Menu
blogid : 5736 postid : 5178

बिजली पर सरकार की अदूरदर्शिता

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

Nirankar Singhहर साल गर्मियों की शुरुआत होते ही बिजली को लेकर पूरे देश में हाय-तौबा मचने लगती है। वैसे तो बिजली का संकट हमेशा रहता है, लेकिन गर्मियों में यह संकट काफी गहरा जाती है। बिजली के बिना देश के आर्थिक विकास की कल्पना नहीं की जा सकती है। हमारी विकास की कहानी ऊर्जा की आपूर्ति और निरंतरता पर टिकी है। ऊर्जा के बिना आर्थिक सुधार कार्यक्रमों को जारी रखना संभव नहीं है। इसलिए यह भारत की राजनीति के लिए भी सबसे महत्वपूर्ण संकट है। हमारे राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों ने ऊर्जा की तमाम चुनौतियों को नजरअंदाज किया है। कोयले पर अधिक ध्यान, तेल सौदों पर निर्भरता और पारंपरिक विकास के मॉडल पर हमारा जोर उसी पुरानी शैली की अर्थव्यवस्था के संकेत हैं, जो नई वास्तविकताओं को नकारती हैं। ऊर्जा का भारी संकट देश के भविष्य लिए भी विनाशकारी होगा। आज हमारी सबसे बड़ी चुनौती हमारे पास किसी रूपरेखा का न होना है। अब कोयले और तेल के मूल्यों की बढ़ती कीमतें हमारी स्थिति को और खराब कर रही हैं। देश के कई बिजलीघर कोयले के संकट का सामना कर रही हैं। हमारे 86 बिजलीघरों में कोयले को ईधन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। घरेलू उत्पादन में कमी होने के कारण कोयले का आयात भी काफी बढ़ गया है जिससे अंतरराष्ट्रीय बाजार में कोयले की कीमतें और बढ़ गई हैं। ऐसे में यदि इन बिजलीघरों में कोयले की आपूर्ति में गिरावट आती है तो बिजली उत्पादन पर असर पड़ेगा। देश के कई इलाकों में कोयले की कमी से बिजलीघर ठप होने के कगार पर हैं।


वर्तमान बिजली संकट के लिए कोयला मंत्रालय और ऊर्जा मंत्रालय समान रूप से जिम्मेदार हैं। इनमें से किसी ने भी समय रहते इसकी सुध नहीं ली। यदि इन मंत्रालयों के नीतिनियंता इस बात का भी अनुमान नहीं लगा सकते हैं कि बरसात के चलते कोयले का उत्पादन और उसकी आपूर्ति प्रभावित हो सकती है तो फिर उनके होने न होने का क्या मतलब है? हमारे तमाम बिजलीघर अपनी उत्पादन क्षमता का पूरा उपयोग नहीं कर पा रहे। निर्धारित क्षमता का पचास फीसदी उत्पादन भी नहीं होता है। कहीं कोयले का संकट है तो कहीं संयंत्र पुराने पड़ चुके हैं। राज्यों को जो बिजली मिलती है, उसमें एक तिहाई से अधिक बिजली चोरी हो जाती है। बड़े-बड़े बकायेदारों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की जाती। हमारे राजनेताओं और अधिकारियों को जहां अपनी काबिलियत और कौशल को दिखाना चाहिए वहां वह नाकारा साबित होते हैं। यही कारण है कि हमारी बिजली परियोजनाएं बहुत पीछे चल रही है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार का लक्ष्य समावेशी विकास का है, लेकिन बिजली के बिना इस लक्ष्य को कैसे प्राप्त किया जा सकता है? जब बिजली की विकास दर 8.3 फीसदी से घटकर 3.3 फीसदी हो गई तो वर्तमान विकास की दर को बनाए रखना किस तरह संभव होगा। कई राज्य सरकारों की लोकलुभावन योजनाओं से भी बिजली संकट गहराया है। किसानों और बुनकरों को मुफ्त बिजली देने की घोषणाओं से बिजली सुधार के कार्यक्रमों को झटका लगा है। बिजली क्षेत्र में सुधारों की असफलता भारत के आर्थिक उदारीकरण का सबसे बदनुमा दाग है।


