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पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार पर अफसोस जता रहे हैं ए सूर्यप्रकाश
एक के बाद एक दो किताबें पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के व्यक्तित्व-कृतित्व पर कुछ नई रोशनी डाल रही हैं। इनमें से एक किताब अर्जुन सिंह ने लिखी है और दूसरी वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने। दोनों ही किताबों के कुछ अंश नरसिम्हा राव की गरिमा गिराने वाले हैं, लेकिन यह काम कुछ और लोग भी कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री के रूप में जो कुछ उन्होंने अर्जित किया और देश को दिया उसे खारिज करने की कोशिश हो रही है। सच तो यह है कि उनकी उपेक्षा एक लंबे अर्से से जारी है। पिछले माह 28 जून को पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की 91वीं जयंती थी। इस अवसर पर आंध्र प्रदेश के कुछ नेताओं ने आंध्र भवन में एक सभा का आयोजन किया था। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जिन्हें अपने मंत्रिमंडल में स्थान देकर नरसिम्हा राव ने ही राजनीति में उतारा था, इस आयोजन में मुख्य वक्ता थे, किंतु वह वहां नहीं पहुंचे। इसका कारण बताया गया कि वित्त मंत्रालय के अधिकारियों के साथ उनकी महत्वपूर्ण बैठक थी। मनमोहन सिंह की अनुपस्थिति का कारण बनावटी ही था। क्या वह इंदिरा गांधी या राजीव गांधी की जयंती पर आयोजित कार्यक्रम में आने से मना कर सकते थे? इस कार्यक्रम को धता बताकर मनमोहन सिंह कांग्रेस की उस जमात में शामिल हो गए जो भारत के महानतम प्रधानमंत्रियों में से एक नरसिम्हा राव के असाधारण महत्व से परिचित नहीं है। हम नेहरू-गांधी परिवार से बाहर के राजनेताओं के योगदान को कमतर आंकने के इस परिवार के रवैये से भलीभांति परिचित हैं। यह तुच्छता जवाहरलाल नेहरू के समय से ही चली आ रही है। तब सुभाष चंद्र बोस, सरदार पटेल और बीआर अंबेडकर के योगदान की अनदेखी की गई थी। इसी प्रकार देश की अर्थव्यवस्था को गति देने में नरसिम्हा राव के योगदान को कभी गांधी परिवार ने मान्यता नहीं दी।
दरअसल मनमोहन सिंह ने पिछले 21 वर्षो में जो भी उपलब्धियां हासिल की हैं, उनका श्रेय नरसिम्हा राव को जाता है। उन्होंने ही मनमोहन सिंह को मंत्रिमंडल में वित्त मंत्रालय का महत्वपूर्ण विभाग सौंपा था। राव की जयंती के कार्यक्रम से मनमोहन सिंह की अनुपस्थिति की महत्ता तब जाहिर होगी जब हम राव-सिंह के संबंधों पर नजर डालें। नरसिम्हा राव ने प्रधानमंत्री पद की शपथ 21 जून, 1991 को ली थी। राव के पास सरकार गठन करने का स्पष्ट बहुमत नहीं था। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को महज 232 सीटें मिली थीं। बहुमत जुटाने के लिए उन्होंने अनेक छोटे दलों का समर्थन जुटाया था। इससे भी महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उस समय भारतीय अर्थव्यवस्था बदहाली के दौर से गुजर रही थी। जब राव ने कार्यभार संभाला तब भारत का विदेशी मुद्रा भंडार रसातल में पहुंच चुका था और महंगाई 13 फीसदी की दर से आसमान छू रही थी। चंद्रशेखर की पूर्ववर्ती सरकार को 20 करोड़ डॉलर जुटाने के लिए बैंक ऑफ इंग्लैंड में सोना गिरवी रखने को मजबूर होना पड़ा था। देश दीवालिया होने के कगार पर था और विदेशी मुद्रा भंडार केवल 2100 करोड़ रुपये तक सिमट गया था। यह राशि भारत के तेल आयात के 15 दिनों की पूर्ति के लिए भी पर्याप्त नहीं थी। देश की दुर्दशा के लिए नेहरू की समाजवादी और इंदिरा गांधी की वोट बैंक नीतियां भी जिम्मेदार थीं।
