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कौन होगा मनमोहन का वारिस

जागरण मेहमान कोना
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Kuldeep Nayarप्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बाद उत्तराधिकारी की तलाश शुरू हो गई है। ऐसा नही है कि मनमोहन सिंह कांग्रेस के लिए अपरिहार्य हैं। ऐसा भी नहीं है कि सोनिया गांधी के साथ मिलकर वह सत्ता सही से नहीं चला पा रहे हैं। यह तो सोनिया के आकलन का मामला है कि वह कब अपने पुत्र राहुल गांधी का अभिषेक करती हैं। हाल के दिनों में मनमोहन सिंह की छवि और वर्चस्व घटा है। यहां तक कि एक अर्थशास्त्री के तौर पर भी उनकी महानता पहले जैसी नहीं रही, परन्तु ये सब तो उनकी स्थिति बिगाड़ने वाले तथ्य है। वास्तविक कारण तो राजीव गांधी हैं जो दुर्भाग्यवश नेहरू-गांधी करिश्मे का पुनरोदय नहीं कर पाए। श्रीमती गांधी के समक्ष एक सवाल यह भी है कि भारत की राष्ट्रपति प्रतिभा सिंह पाटिल अगले वर्ष के मध्य रिटायर हो रही हैं तो क्या मनमोहन सिंह को पदोन्नत किया जाएगा? मनमोहन सिंह 2014 में लगभग अस्सी वर्ष के हो जाएंगे। कांग्रेस के लिए परेशानी यह है कि उसमें प्रधानमंत्री की क्षमता वाले कुछ ही नेता हैं। उस पद के लिए कांग्रेस के जिन नेताओं के नाम किसी के भी मानस पटल पर उभर कर आ सकते हैं वे हैं वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी, रक्षा मंत्री एके एंटनी और गृहमंत्री पी. चिदंबरम। ये तीनों ही किसी न किसी कारण से इस शीर्ष पद आसीन होते नहीं लगते। कम से कम मुखर्जी और चिदंबरम तो सोनिया गांधी को नहीं ही सुहा सकते जबकि इस सिलसिले में उनका मत ही निर्णायक होना है। यदि सोनिया गांधी कभी अपने पुत्र को गद्दी पर आसीन नहीं कराने का निर्णय लेती हैं तो एंटनी उनकी पसंद हो सकते हैं।


एंटनी ईमानदार, विनम्र और कुछ कहने से पहले अपने शब्दों को तोलने वाले इंसान हैं, किंतु वह अभी तक एक अखिल भारतीय नेता का स्तर नहीं पा सके हैं। खासतौर पर हिंदीभाषा-भाषी राज्यों में तो यही स्थिति है। मुखर्जी कांग्रेस के सबसे बेहतरीन संकटमोचक हैं और उन्हें कई जटिल समस्याएं हल करने के लिए सौंपे गए जिन्हें उन्होंने सुलझा दिया। फिर भी वंश के विश्वस्त नहीं माने जाते। वंश का विश्वास उन पर तब जाता रहा था जब उन्होंने श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद खुद को प्रधानमंत्री पद के लिए आगे किया था। जहां तक चिदंबरम का मामला है यह अकल्पनीय है कि सोनिया गांधी मनमोहन सिंह के उत्तराधिकारी के चयन का अवसर आने पर मुखर्जी की उपेक्षा कर चिदंबरम को शीर्ष पद पर बिठाएं। प्रधानमंत्री पद पर साढ़े सात वर्ष तक रहकर मनमोहन सिंह राजनीतिक तौर पर परिपक्व हो चुके हैं और वह पार्टी की जटिलताओं से अवगत हो चुके हैं। सोनिया गांधी उनकी महान शिक्षक रही हैं और उनसे मनमोहन सिंह ने यह सीख लिया कि कब और किसे छेड़ा जाना है। इस बार विदेश जाने से पहले प्रधानमंत्री ने कैबिनेट सचिवालय से इस बारे में स्पष्ट विज्ञप्ति जारी करा दी कि सरकार में नंबर दो कोई नहीं है और देश से बाहर रहने पर भी मनमोहन सिंह का ही नियंत्रण रहेगा। मगर उनकी अनुपस्थिति में गृहमंत्री अथवा वित्तमंत्री कैबिनेट की राजनीतिक मामलों संबंधी बैठक की अध्यक्षता कर सकते हैं। स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री के मानस में उनकी कलह की बात थी इसीलिए उन्होंने दोनों में से किसी को भी नंबर दो नामांकित नहीं किया। मगर यह भी कहा गया कि मुखर्जी जब कैबिनेट कमेटी की बैठक होगी तो उसकी अध्यक्षता करेंगे और यदि मुखर्जी उपलब्ध नहीं हों तो चिदंबरम को अवसर मिलेगा। यह व्यवस्था जानबूझकर की गई कि ताकि दोनों के व्यवहार में सदाशयता बनी रहे। इससे यह भी साफ है कि विज्ञप्ति में एंटनी की उपेक्षा क्यों की गई है? मेरी सोच तो यह है कि मुखर्जी और चिदंबरम की उपेक्षा कर एंटनी को डार्क होर्स के तौर पर आगे लाया जा सकता है। किंतु यह इस पर निर्भर है कि क्या राहुल गांधी अभी भी हलचल मचा सकते हैं।


