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राधे मां इन दिनों ईश्वरीय शक्तिा का ताजा तथाकथित अवतार हैं। हाथों में त्रिशूल और गुलाब का फूल लिए राधे मां उड़नखटोले से भक्तों में आती हैं, झमाझम मेकअप, डिजायनर लिबास और गहनों से लदी हुई मां भक्तों के साथ नाचती हैं। जिस भक्त की गोद में चढ़ जाएं या जिसे अपना जूठा खिला दें वह तर जाता है। दुआओं के कारोबार में करोड़ों का टर्नओवर है। भक्त मां कि छत्रछाया में हैं और मां खुद मुंबई के एक धनी व्यवसायी गुप्ताजी की छत्रछाया में। एक न्यूज चैनल की मानें तो सालों पहले मां अपने ढोंग पर फगवाड़ा के गुस्साए लोगों से माफी मांगकर भाग खड़ी हुई थीं। अब जसविंदर उर्फ गुडि़या उर्फ राधे मां फिर अवतरित हुई हैं। ऐसे ही पिछले दिनों टच थैरेपी से कई देशों के राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों का कल्याण का दावा करने वाले दक्षिण भारत के कथित बाबा पॉल को अपने भाई की हत्या की सुपारी देने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस ने पुख्ता सबूतों के साथ उन्हें पकड़ा है। इधर मीडिया रिपोर्ट आने के बाद निर्मल बाबा पर भी कानूनी शिकंजा कस रहा है। इससे पहले भी कई बाबा और स्वामी कानून के लपेटे में आ चुके हैं। एक तरह से देखा जाए तो बाबा लोग इस देश की धार्मिक समस्या बनते जा रहे हैं। ऐसे बाबाओं की संख्या हजारों में है। लोगों की धर्मिक भावनाओं को अपने मन मुताबिक दिशा-निर्देशित करने के मामले में राधे मां, निर्मल बाबा या दक्षिण के पॉल दिनाकरण कोई अपवाद नहीं हैं। टीवी पर असंख्य देवी-देवता दर्शन देते हैं। इससे पहले भी लोग अपना बेड़ा पार लगाने के फेर में कई बाबा बदल चुके हैं। बाबा लोग भी धर्म से ज्यादा अपने कर्म और अध्यात्म से ज्यादा लोगों को सम्मोहित करने पर ध्यान देते हैं।
राधे मां और निर्मल बाबा तो बस बाबागीरी के इस कॉरपोरेट हब की एक कड़ी हैं। आशीर्वाद और कृपा के इस बिजनेस में ईश्वरीय शक्ति के ये तथाकथित अवतार महज एक प्रोडक्ट हैं और भक्त मूर्ख उपभोक्ता। कॉरपोरेटी किरपा की ये भगवान कंपनियां यह बिल्कुल किसी एमएनसी की तरह कामकाज करती हैं। निर्विवाद रूप से टीवी चैनलों की विज्ञापन नीति का अनुचित लाभ इन बाबाओं और देवियों को मिल रहा है। टीवी चैनलों को यह समझना चाहिए। राधे मां और निर्मल बाबा ही क्या किसी का भी भव्य और जगमगाता दरबार जब भी सजा हुआ देखता हूं तो बचपन में देखे गए मैजिक शो याद आ जाते हैं। जिसमें जादूगर अपना जादू दिखाने से पहले दावा करता था कि अब आप वही सुनेंगे जो मैं आपको सुनाऊंगा और अब आप बस वही देखेंगे जो मैं आपको दिखाऊंगा, और उसके बाद वो किसी बच्चे के मुंह से अंडा निकाल देता था, किसी लड़की का सिर धड़ से अलग कर देता था, कभी ऑडिटोरियम की छत गायब कर देता था और कभी ख़ुद को बक्से में बंद करके ना जाने कैसे लोगों के बीच से निकल आता था।
जादूगर के पिटारे में और भी ना जाने कितने हैरतअंगेज तमाशे होते थे। इन बाबाओं को तथाकथित समागम करते देखता हूं तो लगता है जैसे उन्ही में से कोई जादूगर बाबा या देवी बन गया है। किराए के सेलेब्रिटीज भी अपने सामाजिक उत्तरदायित्व को भूलकर इनके शो हिट करा रहे हैं। इन बाबाओं के राजनीतिक कनेक्शन की भी पड़ताल होनी चाहिए। राधे मां या निर्मल बाबा और उन जैसे तमाम बाबाओं के पास सिर्फ थर्ड आई वगैरह ही नहीं है, बल्कि करोड़ों की संपत्ति, कई व्यावसायिक प्रतिष्ठान, होटल और भी ना जाने क्या-क्या हैं। इनके भक्तों को देख और सुन कर ऐसा लगता है कि परेशानियों और संघर्षो के मारे लोगों की हिम्मत तो पहले ही जवाब दे चुकी थी, अब उनके स्वविवेक और आत्ममंथन पर भी बाबा का आसन पड़ चुका है। बाबा के एक इशारे पर भक्त हिंसा पर उतारू नहीं हो सकते इसकी भी कोई गारंटी नहीं है। एक अरसा पहले पत्थर की मूर्तियों को दूध पिलाकर भी हम जीवन के झंझावातों की वैतरणी पार करने का असफल प्रयास कर चुके हैं। इन बाबाओं के सत्संग और समागमों में आना उमंग और वहां से लौटकर आना आनंद की परिभाषा बन गया है। ये धार्मिक उन्माद है, जो हमसे अनदेखे ईश्वर और शक्तियों का स्केच तैयार करवा रहा है।
नतीजा यह है कि ईश्वर को भी लोग अपने मन-मस्तिष्क की आंखों से नहीं, बल्कि बाबाओं की थर्ड आई से देख रहे हैं। आत्मा की चिट्ठी परमात्मा तक पहुंचाने के लिए बाबा लोग ख़ुद को डाकिया प्रोजेक्ट कर रहे हैं, भगवान और भक्त के बीच कंनेक्शन की गांरटी पर कमीशन का खेल खेला जा रहा है। महाठग नटवरलाल ने सालों पहले एक अखबार को दिए अपने आखिरी इंटरव्यू में कहा था कि इस देश में मूर्ख बनने वालों की नहीं, मूर्ख बनाने वालों की कमी है। दरअसल लोगों के मतिभ्रम, मनोविकार और असमंजस की व्याकुलता को भुनाना भी एक कला है। राधे मां, निर्मल बाबा और उन जैसे तमाम बाबा दरअसल धर्म की नहीं, कॉरपोरेट जगत की पैदाइश हैं। वरना सोचने वाली बात है कि अपने आप को निमित्त मात्र बताने वाले इन लोगों के पास ये महल जैसे पंडाल, लक्जरी कारें, कई-कई बीघों में आश्रम, झाड़-फानूस, भवन, गुफाएं, सिंहासन और सेविकाएं कहां से आ जाती हैं। इतने भोग-विलास और सुविधा संपन्नता के बीच तो कभी ख़ुद भगवान भी नहीं रहे होंगे।
लेखक अनुराग मुस्कान पत्रकार हैं
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