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हत्यारों की फांसी पर सियासत

जागरण मेहमान कोना
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Mahesh parimalमद्रास हाईकोर्ट ने राजीव गांधी के हत्यारों की फांसी पर आठ हफ्ते के लिए रोक लगा दी है। तीनों दोषियों मुरुगन, संथन और पेरारिवलन को 13 साल पहले फांसी की सजा दी गई थी। 11 साल चार महीने से राष्ट्रपति के पास इनकी दया याचिका लंबित थी। इस पर इसी साल 11 अगस्त को फैसला हुआ था। इन्हें 9 सितंबर को फांसी पर चढ़ाया जाना था। अब मद्रास हाईकोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकार से पूछा है कि फांसी देने में इतना विलंब क्यों हुआ? सभी जानते हैं कि वोट की राजनीति के कारण दया याचिकाएं राष्ट्रपति के पास बरसों-बरस तक विचाराधीन रहती हैं। इस बीच याचिकाकर्ता की जेल में ही मौत हो जाती है या फिर वह मौत से भी भयंकर सजा भुगत चुका होता है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारे भी पिछले 11 वर्षो से जेल में बंद हैं। इस दौरान उन्होंने यातना का एक लंबा सफर तय किया है। जब तमिलनाडु में द्रमुक सरकार थी, उसने संप्रग के साथ गठबंधन कर रखा था। तब राष्ट्रपति ने राजीव गांधी के हत्यारों की दया याचिका में किसी तरह का फैसला लेने में जान-बूझकर देर की। अब वहां सत्ता परिवर्तन हो गया तो दया याचिकाओं पर फैसला हो गया। अब तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने उक्त तीनों की फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदलने वाला विधेयक विधानसभा में रखा है। अपने राजनीतिक कद का इस्तेमाल करते हुए जयललिता ने केवल वोट की राजनीति के कारण ऐसा किया है। कहीं इस फांसी से सांप्रदायिक दंगे न हो जाएं। यही हाल अफजल गुरु के मामले में भी हो सकता है।


कश्मीर घाटी को शांत रखने के लिए अफजल का जिंदा रहना जरूरी है। उसकी फांसी से कहीं मुस्लिम वोट हाथ से न निकल जाए, इसलिए उसकी सजा को भी लगातार टाला जा रहा है। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला इस मामले को अफजल को सामने रखकर देख रहे हैं। कांग्रेस हमेशा की तरह मौन है और भाजपा ने उमर के बयान को शर्मनाक बताया है। हमारे देश में हत्या के मामले में दोषी को फांसी की सजा दी जाए या नहीं, इस पर लंबे समय से बहस जारी है। हमारे न्यायाधीश ने जब देखा कि आरोपी ने बहुत ही जघन्य तरीके से हत्या की है तो उसे फांसी की सजा मुकर्रर करते हैं। सजा की घोषणा होते ही कई संगठन इसका विरोध करने लगते हैं। उनका मानना होता है कि सभी को अपनी जिंदगी जीने का हक है। यदि वह अपराधी है तो सजा देकर उसे सुधारने का प्रयास होना चाहिए। यदि उसमें सुधरने की इच्छाशक्ति दिखाई नहीं देती तो उसे उम्रकैद की सजा दी जा सकती है। इंसान की जिंदगी लेने का हक किसी को नहीं है। अब इन संगठनों को कौन समझाए कि शासन कानूनों से चलता है, आदर्शो से नहीं।


