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जनसत्याग्रह की आधी जीत

जागरण मेहमान कोना
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आखिरकार जनसत्याग्रहियों और सरकार में समझौता हो ही गया, जो आंदोलनकारियों की मांगों को अमलीजामा पहनाने में सरकारों के समक्ष चुनौती साबित होगा। यह भी ध्यान रखना होगा कि अरसे से अपने हक के लिए आवाज उठा रहे इन सत्याग्रहियों के लिए यह समझौता ठोस और स्थाई समाधान भी साबित हो सके। ऐसे ही कई आंदोलनों से जुड़े और भी सवाल हैं, जिनका समाधान समग्रता में पेश करना होगा। देश में इन दिनों हर तरफ अपने हक के लिए आवाजें उठ रही हैं। ये आवाजें हैं बांधों के कारण विस्थापन के दंश से पीडि़त कराहटों की, कहीं नवउदारवाद के बाजारी अजगरों से जमीनों को बचाने की जद्दोजहद के शोर की, कहीं सिमटते जंगल की दमघोंटू चीखें हैं तो कहीं औद्योगीकरण की भेंट चढ़ी खेतों की सिसकियों की। ये तमाम ऐसी मिली-जुली आवाजें हैं, जो दिल्ली से सैकड़ों-हजारों किलोमीटर दूर समावेशी विकास के लिए तरसते गांवों और जंगलों से मुखर हो चली हैं। आने वाले दिनों में ये आवाजें जल, जंगल, जमीन से निकलकर संसद की बेसाख्ता दीवारों पर भी दस्तक देने वाली हैं। मध्य प्रदेश के ग्वालियर से उठे कुछ ऐसे ही शोर ने केंद्र सरकार को अपने ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश को भेजकर जनसत्याग्रहियों से बीच में ही समझौता करने को मजबूर किया।


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सामाजिक कार्यकर्ता पीवी राजगोपाल की अगुआई में ग्वालियर से 26 राज्यों के भूमिहीन किसानों, आदिवासियों ने अपनी आवाज को सत्ता के गलियारों तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया था। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय को से वंचित ये आवाजें उन आदिवासियों और भूमिहीन किसानों की हैं, जो विकास के नाम पर हाशिए पर ढकेल दिए गए हैं। हिंदी के मशहूर साहित्यकार केदार नाथ अग्रवाल ने शायद ऐसे ही लोगों के लिए एक बार कहीं लिखा था- आज भी आई, कल भी आई / रेल बराबर सब दिन आई / लेकिन दिल्ली से आजादी / हाय अब तक आज न आई। वाकई आजादी मिलने के बावजूद विकास की रेल अभी तक गांवों और जंगलों तक नहीं पहुंच सकी है। इसीलिए जल, जंगल, जमीन की जद्दोजहद के लिए 50 हजार से ज्यादा जनसत्याग्रहियों का कारवां दिल्ली के लिए निकला था, जिसे 26 दिनों में 340 किलोमीटर की दूरी तय करते हुए दिल्ली पहुंचना था। लेकिन गुरुवार को ही इसे आगरा में ही रोककर आंदोलनकारियों की मांगें मान ली गईं। ऐसी ही एक निर्णायक यात्रा आजादी के आंदोलन के समय गांधीजी ने 12 मार्च, 1930 को साबरमती से अपने 78 सहयोगियों के साथ दांडी के लिए की थी। वास्तव में यह ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ सविनय अवज्ञा आंदोलन का श्रीगणेश था।


आज यही गांधीवादी आंदोलन सरकारों से अपने हक लेने का सबसे जायज तरीका साबित हो रहा है। जिस तरीके से दो अक्टूबर को दिल्ली से आए केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने जमीन के मुद्दे पर टालने जैसा जवाब देकर सत्याग्रहियों से घर वापस जाने को कहा, उससे आंदोलन में और आक्रोश दिखा और गुरुवार को वही जयराम रमेश समझौते के लिए तैयार हो गए। उन्होंने हर भूमिहीन को घर और खेती के लिए जमीन के अधिकार सहित 10 मांगें मान लीं। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी इन जन सत्याग्रहियों को यकीन दिलाया है कि प्रदेश सरकार उनके साथ है। एकता परिषद् की ओर से निकाली जा रही इस यात्रा में देशभर के कई प्रांतों के आदिवासी हैं, जिससे पदयात्रा में विभिन्न संस्कृतियों का समावेश है। संस्कृति और भाषाओं का यह मेल एक लघु भारत का नजारा प्रस्तुत करता है। एकता परिषद् की सत्याग्रह पदयात्रा गांधीवाद की चलती-फिरती पाठशाला बन गई है। बेहद अनुशासित और संयमित। बहरहाल, देश में किसानों की हालत काफी गंभीर है। साल दर साल, पीढ़ी दर पीढ़ी खेतों में कमर तोड़ परिश्रम करने वाला इंसान आधुनिक सामंती व्यवस्था में भूमिहीन किसान बन कर रह गया है। तिस पर सरकारें कांट्रैक्ट खेती की बात कर रही हैं, यानी अपनी ही जमीन पर मजदूर बनकर काम करना। किसानों की समस्याओं के निराकरण के लिए न तो फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए गए और न ही सिंगल विंडो सिस्टम लागू किया गया।


