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शिक्षा के अधिकार कानून के तहत निजी स्कूलों में गरीब तबके के 25 फीसदी बच्चों के दाखिले की अनिवार्यता के बाद सरकार भले अपनी पीठ ठोंके, यह सामाजिक विभेद की खाई की ओर चौड़ा करने का काम करेगा। सामाजिक समानता लाने का साम्यवादी सिद्धांत आज तक किसी देश में सफल नहींहुआ। फिर चाहे वह फैसला लोकतांत्रिक तरीके से किया गया हो या तानाशाहों द्वारा। दो साल पहले अस्तित्व में आए आरटीई यानी शिक्षा के अधिकार कानून का मकसद था, छह से 14 साल तक हर बच्चे को स्कूल तक पहुंचाना। प्राथमिक शिक्षा को गुणवत्तापूर्ण और सस्ता व सर्वसुलभ बनाना। लेकिन क्या सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले से यह लक्ष्य हासिल होगा? अगर से व्यावहारिकता की कसौटी पर कसें तो निश्चित तौर पर सरकार की ताजा कवायद लोकलुभावन ही है। बेहतर होता कि निजी स्कूलों पर 25 फीसदी दाखिले का बोझ लादने के बजाय सरकार प्राथमिक स्कूलों और सहायता प्राप्त स्कूलों की गुणवत्ता सुधारने के लिए उनसे मदद लेती। कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी के तहत निजी स्कूलों से सामाजिक दायित्व के तहत धन हासिल किया जाता। अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय शाखाओं वाले स्कूल प्रबंधनों से कुछ स्कूलों का वित्तीय भार उठाने की पहल की जाती।
जनप्रतिनिधियों की निधि का एक हिस्सा प्राथमिक शिक्षा की सूरत और सीरत ठीक करने में खर्च किया जाता। निश्चित तौर पर सरकार ने नागरिकों के व्यवसाय करने के मूलभूत अधिकार पर चोट की है। सरकारी कवायद ने योग्य और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के जरिये प्रतिभावान छात्रों को सामने लाने वाले संस्थानों की प्रगति को ही थाम लिया है। दौड़ में आगे भाग रहे प्रतिभागी को गिरा देना प्रगति नहींहै। सबको स्कूल पहुंचाने और आधुनिक शिक्षा दिलाने में नाकाम नौकरशाही ने सामाजिक न्याय के नाम पर बड़ी ही चालाकी से अपना बोझ गैरसरकारी संस्थानों पर थोप दिया यानी लापरवाह मौज करें और जिम्मेदार दूसरों का काम भी करें। इसमें कोई शक नहींकि शिक्षा आज एक व्यावसायिक उत्पाद बन चुकी है और सरकार उसे सामाजिक दायित्व की तरह निजी क्षेत्र पर लाद नहींसकती, यह हकीकत है। क्या सरकार के पास इस बात का कोई जवाब है कि शिक्षकों के भारी-भरकम वेतन के बावजूद सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का माहौल क्यों नहींहै। पढ़ाई और परिणामों को लेकर शिक्षकों की जवाबदेही क्यों नहींहै। शिक्षकों को जनगणना, लोकसभा-विधानसभा, निकाय चुनाव जैसे शिक्षणेत्तर कार्यो में लगाकर वह प्राथमिक शिक्षा को कहां ले जा रही है।
प्राथमिक स्कूलों के तमाम सर्वे बताते हैं कि इन स्कूलों में पढ़ाई के नाम पर बच्चों से छलावा हो रहा है। कक्षा तीन के बच्चे को गिनती नहींआती, आखिर यह किसकी जिम्मेदारी है। सर्वशिक्षा अभियान पर हजारों करोड़ फूंककर सरकार ने क्या हासिल किया? बच्चों के ड्रॉपआउट की तादाद बढ़ती जा रही है। जो पढ़ भी रहे हैं, वे अधकचरी शिक्षा लेकर क्या हासिल करेंगे। उनमें कुंठा ही बढ़ेगी। अगर मान लिया कि उत्तम श्रेणी के मुट्ठी भर निजी स्कूलों में 25 फीसदी गरीब बच्चों का दाखिला हो भी जाए तो क्या गांव-कस्बों में प्राथमिक शिक्षा की हालत सुधर जाएगी? अगर सरकार गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने में नाकाम है तो उसे स्कूलों के प्रबंधन, प्रशासन और संचालन की जिम्मेदारी क्यों संभालनी चाहिए। क्यों न सरकार सिर्फ वित्तीय मदद देने और नियामक का काम करे। बेहतर होगा कि गांव-कस्बों या शहरों में भी स्कूल स्थापित करने के लिए सरकार निजी क्षेत्र को आमंत्रित करे। उन्हें सस्ती दरों पर जमीन और मूलभूत ढांचा खड़ा करने के लिए अन्य सुविधाएं मुहैया कराए। यहां गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की सभी जरूरतें मुहैया हों। जहां अच्छी किताबें, योग्य शिक्षक भी मिलेंगे और जिनकी जवाबदेही भी होगी।
इन आदर्श स्कूलों में सरकारी फीस भी नियामक के जरिये तय की जा सकती है। यहां सिर्फ गरीब तबके के बच्चों का ही दाखिला हो। जिनकी फीस का एक हिस्सा प्रतिपूर्ति के तौर पर सरकार वहन कर सकती है। सिर्फ पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के आधार पर ही गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को सर्वसुलभ बनाकर स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धी माहौल तैयार किया जा सकता है। निजी स्कूलों को यह मामला निश्चित तौर पर बड़ी संविधानपीठ के समक्ष पुनर्विचार के लिए ले जाना चाहिए। दो अन्य न्यायाधीशों के फैसले से अलग राय देने वाले जस्टिस राधाकृष्णन ने साफ तौर पर कहा कि मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के संवैधानिक दायित्व को सरकार गैर सहायता प्राप्त स्कूलों पर नहींडाल सकती। चाहे वे अल्पसंख्यक संस्थान हों या गैरअल्पसंख्यक।
लेखक अमरीश कुमार त्रिवेदी हैं
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