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संयुक्त राष्ट्र में भारत की दावेदारी

जागरण मेहमान कोना
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Rahees Singhबदल रही विश्व व्यवस्था में संयुक्त राष्ट्र के पुनर्गठन की आवश्यकता तो लंबे समय से महसूस की जा रही है, लेकिन अभी तक इसकी संभावनाएं बनती नजर नहीं आतीं। संयुक्त राष्ट्र के पुनर्गठन से भारत, जर्मनी, जापान, ब्राजील जैसे देशों की महत्वाकांक्षाएं भी जुड़ी हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि अभी इन्हें लंबी प्रतीक्षा करनी होगी। भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 24 सितंबर को संयुक्त राष्ट्र महासभा के अधिवेशन में भारत की इसी महत्वाकांक्षा को पेश किया। उन्होंने कहा कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जल्द सुधार एवं विस्तार होना चाहिए। उनका कहना था कि अगर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को मौजूदा वास्तविकता दर्शानी है तो उसमें सुधार और विस्तार अहम हैं। प्रधानमंत्री का कहना सही है, लेकिन इसके बावजूद क्या इसकी आशा की जा सकती है? आज यह बड़ा सवाल है कि अमेरिका-यूरोप सहित विकसित दुनिया को आर्थिक झंझावतों से निकलने के लिए यदि इन देशों का साथ चाहिए तो फिर सुरक्षा परिषद में भागीदारी क्यों नहीं? लेकिन क्या भागीदार सिर्फ आवेदनों से मिल जाएगी? क्या दुनिया के पांच देश अपनी चौधराहट में किसी अन्य को साझीदार बनाना चाहेंगे? क्या भारत जैसे देश के बाजार को साझा करने के लिए उनमें जितनी दिलचस्पी है, उतनी ही भारत के साथ सामरिक साझेदार बनने की भी है? सभी प्रश्नों का एक ही उत्तर है और वह भी नकारात्मक। लेकिन क्या भारतीय राजनय इसे स्वीकार करने में समर्थ है? यदि ऐसा है तो फिर उसे इस बात पर गौर करना होगा कि सुरक्षा परिषद में स्थायी स्थान केवल भाषणों और आवेदन से मिलने वाला नहीं है।


इसके लिए तो अकेले या फिर जी-4 जैसे समूह के साथ मिलकर कूटनीतिक-आर्थिक सौदेबाजी की शक्ति का प्रदर्शन करना होगा। लेकिन क्या भारत ऐसा कर पाएगा? भारत को लंबे अरसे के बाद जब सुरक्षा परिषद की अस्थायी सीट प्राप्त हुई तो हमारे राष्ट्रवाद ने काफी जोर मारा और हमने बहुत सारे सपने गढ़ डाले, जो वास्तविकता से बहुत दूर थे। हम उभरती हुई आर्थिक शक्ति और भविष्य में वैश्विक नेतृत्व करने वाली अर्थव्यवस्था होने का दंभ पिछले कुछ समय से भर रहे हैं, लेकिन सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट के लिए हमारा प्रयास आवेदन-निवेदन तक ही सीमित रहता है, जिसका परिणाम यह होता है कि हमारे बाजार की ओर आकर्षित होने वाला हर बड़ा व्यापारी हमें सुरक्षा परिषद के लिए सबसे प्रबल दावेदार होने का तमगा दे जाता है या फिर हमारी दावेदारी का रवायती समर्थन कर जाता है, लेकिन इन औपचारिक समर्थनों का अभी तक कोई परिणाम नहीं निकला।


अमेरिका भारत का रणनीतिक साझीदार बनने की दावेदारी करने के साथ-साथ भारत के प्रति अपना जितना सकारात्मक रवैया प्रकट करता है, उसके अनुरूप भारत को प्राप्त कुछ नहीं हो पा रहा है। यह शायद भारत के राजनय की विफलता है, लेकिन चीन का रवैया भारत के केवल बाजार तक ही सकारात्मक है, शेष सभी जगह नकारात्मक। चीन ज्यादातर यह व्यक्त करने की कोशिश करता है कि इस गेम में अकेला भारत नहीं है, बल्कि और भी विकासशील देश हैं। हां, फ्रांस और रूस भारत के साथ जरूर हैं। सामान्य तौर पर अमेरिका संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जिन मानदंडों की वकालत करता है, भारत उन मानदंडों को पूरा करने में समर्थ है। अमेरिका आर्थिक आकार, जनसंख्या, सैनिक शक्ति, लोकतंत्र और मानव अधिकारों के प्रति निष्ठा, संयुक्त राष्ट्र को वित्तीय योगदान, संयुक्त राष्ट्र के शांति मिशनों में योगदान, आतंकवाद से निपटने और परमाणु अप्रसार जैसे कारकों पर आधारित मानदंडों का विकास करते हुए परिषद के समग्र भौगोलिक संतुलन को ध्यान में रखने का दावा करता है। इन मानदंडों पर जितना भारत खरा उतर रहा है, उतना ही दक्षिण अफ्रीका, जापान, जर्मनी और ब्राजील भी खरे उतर रहे हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सुरक्षा परिषद में कम से कम पांच सदस्य बढ़ाए जाने चाहिए, लेकिन बात यहीं पर पूरी नहीं होती दिखाई देती, कुछ और अड़ेंगे इस मार्ग में हैं।


