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कैसा हो हमारा राष्ट्रपति

जागरण मेहमान कोना
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एक सौ दस करोड़ से भी अधिक लोगों के बीच उस व्यक्ति की तलाश जोर-शोर से जारी है, जो 25 जुलाई को शपथ लेने के बाद भारत का प्रथम नागरिक कहलाने का अधिकारी हो जाएगा। जी हां, मैं भारत के नए एवं तेरहवें राष्ट्रपति की तलाश की ही बात कर रहा हूं। इस बार इस तलाश में इतनी दिक्कत इसलिए आ रही है, इतना शोर-शराबा इसलिए मच रहा है, क्योंकि किसी भी पार्टी के पास, यहां तक कि केंद्र में आरूढ़ पार्टी के पास भी इतनी कूवत नहीं है कि वह अपने दम पर अगले राष्ट्रपति का फैसला कर ले। लिहाजा मशक्कत हो रही है। जोड़-तोड़ चल रही है। वक्तव्य और वाद-विवादों का दौर शुरू हो चुका है। देखते हैं कि इस समुद्र-मंथन से निकलकर क्या आता है, जिसे दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा तथा दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश अपने यहां के सर्वोत्तम व्यक्तित्व के रूप में पेश करेगा। जाहिर है कि इस समुद्र-मंथन के दो छोरों पर दो सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां हैं- कांग्रेस तथा भारतीय जनता पार्टी। इन दोनों की निगाहें दो साल बाद होने वाले आम चुनाव से होते हुए राष्ट्रपति के पद तक पहुंच रही हैं।

 

राष्ट्रपति चुनाव की राजनीति

 

भले ही यह व्यवस्था स्थापित हो चुकी है कि राष्ट्रपति लोकसभा के सबसे बड़े दल के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करेगा, लेकिन यह कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है कि राष्ट्रपति इसके लिए बाध्य ही हो। स्पष्ट है कि यहां उसे अपने विवेक से निर्णय लेने का अधिकार है और फिलहाल दोनों पार्टियां अपने-अपने लिए ऐसे उम्मीदवार की तलाश में हैं, जो जरूरत पड़ने पर अपने विवेक का इस्तेमाल उनके पक्ष में कर सके। यह राष्ट्रपति के चुनाव का राजनीतिक आधार है, लेकिन क्या इससे हटकर भी कोई आधार होना चाहिए? सच तो यह है कि कम से कम राष्ट्रपति का चुनाव तो इससे हटकर होना ही चाहिए, बावजूद इसके कि उनका चुनाव करने वाले लोग राजनीतिक भी होते हैं। वस्तुत: भारत के राष्ट्रपति की संवैधानिक स्थिति चाहे जो भी हो, लेकिन मूलत: वह देश की अस्मिता एवं मेधा की जीवंत प्रतिमूर्ति होता है। वह एक ऐसा राष्ट्रप्रमुख होता है, जो देश के व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है। यह प्रतिनिधित्व राष्ट्र के स्तर से कहीं अधिक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होता है। इस तथ्य को आम लोग भले ही इतनी शिद्दत के साथ स्वीकार करने में संकोच करें, लेकिन विदेशों में तो भारत के राष्ट्रपति को इसी रूप में देखा और स्वीकार किया जाता है।

 

राष्ट्रपति की भूमिका

 

यह बात मैं पूरी गंभीरता और ईमानदारी के साथ इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि मैं इसका साक्षी रहा हूं और पूर्व राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा के निजी सचिव की हैसियत से मैंने बार-बार इस सत्य को स्पष्ट तौर पर देखा और महसूस किया है। क्या पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के साथ भी ऐसा ही कुछ नहीं था? डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. राधाकृष्णन तथा डॉ. जाकिर हुसैन जैसे व्यक्तियों ने अपनी विद्वता, व्यक्तित्व एवं निष्ठा से इस पद को गरिमा प्रदान करके विदेशों में देश के गौरव को बढ़ाया था। जब भी हम विदेश यात्राओं पर जाते थे, शायद ही कोई ऐसा देश हो जहां हमें यह सुनने को न मिला हो कि आपका राष्ट्रपति बहुत विद्वान है।

 

चेक गणराज्य के तत्कालीन राष्ट्रपति वात्सलाव हॉवेल, जो स्वयं एक प्रसिद्ध साहित्यकार भी थे, ने जिस आत्मीयता के साथ न केवल डॉ. शंकर दयाल शर्मा से, बल्कि हम लोगों से भी व्यवहार किया था, वह दो राष्ट्रप्रमुखों से कहीं ज्यादा दो विद्वानों की भेंट का नतीजा थी। जब हम लोग पोलैंड गए थे, तब वहां की महान कवि शिंबोस्र्का ने डॉ. शर्मा से मिलने की इच्छा व्यक्त की थी, जिन्हें कुछ ही दिनों पहले साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला था। इस मुलाकात का सच यही था कि शिंबोस्र्का भारत के राष्ट्रपति से नहीं, बल्कि भारत के एक विद्वान से मिल रही थीं। ओमान के सुल्तान ने तो हमारे राष्ट्रपति की कुछ इस प्रकार से खिदमत की थी, मानो कि एक शिष्य अपने गुरु की सेवा-सुश्रवा में लगा हुआ हो।

 

हमारा राष्ट्रपति हमारे देश की राजनीति का प्रमुख नहीं होता है। यह जिम्मेदारी प्रधानमंत्री को दी गई है। राष्ट्रपति देश की कला, साहित्य, संस्कृति एवं समाजसेवा का मूर्त रूप होता है। तभी उसे यह जिम्मेदारी सौंपी गई है कि वह इन क्षेत्रों के बारह लोगों को राज्यसभा में नामजद करेगा। अब यह बात अलग है कि इसमें भी राष्ट्रपति की चलती नहीं है। उसे मंत्रिमंडल द्वारा सुझाए गए नामों पर ही अपनी मुहर लगानी पड़ती है। फिर भी यह संवैधानिक प्रावधान कहीं न कहीं राष्ट्रपति की उस योग्यता को तो इंगित करता ही है कि उसमें इस क्षेत्र के लोगों की परख करने की क्षमता होनी चाहिए। और यह तभी संभव है जब राष्ट्रपति का उस क्षेत्र से संबंध हो। एक बात और। जनता जिसे अपना प्रतिनिधि चुनती है, वह जनता के व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है। अब यथा राजा तथा प्रजा का जमाना गया। अब हम यथा प्रजा तथा राजा के लोकतांत्रिक दौर में हैं। इस कहावत को राष्ट्रपति के चुनाव पर भी लागू करना गलत नहीं होगा।

 

राष्ट्रपति के निर्वाचन में संसद के दोनों सदनों के सदस्य तथा राज्यों के विधानसभा के सदस्य भाग लेते हैं। ये ही मिलकर फैसला करते हैं कि आने वाले पांच साल में कौन राष्ट्र के प्रमुख का दायित्व संभालेगा। जाहिर है कि यह राष्ट्रप्रमुख सीधे-सीधे तौर पर हमारे सांसदों और विधायकों के ही व्यक्तित्व को व्यक्त करने वाला होगा। ऐसी स्थिति में क्या यह बेहतर नहीं होगा कि देश के कुछ पक्षों को राजनीति से अलग करके देखा जाए और राष्ट्रपति के निर्वाचन का पक्ष उन कई पक्षों में से एक किंतु सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है।

 

 लेखक डॉ. विजय अग्रवाल पूर्व आइएएस हैं

 

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