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उल्लेखनीय प्रसंग की अनदेखी

जागरण मेहमान कोना
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lal krishna advani पूर्णचन्द्र गुप्त पर डाक टिकट जारी करते हुए प्रधानमंत्री की ओर से आपातकाल का जिक्र न करने पर निराशा जता रहे हैं लालकृष्ण आडवाणी


चार दिन पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने देश के अग्रणी हिंदी समाचार पत्र दैनिक जागरण के संस्थापक स्व. पूर्णचन्द्र गुप्त की जन्म शताब्दी के अवसर पर उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया। प्रधानमंत्री ने इस अवसर पर भारतीय लोकतंत्र के विकास के लिए प्रेस की स्वतंत्रता को अनिवार्य बताते हुए मीडिया संगठनों से आपस में मिलकर कोई ऐसा तंत्र विकसित करने की अपील भी की जिससे जनसंचार माध्यमों में निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता को बढ़ावा मिले तथा सनसनी पैदा करने की प्रवृत्तिपर अंकुश लगे। डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा कि मेरी राय में हमारे देश में इस पर व्यापक सहमति है कि मीडिया पर कोई बाहरी नियंत्रण नहीं होना चाहिए। प्रधानमंत्री ने इस अवसर पर पूर्णचन्द्र गुप्त के जीवन वृत्ता पर आधारित एक स्मारक पुस्तिका-प्रेरणापुंज की जन्मशती का भी विमोचन किया। इस पुस्तिका में याद किया गया है कि किस तरह आपातकाल का विरोध करने के कारण पूर्णचन्द्र गुप्त को जेल में डाल दिया गया था। 26 जून 1975 को जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाने की घोषणा की और प्रेस पर सेंसरशिप थोप दी गई तो किसी भी समाचार पत्र को न तो नेताओं की गिरफ्तारी के संदर्भ में समाचार प्रकाशित करने की अनुमति दी गई और न ही यह कि उन्हें कहां हिरासत में रखा गया है।


प्रधानमंत्री ने इस अवसर पर जो पुस्तिका जारी की उसमें मैंने देखा कि 27 जून 1975 के दैनिक जागरण के प्रथम पृष्ठ को फिर से प्रकाशित किया गया है। उस दिन दैनिक जागरण की बैनर हेडलाइन थी-राष्ट्रीय आपात स्थिति घोषित, सभी विपक्षी नेता बंद। पहले पन्ने पर आपातकाल लागू होने के समाचार के साथ आठ प्रमुख विपक्षी नेताओं-चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, लालकृष्ण आडवाणी, पीलू मोदी, राजनारायण और चंद्रशेखर के चित्र भी प्रकाशित किए गए थे। समाचार पत्र का संपादकीय इन शब्दों के साथ खाली छोड़ दिया गया था-नया लोकतंत्र लागू?


जहां तक मुझे याद आ रहा है कि उस समय किसी अन्य समाचार पत्र ने आपातकाल लागू होने के संदर्भ में इस तरह का समाचार प्रकाशित करने की हिम्मत नहीं दिखाई थी। मुझे नहीं पता कि पुस्तिका का विमोचन करते हुए प्रधानमंत्री ने उसकी सामग्री पर निगाह डाली या नहीं अथवा क्या उन्हें किसी ने यह जानकारी दी या नहीं कि जागरण के संपादकों को इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया था, क्योंकि उन्होंने आपातकाल लागू किए जाने का सख्ती से विरोध किया था। यदि उन्हें इस सबके बारे में जानकारी दी गई होती तो वह जागरण संस्थापक के योगदान की सराहना करते हुए इस तथ्य का विशेष रूप से उल्लेख अवश्य कर भारतीय लोकतंत्र की सांकेतिक सेवा करते। ऐसा न करके उन्होंने स्वतंत्र भारत के इतिहास में प्रेस की आजादी पर हुए सबसे भीषण हमले से खुद को अलग करने का सुनहरा अवसर गंवा दिया।


