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क्या है राशिफल?

जागरण मेहमान कोना
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Raj Kishoreप्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष मार्कडेय काटजू की किसी और बात से मैं सहमत होऊं या नहीं इस बात से मेरी पूरी रजामंदी है कि पत्र-पत्रिकाओं में तरह-तरह के अंधविश्वासों को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसका बड़ा उदाहरण है राशिफल। देश का शायद ही कोई अखबार हो जिसमें दैनिक या साप्ताहिक राशिफल न छपता हो। अधिकांश पत्रिकाएं भी यह काम करती हैं। मेरा निश्चित विश्वास है राशिफल एक ऐसा मिथ्यात्व है जिसकी हकीकत जानने के लिए वैज्ञानिक चेतना की जरूरत नहीं बस कॉमनसेंस ही काफी है। राशिफल में मेरा अविश्वास कब शुरू हुआ यह मुझे याद नहीं। बचपन में ही नहीं बाद तक भी अपना राशिफल पढ़ता रहा हूं। यह सोचकर नहीं कि आज मेरा दिन कैसा बीतेगा यह तो मैं राशिफल पढ़ने के बाद ही भूल जाता था, बल्कि सहज उत्सुकतावश क्योंकि अखबार का और कौन सा कोना होता है जहां किसी को अपने बारे में कोई व्यक्तिगत सूचना छपी मिलती है। अपना राशिफल अब भी पढ़ लेता हूं, क्योंकि भविष्य में किसकी दिलचस्पी नहीं होती, लेकिन जहां तक यकीन करने का सवाल है मैं इस पर रत्तीभर भी यकीन नहीं करता। ज्योतिष या फलित ज्योतिष विज्ञान के दायरे में आता है या नहीं, इस बारे में मैं कुछ कहना नहीं चाहता। वैज्ञानिकता की जो पश्चिमी परिभाषा है और जो विश्व भर में लगभग मान्य है उसमें ज्योतिष के लिए कोई सम्मानजनक स्थान नहीं है।


दुनिया की एक बड़ी आबादी इस विज्ञान से सहमत नहीं है। वह ईश्वर में विश्वास करती है, धर्म में विश्वास करती है और उसका एक बड़ा हिस्सा ज्योतिष में विश्वास करता है। इन्हें तार्किक स्तर पर चुनौती नहीं दी जा सकती क्योंकि इनकी अपनी तर्कप्रणाली है। राशिफल भी ऐसी ही चीज है। जो मानते हैं वे मानते हैं। जैसे आप किसी से उसका ईश्वर नहीं छीन सकते वैसे ही आप किसी से उसका राशिफल नहीं छीन सकते। ऐसा नहीं है कि ग्रहों के प्रभाव से मैं इंकार करता हूं। जब दुनिया का जर्रा-जर्रा हममें से हर एक की जिंदगी को प्रभावित करता हैए तो ग्रह और उपग्रह तो बड़े-बड़े पिंड हैं, वे हमारे जीवन को प्रभावित क्यों नहीं करेंगे? आखिर सूर्य तो हमें प्रभावित करता ही है। उसके बिना पृथ्वी पर जीवन संभव ही नहीं है और चंद्रमा भी हमें कई तरह से प्रभावित करता है। फिर मंगल, बुध, वृहस्पति, शुक्र, शनि आदि ग्रहों का पृथ्वी पर और पृथ्वी के जीवन पर प्रभाव क्यों नहीं पड़ता होगा? सवाल है कि क्या यह प्रभाव हममें से हर प्राणी पर अलग-अलग पड़ता होगा? क्या अपनी-अपनी राशि के अनुसार हम प्रत्येक खगोलीय घटना से अलग-अलग प्रभावित होते होंगे? इसमें मुझे गहरा संदेह है। इसमें भी मुझे संदेह है कि ग्रहों के समवेत प्रभाव को बारह वर्गो में बांटा जा सकता है। मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि मानवता की नियति को मात्र बारह भागों में बांटा जा सकता है। गांधीजी का कहना था कि धर्म उतने ही हो सकते हैं जितने व्यक्ति हैं। हर व्यक्ति अपने धर्म को अपने स्तर पर परिभाषित करने के लिए स्वतंत्र है। मुझे कोई दुविधा नहीं है कि जब तक राशिफल को वैज्ञानिक प्रणाली द्वारा मान्यता नहीं मिल जाती तब तक पत्र-पत्रिकाओं द्वारा राशिफल छापने का कोई औचित्य नहीं है।


काटजू ठीक कहते हैं कि हमारे देश में रुढि़यों और अंधविश्वासों का जैसा बोलबाला है और तमाम प्रगति के बावजूद उनका वर्चस्व जिस तेजी से बढ़ रहा है उसे देखते हुए पत्र-पत्रिकाओं का नैतिक दायित्व है कि वे समाज में वैज्ञानिक चेतना का विकास करने में योगदान करें। भारतीय संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों में कहा भी गया है कि राज्य वैज्ञानिक चेतना के विकास के लिए प्रयत्न करेंगे। यह दुर्भाग्य है कि स्वयं सरकारी भवनों के निर्माण के पहले भूमि पूजन जैसे पारंपरिक आयोजन होते हैं और मिसाइल छोड़ने के पहले देवताओं को अ‌र्घ्य दिया जाता है तथा नारियल फोड़ा जाता है। लगभग सारे राजनेता और नौकरशाह ज्योतिषियों के दरबार में पहुंचते हैं और तरह-तरह के कर्मकांड करते हैं।


स्कूलों-कॉलेजों में भी वैज्ञानिकता का कोई वातावरण नहीं है। एक पिछड़े हुए समाज में यह सब स्वाभाविक है, लेकिन जब मीडिया इन प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करता है तब यह सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि क्या वह प्रगतिशील भूमिका निभा रहा है या सामाजिक और सांस्कृतिक अग्रगति में रोड़ा अटका रहा है। जब कोई ऐसी घटना होती है जिसमें कोई बच्चा तमाम खतरों के बीच से भी जीवित बच निकलता है तो अधिकांश अखबार लिखते हैं जाके राखे साइयां मार सके ना कोय। इससे ज्यादा बेतुकी बात क्या हो सकती है? ईश्र्वर किसी को क्यों मारना चाहेगा और किसी को क्यों बचाना चाहेगा? अगर कोई भूकंप में, बाढ़ में, रेल या हवाई दुर्घटना में बच गया तो यह महज संयोग है इसमें ईश्र्वर की भूमिका क्या हो सकती है, लेकिन मीडिया इस बहाने झूठी आस्तिकता का प्रचार करता है और हमें धर्मभीरू बनाता है। अपने कार्य के दिनों में मुझे राशिफल के लिए एक पूरा पन्ना और उन रंगीन पन्नों से चिढ़ थी जिन पर युवा अभिनेत्रियों की उत्तेजक तस्वीरें और उनके बारे में गप छपा करती थीं। न्यायमूर्ति काटजू ठीक कहते हैं इस तरह की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित कर या इनके सामने आत्मसमर्पण कर मीडिया अपने स्वाभाविक दायित्व से पलायन कर रहा है। काटजू के इस सुझाव पर मीडिया स्वामियों और इनके प्रबंधकों को तुरंत ध्यान देना चाहिए ताकि अंधविश्वास को बढ़ावा न मिले।


इस आलेख के लेखक राजकिशोर हैं


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