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भरपूर अनाज, फिर भी भुखमरी

जागरण मेहमान कोना
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पिछले एक साल के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कई बार भुखमरी, गरीबी और कुपोषण पर अपनी चिंता जाहिर कर चुका है। पर केंद्र सरकार ने कभी भी शीर्ष अदालत की चिंता को गंभीरता से नहीं लिया। यही वजह है कि एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को आड़े हाथों लेते हुए उसे आदेश दिया है कि देश में कोई भी मौत भुखमरी और कुपोषण की वजह से नहीं होनी चाहिए। यह जिम्मेदारी सरकार की है कि वह गरीबों को भोजन उपलब्ध कराए। कोर्ट ने यह निर्देश पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) द्वारा एक जनहित याचिका पर दिया है। यह याचिका सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में भ्रष्टाचार और भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) के गोदामों में सड़ रहे अनाज के मुद्दे पर दायर की गई थी। याचिका में कहा गया है कि देश में एक तरफ हजारों लोग भूखे रह रहे हैं तो दूसरी तरफ अनाज गोदामों में सड़ रहा है। बेशक शीर्ष अदालत भूख व कुपोषण को लेकर कितना गंभीर रही है, इसका अंदाजा पिछले एक साल के दौरान केंद्र को बार-बार दिए गए आदेशों से लगाया जा सकता है। पिछले साल जुलाई 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को आदेश दिया था कि भंडार क्षमता के अभाव में अनाज सड़ने देने की बजाए गरीब और भूखे लोगों के बीच बांट देना चाहिए, जबकि इस साल मई में कोर्ट ने केंद्र सरकार को 50 लाख टन अतिरिक्त अनाज 150 सबसे गरीब जिलों में दो हफ्तों के अंदर वितरित करने का आदेश दिया था। उम्मीद की जा रही थी कि कोर्ट के इस आदेश का सरकार सही ढंग से जरूर पालन करेगी, जिससे आगे फटकार सुनने की नौबत नहीं आएगी। पर ऐसा नहीं हुआ। एक बार फिर कोर्ट ने अपनी चिंता जाहिर करते हुए कहा है कि हमारी चिंता देश में भूख और कुपोषण से हो रही मौतों को लेकर है और हमें नहीं लगता कि इससे ज्यादा गंभीर कोई और बात हो सकती है।


अनाज की बर्बादी को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि न्यायालय ने सभी राज्यों के मुख्य सचिवों से कहा कि वह दो सप्ताह के अंदर अतिरिक्त अनाज के बारे में केंद्र को सूचित करें, ताकि राज्यों में गरीबों की अनाज की जरूरत को पूरा किया जा सके। यदि मुख्य सचिव तय समय-सीमा के अंदर केंद्र को सूचित नहीं करते हैं तो यह माना जाएगा कि उन्हें खाद्यान्न की आवश्यकता नहीं है। सचमुच देश में गरीबी और भुखमरी का यह आलम है कि देश में आधे से अधिक बच्चे कुपोषण की गिरफ्त में है। ऐसे में अनाजों को गोदामों में बंद रखना बेहद ही निर्मम सरकारी व्यवस्था को दर्शाता है। इस दिशा में जो भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा है, वह देश में गरीबी को देखते हुए अच्छा कदम है। यदि बात अनाजों की सड़ने की करें तो अनाजों के सड़ने में बड़ी समस्या गोदामों की कमी भी है। जस्टिस दलवीर भंडारी और जस्टिस दीपक वर्मा की पीठ ने केंद्र सरकार से कहा कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) को भ्रष्टाचार और हेराफेरी से बचाने के लिए इसका कंप्यूटरीकरण जरूरी है, ताकि पीडीएस में हो रहे बड़े स्तर पर चोरी और भ्रष्टाचार को कम किया जा सके। क्योंकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तरह बंटने वाले अनाज की कालाबाजारी बहुत अधिक है। अत: इस पर अंकुश लगाने के लिए समूची प्रणाली की कंप्यूटरीकरण जरूरी है।


सार्वजनिक वितरण प्रणाली के क्रियान्वयन को लेकर हमेशा सवाल खड़े हुए है। विश्व बैंक ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भारी लीकेज पर भी उंगली उठाई है। इस साल पहली बार विश्व बैंक की जारी सर्वेक्षण रपट में कहा गया है कि 2004-05 में सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत जो अनाज जारी किया, इसका लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा लक्षित परिवारों तक नहीं पहुंचा। साथ ही यह भी कहा गया है कि भारत जीडीपी का दो प्रतिशत से अधिक हिस्सा सामाजिक संरक्षण कार्यक्रमों पर खर्च करता है, जो अन्य विकासशील देशों की तुलना में बहुत अधिक है। पर पीडीएस प्रशासनिक व्यवस्था लचर होने के कारण गरीब उन्मूलन में कारगर नहीं है। इतना ही नहीं, सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर बनी जस्टिस बधवा कमेटी ने पीडीएस को बोगस और कई राज्यों में एकदम फेल करार दिया है।


