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संकल्प नहीं, इच्छाशक्ति चाहिए

जागरण मेहमान कोना
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Pradeep Singhप्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नए साल के संकल्प से ईमानदारी व कुशलता की उम्मीद जगती नहीं देख रहे हैं प्रदीप सिंह


प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने नए साल पर देश के लोगों को भरोसा दिलाया है कि वह व्यक्तिगत रूप से कोशिश करेंगे कि सरकार ज्यादा ईमानदारी और कुशलता से चले। इससे दो बातें साफ हुईं कि देर से ही सही उन्होंने माना कि उनकी सरकार की ईमानदारी पर उठ रहे सवाल बेबुनियाद नहीं हैं। प्रधानमंत्री सरकार के भ्रष्टाचार के मुद्दे पर नकार के भाव से निकले और सच्चाई स्वीकार करने को तैयार हैं, इसे अच्छा संकेत मानना चाहिए। प्रधानमंत्री को यह सच स्वीकार करने में ढाई साल लग गए। पर सवाल है कि क्या सरकार में उनके साथी और उनकी पार्टी उनसे सहमत हैं। उनके विरोधी जानना चाहेंगे कि प्रधानमंत्री ने अभी तक ऐसा क्यों नहीं किया। अपने विरोधियों को वह भले ही जवाब न दें जनता को तो देना ही पड़ेगा।


इसे आप इस तरह भी देख सकते हैं कि प्रधानमंत्री को लगा कि भ्रष्टाचार के मुद्दे को नकारने से बात बिगड़ती जा रही है। क्योंकि इसके साथ ही उन्होंने एक बात और कही कि नई पीढ़ी ने लाइसेंस परमिट राज का भ्रष्टाचार नहीं देखा है। उन्होंने दावा किया कि पिछले बीस सालों में भ्रष्टाचार कम हुआ है। लाइसेंस परमिट राज के भ्रष्टाचार से कोई इनकार नहीं कर सकता। लेकिन भ्रष्टाचार कम हुआ है यह बात प्रधानमंत्री ने किस आधार पर कही है समझना मुश्किल है। करीब बीस साल पहले मनमोहन सिंह ने पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व में आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया शुरू की थी। बीस सालों में भ्रष्टाचार का स्वरूप जरूर बदल गया है। आर्थिक विकास दर के आंकड़े कुछ भी कहते हों पर इस सच्चाई से तो प्रधानमंत्री भी इनकार नहीं कर सकते कि आर्थिक सुधारों का फायदा अमीरों को ही हुआ है। गरीबों की संख्या बढ़ी है। लाइसेंस परमिट राज के चार दशकों में किसानों की आत्महत्या की खबरें नहीं के बराबर थीं। आर्थिक उदारीकरण ने अमीर और गरीब के बीच की खाई और चौड़ा कर दिया है। ऐसा नहीं है कि आर्थिक उदारीकरण के दो दशकों में देश में कुछ अच्छा नहीं हुआ है। पर क्या हम इस बात को नजरअंदाज कर सकते हैं कि आर्थिक उदारीकरण के बाद से हम दुनिया में मानव विकास के सूचकांक पर लगातार नीचे की ओर जा रहे हैं।


ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री की आंखें विराटता देखने की इतनी आदी हो चुकी हैं कि उन्हें भ्रष्टाचार, किसानों की आत्महत्या और आम आदमी की दुश्वारियों जैसी सूक्ष्म चीजें नजर ही नहीं आतीं। ईश्वर के बाद अगर कुछ सर्वव्यापी है तो भ्रष्टाचार। देश में एक नया और अघोषित लाइसेंस परमिट राज चल रहा है। सत्तारूढ़ होना भ्रष्टाचार का लाइसेंस बन गया है। बिना भ्रष्टाचार के सत्ता ब्रह्मचारी के विवाह जैसी अवधारणा बन गई है। राजनीति का मतलब सत्ता और सत्ता का मतलब भ्रष्टाचार। इस देश के राजनीतिक दलों में इस मुद्दे पर आम राय है। इसमें छोटे-बड़े राजनीतिक दल, जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होता। भ्रष्टाचार उन्हें जोड़ता है। कम से कम राजनीति में तो ऐसा ही है। भ्रष्टाचार को राजनीतिक दलों ने राष्ट्रीय धरोहर मान लिया है जिसकी रक्षा करना उनका दायित्व है। इसलिए देश का कोई कानून अगर इसके रास्ते में आता हो तो उसे बदल दिया जाना चाहिए। नया कानून बनाने की मांग उठे तो उसे कुचल दिया जाना चाहिए। अन्ना हजारे सरकार को दुश्मन नजर आते हैं। जब तक इस आंदोलन से सरकार को राजनीतिक नुकसान हो रहा हो विपक्षी दल अन्ना हजारे के साथ हैं। अन्ना हजारे के आंदोलन से सारे राजनीतिक दलों को नुकसान हो रहा हो तो यह संसद की संप्रभुता पर हमला है। आंदोलन से पैदा हुए नेता संसद में खड़े होकर कहते हैं कि कानून संसद में बनेगा सड़क पर नहीं। संसद में जो नेता लोकपाल की अवधारणा के ही खिलाफ बोलता है उसे सबसे ज्यादा तालियां मिलती हैं। इसमें सत्तारूढ़ दल और विपक्ष दोनों शामिल हैं।


