Menu
blogid : 5736 postid : 493

एक उम्मीद का टूट जाना

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

Pradeep singhइंग्लैंड में लगातार दो टेस्ट मैच हारने के बाद भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धौनी के बारे में एक सवाल पूछा जा रहा है कि क्या उनका जादू खत्म हो गया है? इससे पहले तक धौनी का जादू ऐसा चलता था कि विपक्षी ध्वस्त हो जाते थे। दो मैचों की हार से अचानक सब कुछ बदल गया है। बहुत से लोगों के मन में यही सवाल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लेकर उठ रहे हैं। बीस साल पहले मनमोहन सिंह पहली बार राजनीति में आए-देश का वित्त मंत्रालय संभालने। भ्रष्ट और नाकारा नेताओं से ऊबे लोगों के लिए वह एक ताजी हवा के झोंके की तरह आए थे। राजनीति में अनाड़ी होना उनकी खूबियों में शुमार था। तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहा राव के समर्थन से देश की अर्थव्यवस्था में उन्होंने आमूलचूल परिवर्तन कर दिया। फिर 2004 में मननोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री बन गए।


1991 से 2009 के दौरान अर्जित उनकी सार्वजनिक जीवन की पूंजी का बहुत तेजी से क्षरण हुआ है। भ्रष्टाचार विरोधी अभियान की आंच अब मनमोहन सिंह की कुर्सी तक पहुंचने लगी है। मनमोहन सिंह की खूबी थी-उनकी ईमानदारी, निष्ठा और वित्तमंत्री के रूप में आर्थिक सुधार के कार्यक्रम। गांधी परिवार के प्रति संदेह से परे वफादारी और पार्टी में अपना कोई गुट न होना, उनकी अन्य खूबियां थीं। इसीलिए वह सोनिया गांधी और वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं को एक साथ स्वीकार्य हो पाए। पिछले सात सालों में उन्होंने इसे ईमानदारी से निभाया। उनके समर्थक इसे उनकी ताकत मानते हैं और विरोधी उनकी कमजोरी। प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह का दूसरा कार्यकाल उनके अवसान का दौर बनता जा रहा है। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के रहते महंगाई और विकास दोनों मोचरें पर सरकार नाकाम रही है। महंगाई के मुद्दे पर तो सरकार ने एक तरह से हाथ खड़े कर दिए हैं।


रिजर्व बैंक के जरिए ब्याज दरें बढ़ाते जाने के अलावा महंगाई पर काबू पाने का उसे कोई उपाय नहीं सूझ रहा। उद्योग जगत कह रहा है कि नीतिगत स्तर पर तो सरकार को जैसे लकवा मार गया है। मंगलवार को वित्त मंत्री के साथ मुलाकात में उद्योग जगत के प्रतिनिधियों ने कहा कि ऐसा लगता है कि सरकार रूपी गाड़ी के दो ड्राइवर हैं। एक का पैर एक्सीलेटर पर है और दूसरे का ब्रेक पर। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर सी रंगराजन की अध्यक्षता वाली प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति ने अर्थव्यवस्था की मौजूदा दशा के लिए नीतियों के स्तर पर निष्कि्रयता को जिम्मेदार माना है। अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां आर्थिक नीतियों के राजनीतिक प्रबंधन पर सवाल खड़े कर रही हैं। ईमानदार व्यक्ति के हाथों में जब नेतृत्व सौंपा जाता है तो उससे केवल व्यक्तिगत ईमानदारी की अपेक्षा नहीं होती। यह तो उसके निर्वाचन या नियुक्ति में अंतर्निहित होती है। उससे अपेक्षा रहती है कि वह दूसरों को भी बेईमानी नहीं करने देगा। अब तक केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील सरकार पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाने वाला हर शख्स पहले एक वाक्य जरूर बोलता था कि वह प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की व्यक्तिगत ईमानदारी या निष्ठा पर सवाल नहीं उठा रहा है। ऐसा नहीं है कि अब लोग मनमोहन सिंह की भ्रष्ट मानने लगे हैं। लेकिन अब उन्हें ईमानदारी का प्रमाणपत्र देने के साथ लोग अपनी बात नहीं शुरू करते।


