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अब रूस में जन-विरोध की आंधी

जागरण मेहमान कोना
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जब एक कुंठित अरबी युवा ने हाशिए पर पहंुचे लाखों लोगों की दुर्दशा की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए हताशा भरा कदम उठाया तो उसके आत्मदाह की खबर वायरस की अरब देशों में फैल गई थी। इस घटना को पूरा हुए लगभग एक साल हो गया है। तब ट्यूनीशिया के एक छोटे से शहर में मोहम्मद बुआजिजि ने आत्मदाह किया था और उसके परिणामस्वरूप जनविरोध की शुरुआत हुई थी। जनविरोध की यह आग ट्यूनीशिया से शुरू होकर मिस्त्र, लीबिया, बहरीन, सीरिया, यमन, ब्राजील, चिली, अर्जेटीना, कनाडा, फ्रांस, हालैंड आदि से होती हुई अब रूस तक पहंुच गई है। अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन भी इसी क्रम में शामिल है, लेकिन आज हम बात रूस की कर रहे हैं जहां दिसंबर के पहले सप्ताह में हुए संसदीय चुनाव के घोटाले ने जनता में इतना अधिक आक्रोश उत्पन्न किया है कि जिस पुतिन को रूस का मसीहा समझा जा रहा था अब उन्हीं के खिलाफ पुतिन चोर है, पुतिन केबिन रूस आदि के नारे लग रहे हैं और जगह-जगह जन प्रदर्शन हो रहे हैं जिनमें विशेष रूप से युवा अपना कामकाज छोड़कर हिस्सा ले रहे हैं। यह विरोध केवल सड़को पर ही नहीं है, बल्कि इंटरनेट पर स्मार्टफोन व शौकिया कैमरों से ली गई तस्वीरों को पोस्ट किया जा रहा है जिनमें दिखाया जा रहा है कि किस तरह पुतिन की यूनाइटेड रूस पार्टी ने मतदान में घोटाले किए।


कुल मिलाकर एक बार फिर इंटरनेट के जरिए जनविरोध का सिलसिला जारी है और इस बार पुतिन को अपनी साख बचाना भारी पड़ रहा है। निजी कैमरों व स्मार्टफोन सबूतों के अलावा अंतरराष्ट्रीय चुनाव मॉनीटर्स जैसे आर्गेनाइजेशन फॉर सिक्योरिटी एंड कोआपरेशन इन यूरोप ने भी कहा है कि बैलेट बॉक्सों को जाली वोटों से भरा गया। जबकि अमेरिका की गृह सचिव हिलेरी क्लिंटन ने रूस में चुनावी गड़बड़ी की कड़ी आलोचना की है। फिलहाल के लिए रूस में चुनाव अधिकारियों ने घोषणा की है कि यूनाइटेड रूस पार्टी ने संसद में 238 सीटें या लगभग 53 प्रतिशत मत हासिल किए हैं। गौरतलब है कि इस पार्टी ने पिछले चुनाव में 315 सीटें या 70 प्रतिशत मत हासिल किए थे। दूसरे शब्दों में घोटाले के बावजूद पुतिन की पार्टी को कम वोट हासिल हुए हैं। कम्युनिस्ट पार्टी को 92 सीटें मिली हैं, जस्ट रशिया नामक एक समाजवादी लोकतांत्रिक पार्टी को 64 सीटें और नेशनल लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी को 56 सीटें मिली हैं।


सीटों के बंटवारे से तो घोटाला प्रतीत नहीं होता, खासकर इसलिए भी क्योंकि मतदान से पहले आम नजरिया पुतिन की जीत का ही था, लेकिन वीडियोग्राफी से जो सबूत सामने आए हैं, उनसे यही लगता है कि पुतिन की जीत का जो माहौल दिखाई दे रहा था, वह केवल ऊपरी था। खुद पुतिन को भी मालूम था कि वह कमजोर पड़ रहे हैं। इसलिए गड़बड़ी के प्रयास किए गए। जिस प्रकार से गड़बड़ी के बावजूद पुतिन की पार्टी का मत प्रतिशत कम हुआ है, उससे यही लगता है कि वह इतनी गड़बड़ी नहीं कर सके जितनी करना चाहते थे, लेकिन जो सबूत जनता के सामने आए उससे उन्हें आश्चर्य भी हुआ और गुस्सा भी आया। आश्चर्य इसलिए, क्योंकि माहौल पुतिन की जीत का बना हुआ था। गुस्सा इसलिए कि पुतिन भी चोर निकले और इसलिए जनता सड़कों पर उतर आई। विरोध का एक कारण यह भी है कि अब जनता सोचने लगी है कि उसके पास विकल्प हैं और पुतिन व उनकी सत्तारूढ़ पार्टी उनके अंदाजे से ज्यादा कमजोर है। जिस प्रकार से पुतिन का विरोध हो रहा है उससे यह अंदाजा लगाना गलत न होगा कि अरब की चमेली क्रांति रूस में भी पहुंच गई है।


