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मनमोहन के वजीरों में बढ़ती दरार

जागरण मेहमान कोना
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Kuldeep Nayarपहली बार सत्तारूढ़ कांग्रेस के घर का झगड़ा सड़क पर अपना दीदार करा रहा है। कैबिनेट में मतभेद कोई नई बात नहीं है। लंबे समय से यह कसमसाहट चलती आ रही है, किंतु ऐसा कभी नहीं हुआ था कि जब एक मंत्री या मंत्रालय दूसरे के मंत्रालय के विरुद्ध हुए आंतरिक आकलन का मसौदा ही लीक कर दे। प्रधानमंत्री को हमेशा यह मालूम रहा है कि उनकी कैबिनेट में कौन दूसरे को काटने का प्रयास कर रहा है। फिर भी उन्होंने मौन धारण किए रखा, क्योंकि मंत्रियों में अनबन ने उनकी स्थिति को मजबूती दी है। जब आप स्वयं ही निर्णय लेने की स्थिति में हो तो आप चीजों को इतने हल्के तरीके से नहीं ले सकते। परिणाम यह हुआ कि लोग उनके क्रियाकलाप के ढंग पर तो संदेह करते हैं, लेकिन यह भी मानते है कि वह व्यक्तिगत रूप से ईमानदार हैं। उनकी कैबिनेट के दो वरिष्ठ सदस्य-वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी और गृहमंत्री पी चिदंबरम चाहे एकता का कितना भी दिखावा क्यों न करें, उनमें एक-दूसरे से दूरी खत्म नहीं हो सकती। चिदंबरम प्रणब की राजनीतिक प्रवीणता से भय खाते हैं तो प्रणब चिदंबरम की तीक्ष्ण प्रतिभा से।। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने दोनों की सुलह सफाई करा दी है। किंतु उनका परामर्श इसलिए कारगर नहीं हो सकता, क्योंकि प्रणब ने चिदंबरम की साख को क्षति पहुंचा दी है। वित्त मंत्रालय की टिप्पणी नोट अथवा आकलन चिदंबरम के वित्त मंत्रालय छोड़ने के बाद तैयार किया गया था। इस नोट में कहा गया है कि वह (चिदंबरम) राजकोष की अनुमानित 1 करोड़ 60 हजार लाख रुपये की क्षति होने से बचा सकते थे यदि उन्होंने इस बात पर जोर दिया होता कि 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन की प्रक्रिया नीलामी से हो। पूर्व दूरसंचार मंत्री ए राजा ने स्पेक्ट्रम को 2008 में 2001 के मूल्य दर पर बेचा। नोट में असंदिग्धता है और कहा गया है कि वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने उसे देखा था।


चिदंबरम अपने सिर पर केंद्रीय जांच ब्यूरो सीबीआइ की जांच की तलवार लटकी होने का आखिर क्या अर्थ लगाएं? सच है कि सीबीआइ एक सरकारी विभाग है किंतु उनके विरुद्ध कार्रवाई की मांग जोर पकड़ती है तो चिदंबरम को प्रचंड ताप झेलना पड़ सकता है। दरअसल दोनों ही मंत्रियों की कलई खुल चुकी है। विडंबना यह है कि वह नोट जिसके कारण हंगामा बरपा हुआ है, वह सूचना के अधिकार संबंधी अधिनियम के तहत एक भाजपा कार्यकर्ता की याचिका पर प्राप्त हुआ है। रोचक यह भी है कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने उस कार्यकर्ता को वह विपुल सामग्री दी जिसमें यह नोट भी शामिल है। सरकार के प्रवक्ता बचाव में कहते हैं कि इस पर एक कनिष्ठ अधिकारी के हस्ताक्षर हैं। क्या इस बात का कोई महत्व है कि उस पर वित्तमंत्री के हस्ताक्षर होते, जबकि यह वित्तमंत्रालय की ओर से भेजा गया है? इस नोट ने जो क्षति पहुंचाई है वह बहुत है। इतनी अधिक कि चिदंबरम ने त्यागपत्र देने की पेशकश कर दी।


हालांकि प्रणब यह कहते हुए घडि़याली आंसू बहा रहे हैं कि चिदंबरम उनके मूल्यवान सहयोगी और सरकार के स्तंभ है। इस मतभेद ने एक ओर भाजपा तो दूसरी ओर कम्युनिस्ट दलों को एक हथियार दे दिया है। इसी तरह मीडिया भी टूट पड़ा है। किंतु इस सबका यह तात्पर्य यह नहीं कि सरकार का पतन निकट है जैसी कि भाजपा द्वारा अफवाह फैलाई जा रही है। सत्य यह है कि सरकारी ढांचे की बाह्य सतह पर खरोंच भर आई है, परंतु किसी भी लिहाज से वह कमजोर नहीं पड़ी है। सवाल लोकसभा में संख्या बल से जुड़ा है जो संसद का निचला सदन है।


भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगियों की संख्या कुल मिलाकर 273 नहीं है जो 545 की लोकसभा में बहुमत प्रदान करती है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन जो सरकार का प्रतिनिधित्व करता है अटूट बना हुआ है। उसकी अपनी संख्या बल 263 है, परंतु 27 सदस्य उसे बाहर से समर्थन दे रहे हैं। इसलिए कुल संख्या 290 हो जाती है। चिंता यह है कि दक्षिण में द्रमुक बिछुड़ सकती है, क्योंकि करुणानिधि की पुत्री कनीमोरी और उनके मंत्री ए. राजा जेल में हैं। पार्टी में तमिलनाडु के स्थानीय निकाय चुनावों में कांग्रेस के साथ भागीदारी नहीं करके अपनी नाराजगी भी जता दी है। किंतु द्रमुक सदस्यों का संख्या बल 18 ही है। उनके साथ छोड़ देने से भी सरकार नहीं गिर सकती। इसी तरह पश्चिम बंगाल से ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस भी अपने बलबूते पर सरकार को नहीं गिरा सकती। लोकसभा में उसके 19 सदस्य हैं। फिर भी मनमोहन सिंह सरकार का रवैया उनके प्रति उदारता का है। ममता बनर्जी बांग्लादेश को तीस्ता नदी से एक खास मात्रा में पानी देने पर सहमत हो गई थीं, जिसे दृष्टिगत रखते हुए प्रधानमंत्री आगे बढ़े थे और उन्होंने बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना के साथ एक करार का प्रारूप तैयार कराया था। परंतु अंतिम समय पर ममता ने अपना विचार बदल दिया और वह प्रधानमंत्री के साथ ढाका भी नही गई।


कांग्रेस ने इसे गंभीरता से नहीं लिया और ऐसे व्यवहार किया, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। इससे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की हंसी हुई और भारत ने खासी सद्भावना गंवाई। मनमोहन सिंह सरकार के लिए समस्या तो तब उपस्थित हो सकती है जब अगले वर्ष के प्रारंभ में उत्तर प्रदेश में चुनाव होंगे। मायावती की बहुजन समाज पार्टी और मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी कांग्रेस के साथ है, जिनकी लोकसभा में संख्या क्रमश: 21 और 22 है। जब विधानसभा चुनाव में उनके विरुद्ध कांग्रेस अपने झंडे गाड़ेगी तो दोनों के लिए एक जटिल स्थिति पैदा होगी, क्योंकि तब उनके समर्थकों में सेंध लगाने को लेकर भी टकराव होगा। यह एक तथ्य है कि इन तीनों ही दलों का चुनावी आधार एक है। मुस्लिम उत्तर प्रदेश में कुल मतदाताओं का पंद्रह प्रतिशत हैं। फिर बसपा और सपा अपने आप में ही कोई खतरा उपस्थित नहीं कर सकते। सरकार की अपदस्थता के लिए उन्हें अन्य कांग्रेस सहयोगियों को भी साथ जुटाना होगा। फिलहाल सरकार की वे आलोचना तो कर सकते हैं, मगर चुनौती जैसी कोई स्थिति नहीं है।


मनमोहन सिंह सरकार के विरुद्ध जो शोरगुल है, उसमें आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं है। उनके नेतृत्व ने एक व्यापक समर्थन खासतौर पर बुद्धिजीवियों में जुटाया है। मनमोहन सिंह अब एक असफल देवता से हैं। उनकी आर्थिक विशेषज्ञता सभी नेत्रों को चौंधियाती है। जबकि बढ़ती महंगाई, लुढ़कता रुपया, रोजगार की तुच्छ सी वृद्धि और गिरती विकास दर ने निश्चय ही सरकार को आघात पहुंचाया है। फिर किकिंग प्वाइंट सरकार के विरुद्ध 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला ही है। इसने उसे लोगों से अलग-थलग ही नहीं किया, बल्कि इस धारणा को भी विस्तारित किया कि पूरी सरकार ही सिर से पांव तक भ्रष्ट है। इसके अलावा प्रणब मुखर्जी और चिदंबरम के बीच सरकार में पड़ी दरार ने भी लोगों की आशंकाओं को और अधिक मजबूत किया है।


लेखक कुलदीप नैयर वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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