कमेटी के मुताबिक यह प्रणाली भ्रष्ट, दोषपूर्ण और अपर्याप्त है। पीडीएस के अधिकांश खाद्यान्नों की कालाबाजारी हो जाती है। इसके जरिये खाद्यान्न पड़ोसी देशों नेपाल, बांग्लादेश और म्यांमार तक पहुंचा दिया जाता है। जस्टिस बधवा कहते हैं कि पीडीएस तक पहुंचने से पहले ही उसके कोटे के 80 फीसदी राशन की कालाबाजारी हो जाती है। इसके अलावा बेईमानी पूर्ण धंधे के बारे में भी बहुत से आकलन है। इनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि पीडीएस अपने आप में फेल है। अत: सार्वजनिक वितरण प्रणाली केवल ठीक-ठाक करने से कारगर नहीं हो सकती। इसे आमूल-चूल बदलने की जरूरत है। इसके लिए एक तेज और सक्षम प्रणाली बनाई जानी चाहिए। इसके साथ ही ग्रामीण इलाकों में वितरण प्रणाली का क्षेत्र और पहुंच नियंत्रित की जानी चाहिए, जहां दीर्घकालीन भोजन सुरक्षा से संबंधित जनोन्मुखी कार्यक्रम ज्यादा से ज्यादा चलाया जा सकता है।


सचमुच हमारे देश में रख-रखाव और भंडारण की पर्याप्त सुविधा न होने से हरेक साल 50,000 करोड़ से ज्यादा का खाद्यान्न बर्बाद हो जाता है। जरा साचिए, इतने खाद्यान्न से कितने भूखे लोगों व उनके परिवार का पेट भरा जा सकता है। यह एक ऐसे देश की शर्मसार करने वाली तस्वीर है, जहां आज भी प्रतिदिन 26 करोड़ लोग एक वक्त बिना खाए भूखे सोने के लिए मजबूर है। यह सही है कि गरीबों को खाना देने की कई योजनाएं अरसे से हमारे यहां चल रही हैं। घटी दरों पर खाद्यान्न देने के कार्यक्रम भी होते रहते हैं। कहने के लिए राशन की व्यवस्था भी है, लेकिन इन सबके बावजूद हकीकत यह है कि लोग भूख से मरते हैं। भंडारगृहों में खाद्यान्न है, लेकिन वह न तो जरूरमंदों तक पहुंचता है और न ही जरूरतमंद उस तक पहुंच पाते हैं। ऐसा नहीं है कि देश में मौजूद गरीबों को खाना देने के लिए हमारे पास खाद्यान्न की कमी है। यह सत्य है कि भारत में जितने गरीब लोग रहते हैं, उसे देखते हुए अनाज का उत्पादन बढ़ाना पड़ेगा और फिर उसकी बर्बादी रोकने के लिए उचित भंडारण की व्यवस्था करनी पड़ेगी। क्योंकि एक अनुमान के मुताबिक हमारे यहां फसल की कटाई से लेकर उसे गोदाम में पहुंचाने तक जितने अनाज की बर्बादी होती है, उतनी ऑस्ट्रेलिया में फसल की उपज होती है।


अम‌र्त्य सेन की 1981 में लिखी गई किताब पॉवर्टी एंड फैमीन एंड एम्से आन इनटाइटिलमेंट एंड डिप्राइजेशन में दलील दी गई है कि ज्यादातर मामलों में भुखमरी और अकाल का कारण अनाज की उपलब्धता की कमी नहीं, बल्कि असमानता और वितरण व्यवस्था की कमी है। इसे दुर्भाग्य ही कहें कि जो बात 1981 में उन्होंने कही थी, वह 2011 में भी सही है। हालांकि पिछले छह दशक में गरीबी और भुखमरी से लड़ने के लिए हमने काफी प्रयास किया है। फिर भी आज देश गरीबी और भुखमरी से छुटकारा पाने के लिए संघर्ष कर रहा है। ऐसे में सवाल अहम है कि क्या सरकार इस दिशा में सकारात्मक प्रयास कर रही है। भले ही सरकारी और गैर सरकारी प्रयास हर स्तर पर किए जाते हैं, ताकि कोई भी गरीब भूखा न रहे। सभी को कम से कम दो जून की रोटी नसीब हो, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि आधुनिकता व भूमंडलीकरण के बावजूद स्थिति में कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं हो पा रहा है। गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करने वाले रोजाना भूखे पेट नहीं सोएं, इसके लिए वे संघर्ष करते दिखते हैं। बहरहाल, वर्ष 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने भूख और कुपोषण से लड़ाई के लिए 60 दिशा-निर्देश दिए थे। इस निर्देश के एक-दशक पूरे होने वाले हैं, पर सब धरे के धरे रह गए। क्योंकि सरकार न्यायालय के दिशा-निर्देशों का पालन करने में नाकाम रही है।


विश्व बैंक की रिपोर्ट भी कहती है कि बच्चों की कुल मृत्यु में से आधी केवल आवश्यक न्यूनतम भोजन न मिलने के कारण होती है। बेशक मलेरिया, डायरिया और निमोनिया से होने वाली बाल मृत्यु की घटनाओं के लिए कुपोषण की स्थिति 50 फीसदी से भी ज्यादा जिम्मेदार है। जबकि भारत में रोगों के उपचार के ऊपर जितना खर्च होता है, इसका 22 फीसदी हिस्सा बचाया जा सकता है। बशर्ते बाल कुपोषण की स्थिति पैदा नहीं हो। हालांकि हमें यह देखना होगा कि सरकार सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश को कितनी गंभीरता से लेती है। महज अन्न की उपलब्धता से लोगों को संतुलित भोजन नहीं मिल पाएगा। यह भी देखना होगा कि वह आम लोगों तक पहुंच पा रहा है या नहीं। इसके लिए हमें एक ऐसी व्यवस्था बनाने पर जोर देना होगा, जो अन्न को जरूरमत लोगों तक समय रहते पहुंचा सके। इसके लिए जरूरी है कि सरकारी तंत्र अपनी व्यवस्था को तर्कसंगत और प्रभावी बनाए। यह तभी हो पाएगा, जब यह सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल होगा।


लेखक रवि शंकर सीईएफएस में रिसर्च एसोसिएट हैं


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