मीडिया का भी इस्तेमाल लोगों को एकजुट करने में लगा हुआ है। मतदान के ठीक बाद जो जनक्रांति का सैलाब उमड़ा था, उसे कुचलने के लिए गंभीर प्रयास किए गए, लेकिन जब सरकार पर अंतरराष्ट्रीय दबाव पड़ने लगा और जनता भी अधिक हौसले के साथ बाहर निकलने लगी तो सरकार ने अपनी रणनीति बदल दी। फलस्वरूप 10 दिसंबर को जब बड़ी रैली निकली तो जनता को इसमें हिस्सा लेने से रोका नहीं गया। सरकार ने टीवी पर भी प्रदर्शन की खबरों को दिखाने से नहीं रोका, लेकिन अगली रैली के दिन सरकार ने सभी छात्रों के लिए आवश्यक स्कूल टेस्ट निर्धारित कर दिए। दूसरे शब्दों में युवाओं को रैली से रोकने के लिए उन पर टेस्ट थोप दिए गए। रैली का आयोजन शनिवार को होना था जिस दिन आमतौर से छात्रों को जल्दी छुट्टी मिल जाती है, लेकिन उस दिन टेस्ट आयोजित करके यह भी घोषित कर दिया गया कि छात्रों और अध्यापकों का हाजिर होना अनिवार्य है। इससे अगले शनिवार को भी गणित का टेस्ट घोषित कर दिया गया। इस प्रकार सरकार दमनकारी नीति की बजाय ऐसी स्थितियां उत्पन्न कर रही है ताकि लोग विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा न ले सकें, लेकिन इस रणनीति का भी उलटा असर पड़ रहा है। अब अन्य रणनीति भी काम नहीं आ रही हैं। पुतिन चंद माह के अंतराल पर जनता से सीधे टेलीफोन पर संपर्क करते हैं। इस बार उन्होंने रैलियों के दौरान जनता से फोन संपर्क स्थापित किया। जब लोगों ने उनसे प्रदर्शनों के बारे में मालूम किया तो उन्होंने उसे नजरंदाज कर दिया।


नतीजतन इससे जनविरोध को और अधिक पब्लिसिटी मिली। ज्यादा लोग प्रदर्शन में शामिल होने लगे। विपक्षी नेताओं ने पुतिन का फ्री पब्लिसिटी के लिए शुक्रिया अदा किया। इस जनविरोध की टाइमिंग भी बहुत महत्वपूर्ण है। वर्तमान राष्ट्रपति मेदवेदेव के बारे में हर कोई जानता है कि वह पुतिन के उम्मीदवार हैं, लेकिन व्यक्ति के तौर पर वह पुतिन से बहुत भिन्न हैं। मेदवेदेव का कार्यकाल बहुत महत्वपूर्ण था। मेदवेदेव और पुतिन के कार्यकालों के बीच जो अंतर था उससे जनता को समझ में आ गया कि बिना पुतिन के भी काम चल सकता है और पुतिन रूस के अकेल नेता नही हैं।


ग्लोबल आर्थिक संकट का असर रूस पर भी बहुत ज्यादा पड़ा है। इसकी वजह से भी जनविरोध में तीव्रता आई है। पुतिन युग के दौरान जो आर्थिक व राजनीतिक स्थिरता थी उससे मध्य वर्ग को सबसे ज्यादा लाभ हासिल हुआ था। उस दौरान व्यापार का विकास हुआ, रोजगार के अवसर बढ़े और जनकल्याण की सुविधाएं भी उपलब्ध हुई, लेकिन आर्थिक संकट से इसी वर्ग को सबसे ज्यादा चोट पहुंची है और इसलिए वह ही प्रदर्शनों में सबसे आगे है। आम धारणा यह है कि रूस की अर्थव्यवस्था को संकट से बचाने के लिए पुतिन की सत्तारूढ़ पार्टी ने कुछ नहीं किया। विरोध प्रदर्शन का सबसे अहम पहलू यही है। इन प्रदर्शनों का आने वाले समय में क्या नतीजा निकलेगा, यह तो फिलहाल कहना कठिन है, लेकिन दुनियाभर में जो जनक्रांतियां हो रही हैं, उससे यही लगता है कि आज की राजनीतिक व्यवस्था जितनी मजबूत प्रतीत होती है, उतनी है नहीं। एंथ्रोपोलॉजिकल अध्ययनों ने अरब में चमेली क्रांति के होने से पहले ही पनप रहे जन आक्रोश को पहचान लिया था। यह राजनीति विज्ञान से बिल्कुल अलग अध्ययन है, क्योंकि इसमें व्यवस्था की आंतरिक स्थिरता को नहीं, बल्कि जनता के मूड को देखा जाता है। फिलहाल जनता का मूड मराकश से मॉस्को तक गुस्से में भरा हुआ दिख रहा है।


लेखक लोकमित्र स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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