम कर रहे हैं। भौतिकतावाद के इस दौर में आम व्यक्ति अपने शारीरिक सुखों के लिए इतना आत्मकेंद्रित हो चुका है कि वह अपने आसपास के बिगड़ते वातावरण को लेकर सुप्तावस्था में है। बस अपना काम बन जाए और हमें आराम मिल जाए वर्तमान में हर कोई इसी प्रवृत्ति के साथ अपना जीवन जी रहा है। हमारे आसपास वायु, जल, जंगल और जमीन जो भी दृश्य या अदृश्य है, लगभग सब कुछ अब प्रदूषण की कड़ी गिरफ्त में है। अभी तक प्रदूषण के दुष्प्रभाव तो हम देखते-भुगतते आ ही रहे थे, लेकिन एक ताजा वैज्ञानिक शोध ने मानव जाति की चिंता और बढ़ा दी है। इस शोध के अनुसार अब वायु प्रदूषण वाले क्षेत्रों में पैदा होने वाले नवजात शिशुओं का वजन कम होता जा रहा है। एन्वायरर्नमेंटल हेल्थ प्रॉस्पेक्टिव नाम की संस्था ने विभिन्न देशों में लाखों की संख्या में नवजात शिशुओं पर अध्ययन एवं जांच के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि ये स्थितियां साफ संकेत कर रही हैं कि भविष्य में इस विषय में लापरवाही बरतने के परिणाम और भी भयावाह हो सकते हैं। हालांकि इस शोध का केंद्र भारत नहीं है, फिर भी भारत जैसे देश में जहां तमाम सरकारी प्रयासों के बाद भी कुपोषण और शिशु मृत्यु दर में आशातीत सफलता नहीं मिल सकी है, वहां इस प्रकार के वैश्विक संकेत और भी बड़ी चिंता के कारण हैं।
सामान्य से कम वजन के नवजात को वैसे भी आयु बढ़ाने के साथ स्वास्थ्य संबंधी अनेक विकारों का सामना करना पड़ता है। ऐसे बच्चों के शरीर में कम प्रतिरोधी क्षमता और श्वसन संबंधी रोग सामान्य बात है। कई बार तो इसका परिणाम मृत्यु के रूप में भी सामने आता है। यह बात और है कि इस शोध के परिणाम में शिशु मृत्यु की आशंका तो व्यक्त नहीं की गई है, किंतु वायु प्रदूषित वातवरण में उत्पन्न हुए शिशु को मधुमेह, रक्तचाप और दिल की बीमारियां होने का डर साफ तौर पर जताया गया है। भारत में जननी सुरक्षा एवं प्रसव को लेकर पहले ही बहुत काम करने की जरूरत है। आज भी हम जननी एवं गर्भस्थ शिशु सुरक्षा के विषय में उतने सजग एवं सतर्क नहीं हैं, जितना इस उन्नत विज्ञान के युग में होना चाहिए। यह भी सत्य है कि स्थितियां पहले से बेहतर हुई हैं, लेकिन मानव जाति की नादानियों से चुनौतियां भी उसी अनुपात में बढ़ी हैं। वायु प्रदूषण के सिलसिले में हुए इस शोध ने भी ऐसी ही एक चुनौती की ओर आगाह किया है। विकास की अंधी दौड़ में शामिल होकर हम धीरे-धीरे इस बात से मुंह चुराने लगे हैं कि प्राकृतिक संसाधन हमारे सदुपयोग के लिए हैं न कि शोषण के लिए। यह सच अब स्वीकार किया जाना चाहिए कि हम सब मिलकर प्रकृति एवं उसके संसधानों का अप्राकृतिक रूप से विशुद्ध शोषण ही कर रहे हैं। फिर चाहे वह नदियों को रोकना हो, खनिज, वन संपदा कुछ भी क्यों न हो। हालात ये हैं कि जनसंख्या बढ़ने के साथ-साथ तमाम नैसर्गिक स्रोतों के उपयोगकर्ताओं की संख्या भी देश में बढ़ी है, किंतु दुर्भाग्यवश हमने इन स्रोतों के रख-रखाव पर ध्यान नहीं दिया और पूरा फोकस स्वार्थपूर्ति में लगाए रखा। इसका परिणाम यह निकला कि आज देश में अधिकांश महानगरों एवं नगरों की आबोहवा दूषित-प्रदूषित हो चुकी है। सुख-सुविधा के उपकरण, यातायात के समस्त निजी एवं सार्वजानिक परिवहन के साधन, देश के औद्योगिक विकास के वाहक कल-कारखाने एवं बड़े उद्योग-धंधे सभी का सह-उत्पाद वायु प्रदूषण है। विज्ञान में उत्पाद के साथ सह-उत्पाद का भी पूरा ध्यान रखना अपेक्षित है, लेकिन हमारे देश में लगता है कि इसका अभाव दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है, जिसके कारण वायु प्रदूषण के दुष्प्रभाव बहुत तीव्र गति से बढ़ रहे हैं।
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हमारे पड़ोसी चीन ने अपने बीजिंग शहर को वायु प्रदूषण से मुक्त करने के लिए बीस वर्षीय योजना पर अमल भी शुरू कर दिया है, लेकिन भारत में लगता है कि सभी अभी गहरी निद्रा में हैं। उसने तुरंत प्रभाव से 300 से ज्यादा फैक्टरियां बंद कर दी हैं। यह भी सत्य है कि आज के आधुनिक युग में दुनिया की गति से कदमताल करने के लिए संचार, परिवहन और कल-कारखाने सभी अति आवश्यक हैं, किंतु इसके साथ-साथ सेहतमंद एवं निरोगी शरीर के लिए अपने इर्द-गिर्द की वायु और संपूर्ण पर्यावरण का स्वस्थ एवं सशक्त रहना भी उतना ही जरूरी है। तमाम वैज्ञानिक चेतावनियों के बाद भी चिंता का विषय यह है कि इस दिशा में हमारी रफ्तार बहुत धीमी है। देश में आज भी आम आदमी का स्वास्थ्य बहुत अच्छी स्थिति में नहीं है। बदलती जीवनशैली के कारण दिनचर्या लगातार प्रभावित हो रही है। इसी के कारण देश का युवा भी आज मोटापा, मधुमेह, रक्तचाप एवं दिल संबंधी बीमारियों की जकड़न में है। देश की साठ प्रतिशत से अधिक की बहुसंख्यक युवा पीढ़ी आज तनावग्रस्त है। अब यदि हमारे शिशु भी वायु प्रदूषण के कारण कमजोर पैदा होंगे तो भारत के भविष्य का मानव संसाधन कैसा होगा, इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। विश्व मंच पर खेलों में हमारा स्तर हम जानते हैं। अब कमजोर नस्ल के चलते यदि हम दिमागी रूप से कमजोर एवं शरीरिक रूप से अस्वस्थ होते जाएंगे तो कैसे हमारे विश्व की महाशक्ति बनने का स्वप्न यथार्थ रूप ले पाएगा। वायु प्रदूषण एवं पर्यावरणीय मामलों में पर्याप्त विलंब के बाद भी स्थितियां नियंत्रित की जा सकती हैं। बस आवश्कता है कि आज से और अभी से हम सब इस वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने का जिम्मा निजी मानना शुरू कर दें, क्योंकि अभी तक की दुर्दशा इसलिए भी है कि हम सब इसके लिए सिर्फ सरकार का ही मुंह ताकते आ रहे हैं।
इस आलेख के लेखक पंकज चतुर्वेदी हैं
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