लोकपाल विधेयक पर दो दिन की बहस से एक स्वर यह निकला कि लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक को लाना और उसे कानून बनाना संसद की मजबूरी है। ऐसे में प्रधानमंत्री के नए साल के संकल्प के पीछे उनकी निजी साख के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता। मनमोहन सिंह कांग्रेस पार्टी के स्वाभाविक नेता पहले भी नहीं थे। पर पिछले ढाई साल में सरकार और पार्टी में उनका रसूख कम हुआ है इससे शायद वह भी इनकार नहीं कर सकते। कांग्रेस के अंदर नेतृत्व परिवर्तन की कसमसाहट अब बेआवाज नहीं रह गई है। लोकसभा में लोकपाल विधेयक पर चर्चा के दौरान जब यशवंत सिन्हा ने प्रधानमंत्री के भाषण को उनके विदाई भाषण की संज्ञा दी तो सत्तारूढ़ खेमे से प्रतिवाद के स्वर ज्यादा तीखे नहीं थे।


उत्तार प्रदेश के विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री की कोई विशेष भूमिका नहीं होगी। लेकिन इसे विडंबना ही कहेंगे कि उत्तार प्रदेश के चुनाव नतीजे यूपीए, कांग्रेस और राहुल गांधी के ही नहीं मनमोहन सिंह के भी राजनीतिक भविष्य का रास्ता तय करेंगे। उत्तार प्रदेश में कांग्रेस का अच्छा प्रदर्शन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए राजनीतिक वानप्रस्थ का रास्ता खोल सकता है। कांग्रेस उत्तार प्रदेश में चुनावी कामयाबी को अन्ना हजारे और उनके आंदोलन की हार के रूप में भी देखेगी।


प्रधानमंत्री का नए साल का संकल्प सबसे पहले उनकी पार्टी भूल जाएगी। पिछले दो दशकों में भ्रष्टाचार कम हुआ है या बढ़ा है इस विवाद में पड़े बिना मनमोहन सिंह अगर भ्रष्टाचार से लड़ते हुए भी दिखते तो लोगों को उनसे शिकायत नहीं होती। महाभारत काल में हस्तिनापुर से बंधे भीष्म के अपराध को लोगों ने माफ कर दिया। इक्कीसवीं सदी महाभारतकाल नहीं है। भ्रष्टाचार के खिलाफ मनमोहन सिंह की नाकामी एक लड़ाई हार जाना भर नहीं है। यह एक उम्मीद के मर जाने जैसा है। उम्मीद जो एक ईमानदार व्यक्ति से होती है। लोगों को ए. राजा, सुरेश कलमाड़ी या बीएस येद्दयुरप्पा से ऐसी उम्मीद नहीं होती। लोग भ्रष्टाचार या भ्रष्टाचारियों से निराश नहीं होते। उन्हें निराशा होती है जब ईमानदार लोग भ्रष्टाचार के मूक दर्शक बन जाते हैं। उन्हें निराशा होती है जब बेईमान नेताओं की संगत में ईमानदार नेता को बेचैनी नहीं होती।


मनमोहन सिंह के पास अब समय कम है। नए साल के संकल्प के बाद प्रधानमंत्री से कम से कम यह अपेक्षा करनी चाहिए कि वह ईमानदारों से लोगों की उम्मीद को टूटने नहीं देंगे। क्या मनमोहन सिंह में ऐसा करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति है? उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है और पाने के लिए ईमानदार नेताओं में लोगों का भरोसा है।


लेखक प्रदीप सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं


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