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फैलता जनाक्रोश

जागरण मेहमान कोना
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udit raj देश के मध्यम वर्ग में जनतंत्र के खिलाफ रोष तेजी से बढ़ रहा है। पिछले वर्ष राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, 2जी स्पेक्ट्रम एवं आदर्श सोसाइटी जैसे मामले मीडिया ने जोर-शोर से उजागर किए तो गुस्सा और तेज हो गया। यह बात उस समय फिर से सिद्ध हुई जब अन्ना हजारे के नेतृत्व में जंतर-मंतर पर जन लोकपाल बिल बनाने को लेकर अनशन शुरू हुआ। इतने अपार समर्थन की तो कल्पना भी नहीं थी। वास्तव में अनशन का समय गर्म लोहे पर हथौड़ा मारने के समान था। इस क्रम में बाबा रामदेव के नेतृत्व में रामलीला मैदान में विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने और उसे राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करने के लिए अनशन शुरू हुआ। आंदोलन को मध्यम वर्ग और विशेष तौर से छोटे और मझोले व्यापारियों ने अपेक्षा से अधिक समर्थन दिया। बाबा रामदेव से मिलने चार मंत्री एयरपोर्ट पर पहुंचे तो मध्यम वर्ग और उनके अनुयायियों का सीना और चौड़ा हो गया। परोक्ष या अपरोक्ष रूप से उन्हें लगा कि जनप्रतिनिधि नतमस्तक हो रहे हैं तो बदलाव जरूर होगा। लोगों को लगने लगा कि अब देश से भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए भ्रष्ट नेताओं से छुटकारा मिल जाएगा, लेकिन मध्यम वर्ग अपनी गिरेबान में झांककर देखने की कोशिश नहीं करता कि जब चुनाव होते हैं तब जहां उसकी बाहुल्यता है, मतदान का प्रतिशत सबसे कम होता है। दूसरी तरफ मध्यम वर्ग अराजकता को कतई बर्दाश्त नहीं कर पाता।


जनतंत्र के सिवाय और कोई बेहतर शासन-प्रणाली नहीं है। चुने हुए जनप्रतिनिधियों में आस्था खोने का मतलब है कि अराजकता। अराजकता की स्थिति में अन्ना हजारे व रामदेव तो कहीं दिखाई भी नहीं पड़ेगें। वैसी स्थिति में जिसकी लाठी उसकी भैंस होगी। लाठी इन जैसे लोगों के हाथ में नहीं हो सकती। लाठी जो जाति और समुदाय को संगठित कर ले या छल-कपट से प्रबंधन कर लेता है उसके पास होती है। जब यह तय हो गया है कि शासन-प्रशासन जनतंत्र का ही परिणाम है तो उसी रास्ते पर चलकर आमूल परिवर्तन संभव है। केवल मध्यम वर्ग के गुस्से और मीडिया के सहयोग से व्यवस्था नहीं बदली जा सकती। पिछले वर्ष नवंबर में जब अन्ना हजारे के नेतृत्व में दिल्ली में भ्रष्टाचार के खिलाफ एवं जन लोकपाल विधेयक पास कराने के लिए प्रदर्शन किया गया तो 100 लोग भी नहीं थे, लेकिन इस वर्ष तमाम घोटालों की वजह से मध्यम वर्ग आक्रोशित बैठा था और जैसे ही मौका मिला स्वत: जंतर-मंतर और रामलीला मैदान पहुंच गया। 29 नवंबर, 1949 को संविधान निर्माता डॉ.अंबेडकर ने कहा था कि कि अनशन, सत्याग्रह अराजकता के ग्रामर हैं और लोकतंत्र के लिए घातक हैं। संविधान में बहुत बारीकी से न्यायपालिका एवं विधायिका में संतुलन बनाया गया है।


एक इंच भी इधर-उधर हो तो कानून-व्यवस्था का प्रश्न पैदा हो जाएगा। जन लोकपाल बिल के सदस्य जनता के द्वारा तो चुने नहीं जाएंगे। अगर ये भ्रष्ट एवं पूर्वाग्रही हो गए तो संतुलन करने वाला कोई तंत्र हमारे पास नहीं है। हो सकता है कि ईमानदार जनप्रतिनिधि एवं जज डरकर अपना काम न कर सकें, क्योंकि उन्हें लोकपाल का भय रहेगा। 18 नवंबर 2010 को कर्नाटक में जनता दल (एस) ने वहां के मुख्यमंत्री के विरोध में 84 भ्रष्टाचार के मामले लोकपाल को दिए। अभी तक उसमें कोई कार्यवाही नहीं हो सकी। भ्रष्टाचार को रोकने के लिए विधेयक में कड़े से कड़े प्रावधान हों, लेकिन लोकपाल के सदस्य की जवाबदेही का भी ध्यान दिया जाए। इस लोकपाल समिति में न कोई दलित है, न ही पिछड़ा और न ही मुसलमान एवं महिला। इन दोनो आंदोलनों के पीछे वही लोग ज्यादा दिख रहे हैं जो मंडल कमीशन का विरोध किए थे। सुप्रीम कोर्ट में जब बहस हुई कि मुवक्किल से फीस केवल चेक से ली जाए तो उसमें एक सदस्य ने विरोध किया था। आखिर इससे क्या प्रतीत होता है? जन लोकपाल विधेयक पास होना चाहिए और बाहर का काला धन अवश्य लाना चाहिए। भ्रष्टाचार पर रोक लगाना अति आवश्यक है, क्योंकि बहुसंख्यक नेता, नौकरशाह, व्यापारी आदि भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। 16 लोगों का जर्मनी के बैंक में दो नंबर का खाता होने का पता लगने के बाद भी सरकार ने कोई कार्यवाही नहीं की। भारत सरकार ने इस धन को कभी लाने की चेष्टा ही नहीं की। यदि राशि अरबों-खरबों रुपये की है।


सुप्रीम कोर्ट को अपनी निगरानी में विदेशों में जमा पैसे की जांच करनी पड़ रही है, जबकि यह कार्य सरकार का होना चाहिए था। ऐसे में मध्यम वर्ग में गुस्सा पैदा होना स्वाभाविक है। इन आंदोलनों से राजनैतिक दलों को सजग हो जाना चाहिए कि जनतंत्र के लिए खतरे की घंटी बज रही है। यदि ऐसा ही माहौल रहा तो जनप्रतिनिधियों के खिलाफ नफरत बढ़ती जाएगी। देश के सबसे पुराने दल कांग्रेस को भी इसकी कीमत चुकानी होगी। वास्तव में मीडिया के द्वारा जुटाए गए समर्थन से सरकार इतना डर गई कि मंत्री जंतर-मंतर पर आम आदमी की तरह चक्कर काटने लगे। लाखों लोगों के धरना-प्रदर्शन होते रहते हैं, लेकिन कभी ऐसा नहीं हुआ। बेहतर हो कि सरकार इन मांगों पर कठोर कदम उठाए। अभी भी समय है कि भ्रष्टाचार को मिटाया जाए, परंतु सबसे बड़ी अड़चन यह है कि देश में जब तक बौद्धिक भ्रष्टाचार रहेगा तब तक भौतिक भ्रष्टाचार को मिटाना संभव नहीं है। जन लोकपाल विधेयक पास हो और भ्रष्टाचार कम हो यह बहुत जरूरी है।


डॉ. उदित राज हैं


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