दूसरी ओर हमारे नेता सत्ता में रहकर किस तरह से रंग बदलते हैं, यह इसी बात से पता चलता है कि तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एम करुणानिधि ने राजीव गांधी के हत्यारों के पक्ष में यह कहा कि यदि आज राजीव गांधी जीवित होते तो इन्हें माफ कर देते। सीधी-सी बात है कि राजीव गांधी जीवित होते तो उक्त तीनों को फांसी देने का सवाल ही नहीं उठता। गांधीजी की हत्या के बाद नाथूराम गोडसे की फांसी की सजा माफ करने के लिए उसके समर्थकों ने यह दलील दी कि गोडसे को फांसी देना गांधीजी की विचारधारा के खिलाफ है। इसके बाद भी गोडसे को फांसी दी गई। वजह साफ थी कि शासन कायदा और कानून से चलता है, आदर्शो से नहीं। भारत की राष्ट्रपति फांसी की सजा पाने वाले किसी अपराधी की सजा मानवता के नाते रद करती हैं तो इसका विरोध नहीं हो सकता। यदि केंद्र सरकार यह चाहती कि राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी न हो तो उसे इस प्रकार का निर्णय वर्ष 2000 में ही कर लेना था। इस निर्णय को 11 साल तक लटकाने का कोई मतलब नहीं था। इसमें मानवता कम और राजनीति अधिक थी। 2001 में केंद्र में राजग की और तमिलनाड़ु में जयललिता की सरकार थी। तब उनके साथ राजनीतिक गठबंधन थे। इस कारण तीनों हत्यारों को फांसी पर लटकाने का निर्णय राजनीतिक विवशताओं के बीच लटक गया था। वर्ष 2004 में जब केंद्र में संप्रग सरकार आई तो उधर तमिलनाडु में करुणानिधि की सरकार बन गई। इनमें गठबंधन हो गया। इस कारण दया याचिका के निर्णय को टाल दिया गया। अब इस ढील का फायदा उठाते हुए राजीव गांधी के हत्यारों की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदल दिया जाता है तो एक गलत संदेश जाएगा।


राजीव गांधी के हत्यारों को बचाने के लिए देश के प्रसिद्ध वकील राम जेठमलानी ने हाईकोर्ट में एक धारदार दलील दी है कि देश में भी व्यक्ति को जल्द न्याय पाने का मूलभूत अधिकार है। उनकी दलील के अनुसार राष्ट्रपति ने उक्त तीनों हत्यारों की दया याचिका पर निर्णय लेने में देर की, इसलिए उन्हें 11 साल तक जेल में रहकर मानसिक पीड़ा झेलनी पड़ी। जेठमलानी के अनुसार इस मामले में राष्ट्रपति ने 11 वर्ष का विलंब किया है। साथ ही इसका कारण भी नहीं बताया जा रहा है। इसलिए इस मामले पर अधिक ध्यान दिए जाने की जरूरत है। दूसरी ओर यह दलील भी दी जा रही है कि सरकार को तमिलनाड़ु की जनता की आवाज सुननी चाहिए। लोगों की भावनाओं का खयाल रखते हुए उन्हें उम्रकैद की सजा दी जानी चाहिए। अब यदि उक्त तीनों हत्यारों को फांसी की सजा नहीं दी जाती तो लोगों का कानून से विश्वास उठ जाएगा। यदि इन तीनों की सजा को उम्रकैद में बदला जाता है तो इसका फायदा अफजल गुरु को भी मिलेगा। उसकी याचिका भी राष्ट्रपति के सामने है। किसी अपराधी को फांसी की सजा हो या न हो, यह विवाद का विषय हो सकता है, लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि किसी अपराधी को यदि अदालत ने सजा दी है तो उस सजा को लोगों की भावनाओं और वोट बैंक को ध्यान में रखकर रद नहीं किया जा सकता। इस मामले में राष्ट्रपति भवन की कार्यप्रणाली को ही दोषी माना जा सकता है? आखिर इतना लंबा वक्त क्यों लगता है कि पूरी पीढ़ी ही गुजर जाए, न्याय की आस में। कम से कम उन मामलों में तो न्याय तुरंत मिलना चाहिए, जो सीधे देश की सुरक्षा से जुड़े हों। मतलब यह कि देश की संसद पर हमला करने वाला भी यहां शान से जिंदा रह सकता है। फिर तो अपराधियों के हौसले बुलंद होने ही हैं। यह हौसला सरकार ही दे रही है। सरकार अपराधियों की पक्षधर है या फिर आम आदमी की?


लेखक महेश परिमल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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