बिजली चोरी और सरकार की लोकलुभावन योजनाओं से राज्यों की बिजली वितरण कंपनियों का घाटा वर्ष 2005-10 के बीच 820 अरब रुपये पर पहुंच चुका है। बिजली पर दी जा रही सब्सिडी भी एक बड़ी समस्या है। इन कंपनियों के 70 फीसदी घाटे बैंकों के कर्ज से पूरे होते हैं। राज्यों की बिजली कंपनियों व बोर्डो पर बैंकों की बकायेदारी 585 अरब रुपये की है, जिसमें 42 फीसदी कर्ज के पीछे सरकारों की गारंटी है। अगर बिजली कंपनियां डिफॉल्ट करती हैं तो प्रदेश सरकारों के पास 60 फीसदी कर्ज देने लायक संसाधन भी नहीं हैं। बिजली बोर्ड डूबे तो एक नए किस्म का वित्तीय और बैकिंग संकट आ सकता है। सूबों को यदि बचाना है तो उन्हें बिजली कंपनियों में घाटे के इन तारों को बंद करना होगा। यह इम्तिहान राजनीतिक सूझबूझ का है। रिजर्व बैंक मानता है कि यह करंट अब कभी भी लग सकता है और कई प्रदेशों को विकलांग बना सकता है। देश में कोयले की खुदाई और विद्युत उद्योग दोनों क्षेत्रों में गैर कानूनी बड़े खिलाड़ी हैं जो प्राय: खदानों मालिकों और राज्य विद्युत परिषद के नौकरशाहों से बेहद करीब से जुड़े होते हैं। राज्य द्वारा चलाए जाने वाली कोयला कंपनियों और पावर ट्रांसमिशन व वितरण आदि में भारी पैमाने पर बिजली की चोरी होती है।


भारत में 75 प्रतिशत से अधिक कोयला खुली खानों से निकाला जाता है। कोयले के भंडारों का अनुचित दोहन और खुदाई कार्यो में नियमों या मानकों का अभाव कोयला संरक्षण में बड़ी बाधा है। हमारे संसाधन बड़े पैमाने पर नष्ट हो रहे हैं। विद्युत क्षेत्र में घाटा और चोरी इतनी अधिक है कि 40 प्रतिशत ऊर्जा जो अंतत: पावर ग्रिड में प्रवेश करती है वह ट्रांसमिशन और वितरण के समय बर्बाद हो जाती है। इसका खामियाजा बिजली बिल चुकाने वाले ईमानदार उपभोक्ताओं को उठाना पड़ता है। खदानों और बिजली के संकट का नतीजा यह है कि भारतीय विश्व में ऊर्जा के लिए सर्वाधिक कीमत चुका रहे हैं और भारत में बिजली की कीमत वैश्विक औसत से 40 प्रतिशत अधिक है। इतनी ऊंची कीमत पर मिलने वाली बिजली भी भरोसेमंद नहीं है। शहरों में बिजली जाने की आम अवधि एक से तीन घंटे है, लेकिन छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली 18 घंटे तक गायब रहती है। औद्योगिक विकास के साथ हमारी बिजली मांग भी बढ़ रही है। आगामी 25 सालों में 766 अरब डॉलर निवेश की जरूरत है। ऐसे निवेश के लिए हमें उन अक्षमताओं से निपटना होगा, जो ऊर्जा की वर्तमान खपत को 60 प्रतिशत तक कम कर रही हैं। ईधन की प्रत्येक यूनिट का पूरा इस्तेमाल होना अहम है।


भारत सरकार को इसके लिए अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा समझौता करना शायद अधिक आसान उपाय लग रहा है, लेकिन बेहतर हो कि हम अपनी ही खामियों को पहले दुरुस्त करने पर ध्यान दें। हम साक्षी हैं कि कैसे पूर्व में अपने सहयोगी दलों का राजनीतिक समर्थन खोने के बावजूद जब ऐसा लग रहा था कि सरकार गिर जाएगी तो संप्रग सरकार ने भारत-अमेरिका के बीच हुए नाभिकीय संधि पर हस्ताक्षर किए। पर क्षमता के सुधारों को लागू करने से वर्तमान सरकार और पिछली सरकारें जानबूझकर नजरअंदाज करती रही हैं। ऊर्जा की ऑडिटिंग और नई सूचना प्रणालियों से बिजली के संचार और वितरण में ऊर्जा दक्षता 10 प्रतिशत तक बेहतर हो सकती है, लेकिन विस्तृत सुधारों से जो हासिल हो सकता है यह उसकी तुलना में रेजगारी जैसा है। भारत का विद्युत अधिनियम-2003 सीमित सुधार लाया, जिसने पावर ग्रिड को निजी संस्थानों के लिए खोला। परंतु हमें अभी और सख्त नीतियां चाहिए जो खराब ऊर्जा उत्पादन की पूरी विरासत को दुरुस्त कर सकें।


लेखक निरंकार सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


Read Hindi News


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh