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Rahul Gandhi: कसौटी पर राहुल गांधी

जागरण मेहमान कोना
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प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह राहुल गांधी के नेतृत्व में काम करने को तैयार हैं। इसके साथ ही उन्होंने एक और बात कही कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने के सर्वथा योग्य हैं। यह शिष्टाचार के नाते कही गई बात है या मनमोहन सिंह वास्तव में ऐसा करना चाहते हैं, यह उनके बयान से स्पष्ट नहीं हुआ। इस तरह की भाषा गांधी परिवार को जब सुनने की इच्छा हो तो इसे वफादारी माना जाता है और जब सुनने का मूड न हो तो चाटुकारिता। कांग्रेस के दिवंगत नेता अजरुन सिंह को इसका बखूबी अनुभव था। पर एक बात तो बिल्कुल स्पष्ट है कि मनमोहन सिंह का रिटायर होने का कोई इरादा नहीं है। देश अब तक दो लोगों के रिटायरमेंट की तारीख जानने के लिए बहुत उत्सुक था। सचिन तेंदुलकर और लालकृष्ण आडवाणी। इस कतार में अब मनमोहन सिंह भी खड़े हो गए हैं। तीनों से एक ही सवाल है कि आखिर कब तक? राहुल गांधी एक पहेली हैं जिसे बूझने की कोशिश कांग्रेस के साथ ही पूरा देश कर रहा है। क्या मनमोहन सिंह इस पहेली को बूझ गए हैं, क्योंकि उनके बयान को तीन दिन बीत चुके हैं, पर कांग्रेस की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। कांग्रेस के किसी प्रवक्ता ने उनके बयान का स्वागत करना तो दूर प्रतिक्रिया देने की भी जरूरत नहीं समझी। तो क्या मान लें कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने के लिए तैयार हो गए हैं? यह ऐसा सवाल है जिसका जवाब सोनिया गांधी और राहुल के अलावा कोई नहीं दे सकता, लेकिन राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की मांग का कोरस तेज होता जा रहा है।

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मंगलवार को दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने राहुल गांधी की मौजूदगी में उन्हें भविष्य का प्रधानमंत्री बताया। इसलिए यह मान लेना चाहिए कि 2014 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी कांग्रेस के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे।1दरअसल मनमोहन सिंह ने अपने को री-पोजीशन कर लिया है। उन्होंने अपने को लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज वाली स्थिति में खड़ा किया है। भाजपा की लोकसभा की दो सौ या उससे ज्यादा सीटें आईं तो नरेंद्र मोदी और कांग्रेस की इतनी आईं तो राहुल गांधी। कम आईं तो बाकी के लिए संभावना के द्वार खुलते हैं। प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए मनमोहन सिंह ने राहुल गांधी के नेतृत्व में या उनके मातहत काम करने की घोषणा करके बाकी प्रतिस्पर्धियों से अपने को आगे कर लिया है। वरना मनमोहन सिंह ने राहुल गांधी में ऐसा क्या देख लिया कि उनके जैसा व्यक्ति युवराज के नेतृत्व में भी काम करने को तैयार है। पिछले नौ साल में राहुल गांधी ने संसद में या संसद के बाहर ऐसा क्या किया है जिससे मनमोहन सिंह को यह उम्मीद बंधी है। कांग्रेस में गांधी परिवार के प्रति वफादारी सबसे ज्यादा पुरस्कृत होती है। इसके साथ एक और शर्त है कि आपकी बातों और कार्य व्यवहार से महत्वाकांक्षा नजर न आए। यह बात मनमोहन सिंह से बेहतर कौन समझ सकता है। इसलिए यह मानकर चलिए कि मनमोहन सिंह मौका आने पर प्रधानमंत्री के रूप में तीसरी पारी के लिए तैयार हैं।


अगला लोकसभा चुनाव नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी होने जा रहा है। इस वास्तविकता को दोनों पार्टियों के प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा पालने वाले नेताओं ने समझ लिया है और अब स्वीकार करने के लिए मजबूर हैं। सही है कि भारत में अमेरिका की तरह अध्यक्षीय प्रणाली नहीं है। इसके बावजूद पिछले दो दशकों में मतदाता चुनाव से पहले ही सरकार के संभावित मुखिया के चाल, चरित्र और चेहरे की जांच-पड़ताल कर लेना चाहता है। वह सिर्फ पार्टी के वायदे पर यकीन करने को तैयार नहीं है। वह जानना चाहता है कि पार्टी जो वायदा कर रही है वह निभाएगा कौन? भारत वैसे भी व्यक्तित्वों से प्रभावित होकर मतदान करने वालों का देश है। उसकी वजह है कि लोगों को पार्टी निगरुण और व्यक्ति सगुण नजर आता है। जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी अपनी पार्टियों के लिए एक तरह से भाग्यविधाता रहे। यह बात कांग्रेस के रणनीतिकारों को अच्छी तरह समझ में आ रही है इसीलिए उनकी पूरी कोशिश थी कि यह चुनाव मोदी बनाम राहुल न बनने पाए। कांग्रेस की यह कोशिश अब तक तो नाकाम ही रही है। मनमोहन सिंह के बयान से राहुल गांधी की उम्मीदवारी को लेकर छाया कुहासा और छंटा है।

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अब राहुल गांधी कम से कम 2014 के लोकसभा चुनाव तक आड़ में नहीं छिप सकते। उन्हें सामने आकर नरेंद्र मोदी से मुकाबला करना पड़ेगा। हार के डर से उनके रणनीतिकारों के लिए उन्हें पीछे रखने और लंबी चुप्पी के बाद कुछ बोलकर चौंकाने की रणनीति काम नहीं आने वाली। उन्हें कांग्रेस की सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों का जवाब देना होगा, क्योंकि चुनाव के समय केवल विरोधी ही नहीं मतदाता भी सवाल करता है और वह जवाब चाहता है चुप्पी नहीं। चुनाव के समय वैसे भी आचार-व्यवहार की कई वर्जनाएं टूट जाती हैं। इसलिए मोदी और राहुल गांधी, दोनों को ही व्यक्तिगत हमलों के लिए भी तैयार रहना होगा। राहुल गांधी की तुलना में नरेंद्र मोदी की राह आसान नजर आती है। उनके पास बारह साल का प्रशासनिक अनुभव है, गुजरात में किए विकास, मनमोहन सरकार के खिलाफ दस साल की एंटी इनकंबेंसी, भ्रष्टाचार, महंगाई, अर्थव्यवस्था की गिरती विकास दर जैसे मुद्दे प्रभावी चुनावी हथियार की तरह हैं। इसके बरक्स राहुल गांधी को इन सब सवालों पर जवाब ही देना है। उन्हें अपनी सरकार ही नहीं परिवार के एक सदस्य पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों का भी जवाब देना होगा। भाजपा और मोदी के विरोध में उनके पास 2002 के गुजरात दंगे और पंथनिरपेक्षता का सदा तैयार मुद्दा है, पर उत्तर प्रदेश में वह अपने पंथनिरपेक्ष सहयोगी समाजवादी पार्टी की सरकार की आलोचना करेंगे या बचाव? बिहार में लालू प्रसाद यादव का दामन थामेंगे या चुनाव बाद नीतीश कुमार के साथ आने का इंतजार। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हाल के दंगों के बाद दशकों पुराना जाट-मुस्लिम समीकरण टूट गया है। अब लोकसभा चुनाव के लिहाज से अजित सिंह की उपयोगिता के बारे में भी उन्हें सोचना पड़ेगा। ऐसे बहुत से सवाल कांग्रेस पार्टी के सामने मुंह बाए खड़े हैं। ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब टाला नहीं जा सकता। पार्टी चाहेगी कि राहुल गांधी आगे आकर इनका जवाब दें। पिछले नौ साल में तो राहुल गांधी ने ऐसी क्षमता का प्रदर्शन नहीं किया है। सिर्फ सरकारी योजनाओं से चुनाव जीते जा सकते तो कोई सत्तारूढ़ दल कभी हारता ही नहीं। चुनाव सरकारें नहीं पार्टियां लड़ती हैं। चुनाव के समय सत्ता पार्टी के लिए दुधारी तलवार की तरह होती है। मनमोहन सिंह की सरकार ने इस पारी में पार्टी को उबारने के बजाय डुबोने वाले काम ज्यादा किए हैं।

इस आलेख के लेखक प्रदीप सिंह हैं


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