जिस तेजी से कृषि योग्य भूमि का हस्तांतरण गैर कृषि कार्र्यो और व्यावसायिक गतिविधियों के लिए हो रहा है, उससे किसानों में निराशा और हताशा फैल रही है। नतीजतन वे आत्महत्या कर रहे हैं। राष्ट्रीय अपराध रिपोर्ट ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2009 में देशभर में सवा लाख से अधिक लोगों ने आत्माहत्या की जिनमें 17 हजार से अधिक किसान थे। सबसे ज्यादा महाराष्ट्र में और उसके बाद आंध्र प्रदेश में किसानों ने आत्महत्या की। दरअसल, मरने वालों में अधिकतर वे किसान हैं, जो दूसरों की जमीन किराए पर लेकर खेती करते हैं जिन्हें बंटाईदार किसान कहते हैं। बंटाईदार किसान ज्यादा आत्माहत्याएं करते हैं, क्योंकि अगर फसल नष्ट हो जाती है तो उनके पास कुछ भी नहीं रह जाता और सरकार भी उन्हें मुआवज़ा नहीं देती। हमारे संविधान में भी सातवीं अनुसूची के तहत भूमि और कृषि राज्य के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। वहीं, जंगल समवर्ती सूची में हैं, जिन पर राज्य और केंद्र दोनों कानून बना सकते हैं। इसीलिए केंद्र ने वन अधिकार अधिनियम, 2006 के नाम से कानून बनाया है, जो अनुसूचित जनजाति एवं पारंपरिक रूप से जंगलों में और उसके सहारे जीने वाली अन्य जातियों के सदस्यों को तीन प्रमुख अधिकार देता है- 1-दिसंबर 2006 से पहले जंगल में कृषि/जोती गई भूमि पर कानूनी अधिकार 2-लघु वन उत्पाद, जंगल में चरागाह और जलाशयों के उपयोग का अधिकार। 3-सामुदायिक वन संसाधनों के संरक्षण और वन्य जीवन सुरक्षा की शक्ति। जल, जंगल और जमीन को सदियों से आदिवासियों ने सहेज कर रखा, ताकि हमारी सभ्यता फलती-फूलती रहे।


तथाकथित सभ्यता के नुमाइंदे आज जंगलों में रहने वाली जनजातियों को उनकी जड़ों से ही जुदा करने पर तुले हैं। नौवीं अनुसूची के तहत राज्यों ने आजादी के बाद भूमि सुधार कानून बनाए, मगर यह अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में असफल रहा। कानून तो बन गया, मगर नतीजा आज तक शून्य ही रहा। यहां तक कि इन्हें अपने अस्तित्व को बचाने के लिए भी जद्दोजहद करनी पड़ रही है। उम्मीद है कि सरकार और जनसत्याग्रहियों के बीच यह समझौता आखिरी साबित हो, वरना छह महीने बाद एक बार फिर दिल्ली दस्तक देने के लिए दांडी मार्च करना पड़ेगा। क्योंकि यह पहली बार नहींहै जब किसी बड़े आंदोलन को बीच में ही रोकने के लिए सरकार ने इस तरह का समझौतावादी रुख अपनाया है। अन्ना हजारे के जनलोकपाल आंदोलन में भी समझौता किया गया, उस जनलोकपाल का आज तक कहींकोई नमो-निशान नहींहै। बल्कि अन्ना के जनलोकपाल के तीन टुकड़े कर उसे छिन्न-भिन्न करके स्वीकर करने का ढोंग रचा गया। भ्रष्टाचार और गंगा की सफाई को लेकर भी तमाम आंदोलन अपने समझौतों के अमलीजामा पहनने की बाट जोह रहे हैं। ऐसे में एक और आंदोलन समझौते के ठंडे बस्ते में न रख दिया जाए।


लेखक दिनेश मिश्र स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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