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भारत फिर गलती कर बैठा। एक ओर उसने दिल्ली उच्च न्यायालय पर हुए बम विस्फोट को लेकर आक्रोश व्यक्त किया और दूसरी ओर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और बांग्लादेश की प्रधानमंत्री के बीच करार पर नाखुशी जाहिर की। दोनों ही मामले उस असहाय अवस्था को दर्शाते हैं जो केंद्रीय सरकार का स्थायी भाव बन गया है। आतंकी हमले के मामले में यह उन सभी की असफलता है जिन पर राष्ट्र की सुरक्षा की जिम्मेदारी है। ढाका में भारत तीस्ता नदी के पानी के बंटवारे पर कोई व्यवस्था नहीं कर पाया, क्योंकि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी नई दिल्ली को वचन देने के बाद पानी की एक सुनिश्चित मात्रा छोड़ने की इच्छुक नहीं थीं। दोनों ही संकेत लड़खड़ाती मनमोहन सिंह सरकार के लिए अशुभ हैं। आतंकियों ने सरकार को एक बार फिर ललकारा है, जो बम धमाकों के सूत्रधारों का अब तक सुराग नहीं लगा पाई। हालांकि दिल्ली हाईकोर्ट बम विस्फोट की जिम्मेदारी हरकत-उल-अंसार ने कबूली है, जो हुजी से पृथक हुआ है, जबकि सरकारी सूत्रों ने अनधिकृत तौर पर कहा कि संदेह की सुई हुजी की ओर जाती है, जो पाकिस्तान और बांग्लादेश से सक्रिय है। उन प्रयासों का कोई खास जिक्र नहीं हुआ जो बांग्लादेश ने आतंकवाद को कुचलने के लिए किए हैं। हालांकि मनमोहन सिंह ने शेख हसीना द्वारा किए गए सहयोग को स्वीकार किया है। भयावह बम धमाके की गूंज में भारत और बांग्लादेश के बीच सीमांकन को लेकर उभरा हर्ष का स्वर दब गया। नई दिल्ली ने दोनों देशों के बीच उन बस्तियों के विनिमय का भी उल्लेख नहीं किया, जिनका मामला दिसंबर 1971 में ढाका की मुक्ति के समय से ही निलंबित था।
बांग्लादेश के लोग हताश हैं, क्योंकि उन्होंने अपनी सारी उम्मीदें तीस्ता के पानी पर केंद्रित कर रखी थीं। फिर भी क्षेत्रीय लेन-देन कोई सामान्य उपलब्धि नहीं है। असम में हंगामा है और भारतीय जनता पार्टी लाल-पीली है, क्योंकि वह खुद को ‘भारत माता’ का एकमात्र रक्षक मानती है। उसे यह महसूस नहीं होता कि सांप्रदायिक शांति के सवाल को राजनीति के आंगन से हटाकर मानवता की भूमि पर लाना होगा। जहां तक तीस्ता के पानी का प्रश्न है, बांग्लादेश की पुरानी पीढ़ी को याद होगा कि फरक्का बांध से और अधिक पानी देने के लिए पश्चिम बंगाल को मनाने में कितना समय लगा था। निचले तटीय क्षेत्र के बांग्लादेश को तीस्ता से पानी लेने का पूरा हक है। विचारणीय मुद्दा यह है कि कितना पानी? फरक्का बांध करार के समय पश्चिम बंगाल का सूत्र एक परिपक्व, मजबूत मुख्यमंत्री ज्योति बसु के पास था। उन्हें केंद्र को मनाने में समय लगा। पश्चिमी बंगाल की सहमति के बिना केंद्र आगे नहीं बढ़ सकता था, क्योंकि पानी राज्य का विषय है। अतएव मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को मनाने के प्रयास करने होंगे, जो चंचल चित्त और सतर्क हैं।