उत्तर प्रदेश उनके लिए वाटर लू साबित हो सकता है। यदि राज्य में अगले वर्ष के आरंभ में होने वाले राज्य विधानसभा चुनावों के परिणाम कांग्रेस के लिए अनुकूल सिद्ध नहीं होते और वह दूसरे स्थान पर रहती है तो सोनिया गांधी उन्हें शायद ही प्रधानमंत्री के लिए नामजद करने की सोचें। इसके अलावा कृषि मंत्री शरद पवार यदि कांग्रेस में होते तो आगे आ सकते थे। उन्होंने एक विदेशी सोनिया गांधी के पार्टी अध्यक्ष पद पर आसीन होने का ही विरोध किया था। सोनिया गांधी यह कैसे सहन कर सकती हैं? उनकी हताशा की अभिव्यक्ति उनकी इस टिप्पणी से मिली कि देश में जो स्थिति विद्यमान है वह दुर्बल सरकार के कारण है। हालांकि इसका प्रतिनिधित्व वह भी करते हैं। पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के पास इतनी ताकत नहीं कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनाए जाते हैं तो वह बगावत कर सकें। कई वर्ष पूर्व ऐसी ही स्थिति कांग्रेस के समक्ष तब आई थी जब अपने निधन से कुछ माह पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल बीमार पड़े थे और उनके उत्तराधिकारी के चयन का प्रसंग आया था, लेकिन उस समय चुनौतियां भिन्न थीं। उस समय नेताओं का कोई अभाव नहीं था।


लालबहादुर शास्त्री, मोरारजी देसाई, जगजीवन राम और नेहरूजी की पुत्री इंदिरा गांधी लोकप्रिय थे। इनमें से कोई भी नेहरू का उत्तराधिकारी होने के योग्य था। वास्तविक चुनौती के तौर पर जिस मामले को पश्चिमी मीडिया ने उछाला था वह यह कि क्या नेहरू के बाद देश में लोकतांत्रिक प्रणाली बनी रह सकेगी? ब्रिटेन और अमेरिकी पत्रकारों ने कहा था कि नेहरू के अंतिम श्वास लेने के बाद लोकतंत्र खत्म हो जाएगा। एक अमेरिकी पत्रकार वेल्स हैंगन ने एक पुस्तक लिखी, आफ्टर नेहरू हूं और दावेदारों में दो सैन्य अधिकारियों जनरल केएस थिम्मैया जो एक लोकप्रिय कमांडर थे और जनरल बीएम कौल का नामोल्लेख किया था जो वंश के निकट थे। इससे संकेत मिला कि नेहरू के बाद देश पर सेना का आधिपत्य हो सकता है। पश्चिम ने नहीं समझा और न ही अब भी कि भारत की विविधता लोकतंत्र के कायम रहने का पक्षधर है। भारत लोकतांत्रिक है, इसलिए नहीं कि वह चीन से प्रतिद्वंद्विता कर रहा है जो साम्यवादी है। बल्कि इसलिए, क्योंकि यह एक मात्र प्रणाली है जो भारत की अपनी प्रतिभा और स्वभाव के अनुरूप है। भारत के समक्ष जो समस्या उपस्थित है वह है समाज का अनमनापन। चुनावों में ने संकीर्ण जातीय अथवा उपजातीय भावों का उद्दीपन किया है। धर्म ने भी कुछ भूमिका निभानी शुरू की है। मनमोहन सिंह ने इन प्रवृत्तियों के विरुद्ध जो कुछ किया है वह पर्याप्त नहीं है। यदि वह राजनीतिक तौर पर लोकप्रिय होते तो इनका प्रतिरोध कर सकते थे। शाश्वत प्रश्न जिसे उठाने की आवश्यकता है वह है मनमोहन सिंह के बाद कौन? उनकी लोक अपव्यय वाली नीतियों का गहन प्रभाव 80 प्रतिशत लोगों के लिए विपरीत पड़ा है। इसलिए वे इस बहस में बहुत नहीं उलझते कि मनमोहन सिंह के बाद कौन, क्योंकि उनके लिए समस्या तो रोटी और आजीविका है।


लेखक कुलदीप नैयर वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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