वोट बैंक पक्का करने के लिए उन्होंने लोन मेलों का आयोजन किया था और गरीबों को कम ब्याज पर ऋण मुहैया कराया था। साथ ही लाइसेंस परमिट राज और भ्रष्टाचार ने भारतीय उद्योग जगत को पंगु बना दिया था। देश में उद्यमिता की भावना को जिंदा रखने के लिए इस अक्षम नीतिगत ढांचे को ध्वस्त करना बेहद जरूरी था। हालात कठिन फैसलों की मांग कर रहे थे। तब राव ने मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री बनाया और इस बनावटी समाजवादी आर्थिक ढांचे को तोड़ने, विदेशी निवेशकों का भारत में भरोसा पैदा करने और भारत के उद्यमियों को काम करने का माहौल बनाने की उन्हें पूरी छूट दी। आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया जून 1991 से शुरू हुई और मई 1996 में जब राव ने पद छोड़ा, तब तक वह भारतीय अर्थव्यवस्था में गजब के सुधार ला चुके थे। विदेशी मुद्रा भंडार साठ अरब डॉलर पर पहुंच गया था। लाइसेंस-परमिट राज के खात्मे के साथ ही भारतीय उद्योग जगत ने भी फर्राटा भरा। कार्यभार संभालते ही मनमोहन सिंह पूरे मनोयोग से काम में जुट गए और नई आर्थिक नीति लागू की। इसके तहत अनेक क्षेत्रों में सरकारी एकाधिकार को खत्म किया गया तथा इन क्षेत्रों को भारतीय व विदेशी निवेशकों के लिए खोल दिया गया। अर्थव्यवस्था के पुनरुद्धार के लिए अन्य अनेक उपाय किए गए, जिनमें महत्वपूर्ण थे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों में सुधारों की पहल। बहुत से लोगों को ये आमूलचूल परिवर्तन नहीं भाए और मनमोहन सिंह को पद से हटाने के लिए कांग्रेस के भीतर और बाहर से दबाव पड़ना शुरू हो गया, लेकिन राव ने राजनीतिक हमलों से मनमोहन सिंह को सुरक्षित रखा और उन्हें पूरे पांच साल तक वित्तमंत्री बनाए रखा। राव के संकल्प की बदौलत ही अर्थव्यवस्था पटरी पर दौड़ने लगी और भारत उच्च विकास दर के रास्ते पर बढ़ चला।
पंजाब में आतंकवाद को कुचलने और अलगाववादी आंदोलन की धार कुंद करने में भी राव ने ऐसा ही संकल्प दिखाया। यहां भी उन्होंने पंजाब के मुख्यमंत्री और पुलिस प्रमुख केपीएस गिल को पूरी छूट दी और एक ऐसे राज्य को संभाल लिया जो भारत के हाथों से फिसल रहा था। पंजाब में विखंडन के बीज इंदिरा गांधी के कार्यकाल में बोए गए थे और राजीव गांधी के समय में उन्हें पोषित किया जाता रहा था। इन दोनों के पास अशांत राज्य को देश की मुख्यधारा से जोड़ने का कोई उपाय नहीं था। अगर इस नाजुक दौर में राव दृढ़ता नहीं दिखाते तो पंजाब भारत से अलग होने वाला पहला राज्य बन गया होता। 2004 में राव के देहांत के समय देश का विदेशी मुद्रा भंडार 140 अरब डॉलर (करीब छह लाख करोड़ रुपये) पर पहुंच गया था। देश के विकास में इतने महत्वपूर्ण योगदान के बावजूद नेहरू-गांधी परिवार ने कभी इसका अनुमोदन नहीं किया। इसके बजाय, यह परिवार शरारतन इसका श्रेय राजीव गांधी को देता रहा। प्रचारित किया गया कि राव तो बस राजीव गांधी की नीतियों को कार्यान्वित कर रहे थे। यह भी मिथ्या प्रचार है कि राव का आर्थिक उदारीकरण कार्यक्रम तो 1991 में कांग्रेस के चुनावी घोषणापत्र में शामिल था। शुरू में तो मनमोहन सिंह ने नरसिम्हा राव के नेतृत्व की प्रशंसा करने का साहस दिखाया था, किंतु अब उन्होंने उन कार्यक्रमों से कन्नी काटनी शुरू कर दी है, जिनमें उन्हें मन मारकर उस व्यक्ति को श्रद्धांजलि देनी पड़ती, जो उन्हें राजनीति में लाया और मंत्रिमंडल में स्थान दिया।
ए सूर्यप्रकाश वरिष्ठ स्तंभकार हैं
पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव,
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