मनमोहन सिंह के अनुसार ममता बनर्जी अंतिम क्षण तक समझौते के लिए पूरी तरह तैयार थीं, परंतु फिर अचानक उनकी सोच बदल गई। उन्हें भय है कि कम्युनिस्ट उन पर झपट पड़ने के लिए अवसर की तलाश में हैं। सच है कि तीस्ता पानी देने के प्रसंग में अंतिम शब्द पश्चिम बंगाल का ही होगा और वह भी अपर्याप्त पानी वाले महीनों में, किंतु समझौते के तौर पर जो आंकड़े तैयार किए गए थे वे उचित ही थे और तीस्ता का ज्यादातर पानी राज्य के हिस्से में ही छोड़ा गया था। भावुक बांग्लादेश ने स्थिति को और जटिल बना दिया, क्योंकि उसने इस मुद्दे को इस हद तक गर्मा दिया कि पानी में कमी करना भारत द्वारा बांग्लादेश को धोखा देने जैसा समझा गया। लोकतंत्र में जनता के अभिमत का अपना महत्व है। मतभेदों को घटाने या कम करने के लिए धैर्य और साहस की जरूरत पड़ती है। इसमें समय लगता है। करार तो होना ही है। तीस्ता पर संधि भी उसी तरह होगी-जैसे फरक्का बांध पर हुई थी, किंतु भारत को बुरा-भला कहने से कोई मकसद सिद्ध नहीं होगा। भारत ने ट्रांजिट संधि रोकने को लेकर कोई आक्रोशित प्रतिक्रिया नहीं दी, जिससे दोनों देश आश्वस्त हो सकते हैं। दोष खोजते हुए ढाका को अधिक सतर्कता बरतनी चाहिए। बम विस्फोट ने भारत की प्राथमिकताओं को बदल दिया है। उसका ध्यान इस बात पर केंद्रित है कि किस तरह से ऐसी व्यवस्था हो जिससे आतंकवाद से निपटा जा सके। बांग्लादेश द्वारा ‘इनपुट’ सहायक सिद्ध होंगे। इस महत्वपूर्ण अवसर पर बांग्लादेश को हिरासत में लिए गए उल्फा नेता को सौंप देना चाहिए था।
हर बार जब विस्फोट होता है तो सरकार कहती है कि कुछ अधिकारी बलि चढ़ेंगे, किंतु अभी तक मैंने ऐसा कुछ भी होते नहीं देखा। उन अधिकारियों की कोई जवाबदेही सामने नहीं आई जिनके अधीन सुरक्षा प्रणाली थी। छह प्रमुख विस्फोटों का कोई सुराग नहीं लगा। सरकार बार-बार असफल रही है तो वह अमेरिका से सहायता क्यों नहीं लेती, जिसने अनेक बार ऐसी पेशकश की है? वाशिंगटन को यह श्रेय जाता है कि उसने 9/11 के बाद से अब तक एक भी वारदात नहीं होने दी। जो बात मुझे चकरा देती है वह है राजनीतिक दलों का रवैया। कांग्रेस-नीत सरकार को परेशानी में फंसा देखकर भाजपा आनंदित होती है, जबकि यह समय एकजुट होने का है। वस्तुत:, हम सभ्यताओं के बीच टकराव को कट्टरपंथियों और उदारवादियों के बीच युद्ध में बदल सकते हैं। दिक्कत यह है कि भारत में ऐसा कोई नेता नहीं है, जिसके पास सूक्ष्म दृष्टि हो। राजनेता तो राष्ट्रहित को ताक पर रखकर तुच्छ मतभेदों में उलझे रहते हैं। चुनौती राज्य तंत्र के समक्ष है। छोटे-छोटे मामलों में उलझे रहने का कोई समय नहीं है। इससे तो राष्ट्र और अधिक विभाजित होगा। जो पदार्थ देश को जोड़ता है वह सूख रहा है।
लेखक कुलदीप नैयर प्रख्यात स्तंभकार हैं
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