शीतयुद्ध के बाद से ही परिषद की कार्यप्रणाली पर विचार-विमर्श के लिए भारत, जर्मनी, जापान और ब्राजील (जी-4) की मांग के मद्देनजर जनवरी 1992 में पहली बार संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में एक सम्मेलन बुलाया गया। इसके बाद बुतरस घाली ने ऐन एजेंडा फॉर पीस तैयार किया, जिसमें सुरक्षा परिषद की कार्यप्रणाली में सुधार के लिए सुझाव दिए गए थे, लेकिन अमेरिका के साथ उनके संबंधों में आए तनाव के कारण ये सुधार धरे के धरे रहे गए। पुन: 1997 में ब्रिटेन, फ्रांस और रूस ने सुरक्षा परिषद की संरचना और कार्यप्रणाली में सुधार की आवश्यकता पर सहमति व्यक्त की। इसका परिणाम यह हुआ एक और मंच तैयार किया गया, जिसने ऐन एजेंडा फॉर फरदर रिफॉ‌र्म्स में सुरक्षा परिषद के समग्र सुधार का भी समर्थन किया। इसी बीच मार्च 2005 में इन लार्जर फ्रीडम नाम की एक रिपोर्ट में परिषद की सदस्य संख्या 24 तक करने की मांग कर दी गई। इसमें समाधान के लिए दो विकल्प थे- एक, तीन नए अस्थायी सदस्यों के साथ-साथ छह नए स्थायी सदस्य शामिल किए जाएं। दो, सदस्यों की एक नई श्रेणी बनाई जाए, जिसमें एक अस्थायी सदस्य होगा और आठ नए सदस्य शामिल किए जाएंगे, जिनका कार्यकाल चार वर्ष होगा और उनका फिर से नवीनीकरण किया जाएगा। हालांकि इससे पहले ही जी-4 ने भी योजना प्रस्तुत की थी, जिसके अनुसार पांच नए स्थायी सदस्यों के अतिरिक्त अफ्रीकी महाद्वीप से एक अन्य सदस्य सहित जी-4 को तथा चार अन्य अस्थायी सदस्यों को शामिल किए जाने का प्रस्ताव किया था, लेकिन दुनिया के कुछ अन्य देशों ने इसमें अड़ंगा डाल दिया। दुनिया के अनेक भागों में विभिन्न पड़ोसी देशों के बीच राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के कारण पांच अन्य देशों- अर्जेटीना, इटली, कनाडा, कोलंबिया और पाकिस्तान ने जी-4 के प्रयासों को असफल करने के लिए जुलाई 2005 में यूनाइटेड फॉर कन्सेंसस (यूएफसी अथवा कॉफी क्लब) का गठन कर लिया। यह मंच मौजूदा पांच देशों की स्थायी सदस्यता को सुरक्षित रखने का पक्षधर है।


यह सुरक्षा परिषद में सुधार की बात तो करता है, लेकिन यह इसमें आंशिक रूप से स्थायी या अस्थायी प्रकृति के पांच अन्य सदस्यों को शामिल करने का पक्षधर है। विशेष बात तो यह है कि इन यूनाइटेड फॉर कन्सेंसस ने ओबामा द्वारा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता के समर्थन का विरोध किया है। कुल मिलाकर संयुक्त राष्ट्र संघ की उम्र और उसकी सदस्य संख्या के विस्तार के साथ उसमें सुधार की आवश्यकता है। 24 अक्टूबर 1945 को जब संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना हुई, उस समय इसकी सदस्य संख्या 50 थी और सुरक्षा परिषद में 11 सदस्य थे यानी कुल संख्या का 22 प्रतिशत। 1960 के दशक में संयुक्त राष्ट्र की सदस्य संख्या तेजी से बढ़ी और 113 पर पहुंच गई। इसलिए सुरक्षा परिषद के विस्तार की मांग भी तेज हुई। परिणाम यह हुआ कि 1963 में सुरक्षा परिषद की सदस्य संख्या बढ़ाकर 15 कर दी गई यानी सुरक्षा परिषद में कुल सदस्य संख्या का प्रतिशत 13.27 रह गया, जबकि वीटो धारकों का प्रतिशत मात्र 4.42 रह गया।


आज इस संस्था के 192 सदस्य हैं, जबकि सुरक्षा परिषद की सदस्य संख्या वही 15 ही है। आज जब दुनिया को और अधिक उदार व लोकतांत्रिक बनाने की बात कही जा रही है, तब सुरक्षा परिषद को अनुदार बनाए रखने की आखिर वजह क्या है? सुरक्षा परिषद दुनिया के पुलिसमैन की भूमिका में है, शायद इसलिए। यह निरंकुशता विश्व शांति के अनुकूल नहीं है। वैश्विक आर्थिक मंदी से उबरने के लिए लिए तो महाशक्तियों ने झट से भारत जैसे देशों की बांह पकड़ना कबूल कर लिया, लेकिन यही तरीका वे सुरक्षा परिषद में नहीं अपनाना चाहते हैं, क्योंकि वहां उन्हें अपनी चौधराहट में बट्टा लगता नजर आ रहा है। जो भी हो, स्थितियां संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार और विस्तार की अपेक्षा रखती हैं और भारत सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की प्रबल दावेदारी रखता है। यही नहीं, भारत को यदि स्थायी सीट मिलती है तो वैश्विक मुद्दों से निपटने में परिषद की विश्वसनीयता और प्रभाव में वृद्धि होगी, जो वैश्विक संतुलन के हित में भी होगा। लेकिन इसके बावजूद भी सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट अभी भारत के लिए दूर की कौड़ी ही है।


लेखक रहीस सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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