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विवाह कानून में अहम सुधार

जागरण मेहमान कोना
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Harivansh Dixitकेंद्र सरकार ने विवाह कानूनों में सुधार को हरी झंडी दे दी है। संसद से मंजूरी मिल जाने पर अब पटरी पर वापस न आ सकने वाले वैवाहिक संबंधों को अलविदा कहना आसान हो जाएगा, अलग होने वाली पत्नी को पति की संपत्ति से हिस्सा मिल सकेगा, तलाक के समय बच्चों और पत्नी की आर्थिक सुरक्षा का ध्यान रखा जाएगा और गोद लिए गए बच्चे को खुद की संतानों जैसे हक हासिल होंगे। वैवाहिक संबंधों को जन्म-जन्मांतर का बंधन मानने वालों की संख्या में लगातार कमी आ रही है और ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो इसे रजामंदी पर आधारित संबंध मानते हैं। इसलिए जब उन्हें लगता है कि अब उनके लिए एक साथ रहना असंभव हो गया है तो खूबसूरती से अलग हो जाना चाहते हैं। इसे कानूनी शक्ल देने की पहले कोशिशें की जा चुकी हैं। विधि आयोग ने सन 1978 में अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया था कि ऐसे हालात में पति-पत्नी को विवाह विच्छेद का अधिकार मिलना चाहिए। 27 फरवरी, 1981 को लोकसभा में विधेयक पेश किया गया, लेकिन इसके पारित होने से पहले ही सातवीं लोकसभा भंग हो गई। इसके बाद सन 1985 में जॉर्डन बनाम चोपड़ा के मामले में और फिर 2006 में नवीन कोहली बनाम नीलू कोहली के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया कि ऐसे हालात में पारस्परिक सहमति के आधार पर पति-पत्नी को विवाह विच्छेद का अधिकार मिलना चाहिए किंतु उसे कानूनी जामा नहीं पहनाया जा सका।


संपत्ति पर अधिकार


प्रस्तावित संशोधन के माध्यम से हिंदू विवाह अधिनियम में धारा-13सी जोड़कर तथा विशेष विवाह कानून में संशोधन करके यह व्यवस्था की गई है कि कोई भी व्यक्ति इस आधार पर तलाक की अर्जी दे सकेगा कि अब पति-पत्नी के बीच सामंजस्य की कोई संभावना नहीं है। चूंकि हमारे देश में अधिकांश महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं हैं इसलिए उन्हें पति की तुलना में अधिक अधिकार दिए गए हैं। विवाह विच्छेद के लिए इस तरह का कोई मुकदमा यदि पत्नी की तरफ से लाया जाता है तो पति को इसके विरोध का सीमित अधिकार है, किंतु यदि पति तलाक लेना चाहता तो पत्नी की ओर से यह दलील दी जा सकती है कि विवाह-विच्छेद के कारण वह गंभीर आर्थिक कठिनाई में पड़ जाएगी। इसके अलावा इसमें यह व्यवस्था की गई है कि विवाह विच्छेद का आदेश देते समय यह ध्यान रखा जाएगा कि पत्नी के आर्थिक हित सुरक्षित रहें। हमारी अदालतों में विवाह विच्छेद के करीब दो लाख मामले चल रहे हैं। परिवार अदालतों में लंबित कुल मुकदमों के करीब 80 फीसदी मामलों का संबंध विवाह विच्छेद से जुड़ा है। हमारे देश में कामकाजी महिलाओं की संख्या अभी भी बहुत कम है।


आर्थिक रूप से वे आज भी पति के ऊपर निर्भर हैं। 95 फीसदी महिलाओं के पास अपने भरण-पोषण का कोई स्वतंत्र जरिया नहीं है। परिणामस्वरूप तलाक के बाद जब वे अलग होती हैं तो अपने मायके और समाज के रहमोकरम पर निर्भर होना पड़ता है। एक तो भरण-पोषण के लिए दी जाने वाली राशि इतनी कम होती है कि उससे कोई व्यक्ति गुजारा नहीं कर सकता और दूसरे यह कि उसे हासिल करना इतना कठिन होता है कि करीब 90 फीसदी मामलों में उसकी आधी-अधूरी वसूली ही हो पाती है। ऐसे में लंबे समय से यह मांग की जा रही थी कि पत्नी को तलाक के बाद पति की संपत्ति में आधा हिस्सा मिलना चाहिए। सरकार ने इसे पूरे तौर पर स्वीकार करने के बजाय बीच का रास्ता अपनाया है। प्रस्तावित संशोधन में व्यवस्था है कि वैवाहिक जीवन के दौरान पति द्वारा अर्जित की गई संपत्ति में पत्नी को भी हिस्सा मिलेगा, किंतु उस हिस्से को तय करने का अधिकार अदालत को होगा। प्रस्तावित संशोधन में इस बात को मान्यता दी गई है कि गृहस्थी की गाड़ी में पति और पत्नी दोनों की समान भागीदारी होती है। इसलिए यदि विवाह विच्छेद होता है तो गृहस्थ जीवन के दौरान अर्जित की गई संपत्ति पर केवल पति का एकाधिकार न हो, बल्कि पत्नी को भी हिस्सा मिले। कुछ सामाजिक संगठनों ने पत्नी को आधी संपत्ति देने की मांग की थी, किंतु सरकार ने इसे अस्वीकार कर दिया क्योंकि उसके दुरुपयोग की आशंका थी। ऐसा भी संभव था कि केवल संपत्ति में हिस्सा हासिल करने के लिए विवाह करके तलाक देने वाले लोगों की संख्या में अचानक वृद्धि हो जाती। इसलिए यह व्यवस्था की गई कि वैवाहिक जीवन के हर पहलू को ध्यान में रखकर अदालत यह तय करे कि पत्नी को पति की संपत्ति में कितना हिस्सा मिलना चाहिए। यह एक प्रशंसनीय कदम है। प्रस्तावित संशोधन में बच्चों की आर्थिक सुरक्षा का भी ध्यान रखा गया है।


हिंदू विवाह कानून में धारा-13इ जोड़कर अदालत की जिम्मेदारी तय की गई है कि विवाह विच्छेद का आदेश तब तक न दिया जाए जब तक कि बच्चों की आर्थिक सुरक्षा निश्चित न हो जाए। सामाजिक सुरक्षा के लिहाज से यह बहुत बड़ा कदम है। विवाह विच्छेद का सबसे अधिक खामियाजा बच्चों को ही भुगतना पड़ता है। वे उन बातों के लिए मानसिक तथा सामाजिक दंश का शिकार होते हैं जिन पर उनका कोई वश नहीं था। अपने पिता की अच्छी हैसियत के बावजूद कई बार वे पैसे-पैसे को मोहताज हो जाते हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए विधेयक में कहा गया है कि तलाक देने से पहले बच्चों के आर्थिक हित को ऐसी सुरक्षा दी जाएगी जो उनके मां-बाप की हैसियत के अनुरूप हो। इस बहु प्रतिक्षित संशोधन से बच्चों की आर्थिक जरूरतों की भरपाई हो सकेगी और वे मानसिक झटकों से उबर कर उठ खड़े होने की स्थिति में आ सकेंगे।


हरबंश दीक्षित डिग्री कॉलेज में प्रधानाचार्य हैं


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