सवाल उठ रहे हैं कि जब भ्रष्टाचारी मंत्री खजाना लूट रहे थे तो प्रधानमंत्री क्या कर रहे थे? मनमोहन सिंह की इस हालत ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। हमारी आज की राजनीति और नेता लोगों के मन में एक तरह की वितृष्णा पैदा करते हैं। लोगों को लगता है कि राजनीति में नए लोग, विभिन्न क्षेत्रों के प्रोफेशनल, टेक्नोक्रेट, बुद्धिजीवी और नागर समाज में गैर राजनीतिक गतिविधियों में संलग्न लोग राजनीति में आएं तो बदलाव आएगा। मनमोहन सिंह जब प्रधानमंत्री बने थे तो इस सोच के लोग बहुत खुश हुए थे कि शीर्ष से ऐसी शुरुआत तो और भी अच्छी है। नेताओं में पाए जाने वाले ऐब मनमोहन सिंह में नहीं थे। विपक्ष की मुश्किल थी कि मनमोहन सिंह पर होने वाला हर प्रहार उल्टा पड़ता था। कांग्रेस पार्टी और गांधी परिवार के विरोधी भी मनमोहन सिंह के खिलाफ कुछ सुनने को तैयार नहीं थे। 2009 के चुनाव में भाजपा और उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने मनमोहन सिंह पर निशाना साधा और खेत रहे। कांग्रेस, पार्टी और सरकार पर हर हमले से बचने के लिए मनमोहन सिंह को ढाल की तरह पेश करती थी। कांग्रेस और गांधी परिवार की यह ढाल अब विरोधियों के हमलों के सामने निढाल नजर आने लगी है। क्या यह स्थिति घोटालों के उजागर होने से बनी है या कोई और भी बात है। मनमोहन सिंह की सबसे बड़ी ताकत उनका नैतिक बल था। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि अमेरिका के साथ नागरिक परमाणु समझौता उनके लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन गया था। इस समझौते के लिए उन्होंने अपनी सरकार के अस्तित्व को भी दांव पर लगा दिया था। जुलाई 2008 में सरकार बचाने के लिए उन्होंने और उनकी पार्टी ने जो कुछ किया उससे सरकार तो बच गई पर मनमोहन सिंह का एखलाक चला गया। वोट के बदले नोट कांड में अदालत में क्या होता है वह एक अलग मसला है। उसमें मनमोहन सिंह सीधे शामिल थे या नहीं इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता। जिस तरीके से सरकार बची वह किसी से छिपा नहीं है। कांग्रेस की ढाल में वह पहला छेद था। ठीक है कि चुनाव में उसका कोई असर नहीं पड़ा। उसका असर अब दिखना शुरू हो गया है।


प्रधानमंत्री घिरते जा रहे हैं। 2जी, अंतरिक्ष स्पेक्ट्रम और राष्ट्रमंडल खेल भ्रष्टाचार के खुलासे का सिलसिला रुक ही नहीं रहा है। एक ईमानदार प्रधानमंत्री अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार का नेतृत्व कर रहा है। भला ऐसी ईमानदारी किस काम की जो भ्रष्टाचार को फलने-फूलने दे। अब यह मनमोहन सिंह को तय करना है कि वह किस रूप में याद किया जाना पसंद करेंगे। भ्रष्टाचार हो या महंगाई या आर्थिक विकास, किसी भी मोर्चे पर प्रधानमंत्री आगे बढ़कर लड़ते हुए नजर नहीं आ रहे। उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी कब तक उन्हें बचाएगी। मनमोहन सिंह का आम नेताओं की कतार में खड़े हो जाना अच्छे लोगों से एक उम्मीद का टूट जाना है। अच्छे लोगों की यह सबसे बड़ी दिक्कत है कि वे बुरे लोगों के लिए जगह खाली कर देते हैं। क्या मनमोहन सिंह इसी रूप में याद किए जाएंगे?


प्रदीप सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh