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राष्ट्रपति प्रणाली की जरूरत

जागरण मेहमान कोना
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Kuldeep Nayarसंसदीय प्रणाली की जगह राष्ट्रपति पद्धति वाले शासन का सुझाव दे रहे हैं कुलदीप नैयर


बड़े से बड़ा आशावादी भी इस बात से इन्कार नहीं कर सकता कि आने वाले कई वर्षो तक देश में साझा सरकारें ही रहेंगी। देश का राजनीतिक परिदृश्य इस कदर गड्डमड्ड हो चुका है कि लोकसभा में किसी पार्टी को साधारण बहुमत भी नहीं हासिल होने वाला है। कांग्रेस और भाजपा, दोनों राष्ट्रीय पार्टियां लंबे समय से 200 की संख्या के आसपास सिमट कर रह जा रही हैं। 2014 के चुनाव में भी इस बात की कोई संभावना नहीं दिखती कि दोनों में से कोई भी 272 की जरूरी संख्या तक पहंुच पाएगी और अकेले सरकार बनाने की स्थिति में होगी। यह निराशा पैदा करने वाली स्थिति है, क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार और फिर 2004 से अब तक कांग्रेस की सरकार ने दिखा दिया है कि सत्ता में बने रहने के लिए गठबंधन के सहयोगी दलों का समर्थन पक्का करने की कोशिश में कई गंभीर मुद्दों से किनारा करना पड़ा है। कांग्रेस ने संप्रग बनाया है, जबकि राजग की अगुवाई भाजपा कर रही है। ये गठबंधन कई दलों को मिलाकर बने हैं और इनमें शामिल दल अपने लाभ के लिए एक-दूसरे के साथ हैं। ऐसा इंतजाम लेन-देन पर ही टिका होता है। निश्चित रूप से इसका बेहतर नतीजा नहीं निकलता, बल्कि अलग-अलग हितों का घालमेल बना रहता है और कुछ समय के लिए मतलब सधता रहता है। वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने पिछले दिनों कबूल किया कि आर्थिक सुधारों में अड़चन आ रही हैं।


प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी बार-बार कहा है कि उनकी सरकार को गठबंधन धर्म का पालन करना पड़ता है। मतलब कि समर्थकों की बात मानने के लिए महत्वपूर्ण नीतियों को भी छोड़ना पड़ता है। दूसरे शब्दों में उनकी सरकार बेबस है और अगले दो साल तक सरकार यूं ही चलती रहेगी। बढ़ती महंगाई और घटती विकास दर को देखते हुए इस स्थिति का बना रहना कतई हितकारी नहीं है। देश को ठंडे दिमाग से जवाबदेही के साथ आगे के बारे में सोचना होगा। संसदीय पद्धति की तमाम विशेषताओं के बावजूद इसके तहत देश तेजी के साथ आगे नहीं बढ़ सकता। संसदीय पद्धति बहुमत पर आधारित होती है, जबकि मौजूदा स्थिति में किसी पार्टी को यह बहुमत हासिल होना संभव नहीं रह गया है। इस हकीकत से आंखें मूंद लेने से वास्तविकता न तो बदल सकती है और न ही समाप्त हो सकती है। भारत में संसदीय व्यवस्था ने लोकतंत्र को बनाए रखने का काम किया है, लेकिन जितना कुछ होना चाहिए था वह नहीं हो सका है। पिछले सप्ताह संसदीय व्यवस्था की साठवीं सालगिरह मनाई गई। संसद सदस्यों ने महसूस किया कि जो स्थितियां उभरी हैं उनमें संसद के कामकाज में बाधा डालने की संख्या बढ़ी है। यह सोचने वाली बात है कि जो देश गरीबी से निजात पाने की कोशिश में लगा हुआ है उसके लिए क्या यह हितकर है? ऐसे में संसदीय पद्धति की जगह राष्ट्रपति पद्धति का शासन अपनाने पर विचार करना चाहिए। यह पद्धति भी लोकतांत्रिक और पारदर्शी है। अमेरिका और फ्रांस में इसी तरह की शासन व्यवस्था है।


राष्ट्रपति शासन पद्धति अपनाने पर हम सभी को मान्य नेतृत्व मिलेगा, क्योंकि देश के अलग-अलग हिस्से के लोग किसी एक व्यक्ति का चुनाव सीधे तरीके से एक निश्चित समय के लिए करेंगे। इस तरह जिस व्यक्ति का चुनाव होगा वह अपना पूरा ध्यान राजकाज चलाने पर लगाएगा। उसे गठबंधन के सहयोगी दलों या क्षेत्रीय दलों पर आश्रित नहीं रहना पड़ेगा। इस प्रक्रिया में देश ज्यादा सशक्त और एकजुट रहेगा। राष्ट्रपति शासन व्यवस्था में भी संसद रहेगी। लोकसभा के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष और राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष तरीके से होगा, जैसे अमेरिकी कांग्रेस और सीनेट का चुनाव होता है। दोनों सदनों के अधिकारों को भारतीय माहौल के हिसाब से फिर से परिभाषित किया जा सकता है। नि:संदेह इसमें राष्ट्रपति के तानाशाह बन जाने का खतरा है, लेकिन इसे रोकने के कई तरीके भी रहेंगे। राष्ट्रपति शासन पद्धति के निरंकुशता में बदलने की सोच गलत है, क्योंकि इंदिरा गांधी तो प्रधानमंत्री रहते हुए भी निरंकुश बन गई थीं। आपातकाल की यातनाएं झेलने के बाद संसद ने संविधान में संशोधन किया और खामियों को दूर किया। इसी तरह अगर राष्ट्रपति शासन पद्धति को अपनाया जाता है तो देश तानाशाही से बचने का रास्ता निकाल लेगा। राष्ट्रपति शासन पद्धति पर संविधान सभा में विचार किया गया था। कई सदस्यों ने इसका समर्थन किया था, जबकि कुछ ने सरकार की ओर से सभी अधिकार अपने हाथ में लेने से बचाव के उपाय करने की बात उठाई थी, लेकिन भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इस पर आगे बहस रोक दी थी। उनकी दलील थी कि आजादी के पहले जब प्रांतीय और सेंट्रल असेंबली का गठन हुआ तो भारत ने ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली को अपनाया था। यह सही है कि अपने 17 साल के शासनकाल के दौरान नेहरू को किसी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा। इसके अनेक कारण थे। एक तो खुद उनका कद बहुत बड़ा था और फिर कांग्रेस लगभग सभी प्रांतों में शासन में थी।


बहरहाल, राज्यसभा सदस्य बनने के लिए संबंधित राज्य का नागरिक होना जरूरी नहीं होने का कानून बनाने से संसद का स्वरूप तो बदल ही चुका है। पहले संविधान में व्यवस्था थी कि कोई भी व्यक्ति राज्यसभा का सदस्य उसी राज्य से हो सकता है जिस राज्य का वह निवासी हो, लेकिन एक दशक पहले कांग्रेस और भाजपा, दोनों ने ही साजिश कर इसे समाप्त कर दिया और अब देश के किसी राज्य का निवासी किसी भी राज्य से राज्यसभा का सदस्य चुना जा सकता है। ऐसे में फिर राज्यसभा राज्यों का सदन कैसे रहा? संबंधित राज्य का निवासी होना जरूरी होने की शर्त खत्म कर दोनों मुख्य राजनीतिक पार्टियों ने सदन का दरवाजा थैली वालों के लिए खोल दिया। उनके इस काम से संसदीय व्यवस्था का संतुलन गड़बड़ा चुका है। संविधान निर्माताओं के दिमाग में जो संघीय ढांचा था वह ध्वस्त हो चुका है। यहां तक कि केंद्र-राज्य संबंध के बारे में सरकारिया आयोग की रिपोर्ट को भी लागू नहीं किया गया है। प्रधानमंत्री देश का शासन उसी तरह चला रहे हैं जिस तरह राष्ट्रपति शासन पद्धति के प्रमुख चलाते हैं। गलत सोच वाली उनकी नीतियां कारगर नहीं होतीं, तो भी वे इसकी जवाबदेही स्वीकार नहीं करते। लोकतंत्र में व्यवस्था के प्रति जनता का विश्वास होना बहुत जरूरी है। अगर ऐसा नहीं होगा तो फिर शासन के आधार पर ही सवाल खड़ा हो जाएगा। पूर्ण बहुमत वाली कोई अकेली पार्टी नहीं रहने या फिर विभिन्न दलों के बीच सहमति नहीं बन पाने के कारण भारत में संसदीय व्यवस्था कारगर तरीके से काम नहीं कर पा रही। ऐसे में राष्ट्रपति शासन पद्धति विकल्प है। इसमें एक व्यक्ति का नेतृत्व होगा और वह देश को चलाएगा।


लेखक कुलदीप नैयर प्रख्यात स्तंभकार हैं


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