आपातकाल में हुई ज्यादतियों की जांच के लिए मोरारजी देसाई सरकार ने शाह आयोग का गठन किया था। आयोग ने अपनी रपट में यह बताया था कि आपातकाल के दौरान गांधीजी के विचारों के साथ-साथ गीता से भी उद्धरण देने पर पाबंदी लगा दी गई थी। कहीं पर भी इस तरह के उद्धरण देने पर सेंसर की कैंची चला दी जाती थी। शाह आयोग ने आपातकाल के दौरान सूचना एवं प्रसारण मंत्री रहे विद्याचरण शुक्ल से पूछताछ की थी। अपनी अंतरिम रिपोर्ट के पृष्ठ 38 पर शाह आयोग ने लिखा है-वीसी शुक्ला ने कहा कि उद्धरणों पर पाबंदी लगाने के पीछे उद्देश्य यह था कि उनमें से कुछ ब्रिटिश राज से संबंधित थे और उनका संदर्भ से हटकर इस्तेमाल किया जा सकता था, जिससे लोगों में भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती। लिहाजा उनसे बचा जाना चाहिए था।


इतना ही नहीं, समाचार पत्रों को अपने संपादकीय का स्थान भी रिक्त छोड़ने की अनुमति नहीं थी। वीसी शुक्ला के अनुसार अगर संपादकीय का स्थान रिक्त छोड़ा जाता तो इससे विरोध की आवाज बुलंद करने में मदद मिलती और तत्कालीन सरकार की नीति के अनुसार किसी को भी अपना विरोध इस तरह से दर्ज कराने की अनुमति नहीं थी। वीसी शुक्ला ने आगे स्पष्टीकरण दिया कि समाचार पत्र में संपादकीय का स्थान रिक्त रखना आपातकाल का सीधा-सीधा विरोध था। लिहाजा यह गैरकानूनी था और इसलिए सरकार को यह कहने का अधिकार था कि कोई भी समाचार पत्र स्थान रिक्त नहीं छोड़ सकता। राजमोहन गांधी और निखिल चक्रवर्ती, दोनों ने यह महसूस किया कि संपादकों द्वारा स्थान रिक्त छोड़ने पर सरकार की आपत्तिइसलिए थी, क्योंकि वे यह संदेश देना चाहते थे कि देश में प्रेस पर कोई सेंसरशिप लागू नहीं है। शाह आयोग की रपट पढ़ते हुए मैंने यह भी पाया कि उस समय पीटीआइ के बोर्ड आफ डायरेक्टर्स के अध्यक्ष पूर्णचन्द्र गुप्त आयोग के समक्ष प्रस्तुत हुए और उन्होंने आपातकाल के दौरान सरकार द्वारा मीडिया के उत्पीड़न का चौंकाने वाला ब्यौरा दिया। पूर्णचन्द्र गुप्त ने बताया कि किस तरह भारत सरकार द्वारा शुरू की गई समाचार न्यूज एजेंसी से स्वतंत्र रूप से संचालित हो रही एजेंसियों-पीटीआइ और यूएनआइ पर सरकार ने भारी दबाव डाला। यह दबाव कई तरह से डाला गया, जिनमें प्रमुख हैं-पीटीआइ और यूएनआइ की टेलीप्रिंटर लाइनें काट देना, आल इंडिया रेडियो की बकाया राशि का भुगतान न करना, इन समाचार एजेंसियों के बकाए के संदर्भ में मिथ्या प्रचार करना आदि।


शाह आयोग ने तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री वीसी शुक्ला की इस ईमानदार स्वीकारोक्ति को भी दर्ज किया है जिसमें बताया गया है कि किस तरह उनसे दूसरे हथकंडे अपनाने के लिए कहा गया। आयोग ने अपनी रपट में लिखा है-वीसी शुक्ला ने स्वीकार किया है कि कैबिनेट ने 13 दिसंबर 1975 को उन्हें निर्देश दिया कि वह पीटीआइ और यूएनआइ को रास्ते पर लाने के लिए दूसरे तरीके अपनाएं। अपने इन दूसरे तरीकों के सार्थक परिणाम पाने तक उन्हें 24 जनवरी 1976 तक का समय लग गया। तब तक उन तथाकथित दूसरे तरीकों से पीटीआइ और यूएनआइ को सरकारी न्यूज एजेंसी समाचार के साथ विलय करने के लिए मजबूर, प्रेरित और फुसलाया जा चुका था।


इस आलेख के लेखक लालकृष्ण आडवाणी हैं


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