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खाद्य वस्तुओं की महंगाई छह साल में पहली बार नकारात्मक हुई है। 24 दिसंबर को समाप्त हुए हफ्ते में यह -3.36 फीसदी तक गिर गई। तकनीकी रूप से भले ही यह खबर राहत देने वाली हो, लेकिन जमीनी हकीकत इसके उलट है। इसका कारण है कि महंगाई की गणना एक साल पहले के मुकाबले की जाती है। उदाहरण के लिए जनवरी 2011 में खाद्य पदाथरें की महंगाई दर 21 फीसदी थी। चूंकि यह आधार बहुत ऊंचा था इसीलिए महंगाई काफी कम नजर आ रही है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक प्याज 74 फीसदी तो आलू 34 फीसदी सस्ता हुआ है। भारी भंडार और अच्छे उत्पादन की संभावना के चलते गेहूं की कीमतें भी 3.4 फीसदी घटी हैं। लेकिन अप्रैल 2011 के खाद्य महंगाई के आंकड़ों से तुलना करें तो दूध व दाल 14 फीसदी, चावल 10-20 फीसदी, मांस व अंडे 20-25 फीसदी महंगे हुए हैं।
जनवरी 2011 के आंकड़ों से तुलना करने पर फलों में 10 फीसदी, दालों व अंडा-मांस में 14 फीसदी, दूध में 9.5 फीसदी और चावल की कीमत में लगभग डेढ़ फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई। दरअसल, महंगाई का सही आकलन तभी होगा जब उसकी तुलना वास्तविक मूल्य से की जाए। फिर खाद्य महंगाई में गिरावट का कारण आलू, प्याज, अदरक व हरी मिर्च की कीमतों में तेज गिरावट है जो कि फ्लश सीजन के कारण आई है न कि सरकारी नीतियों के चलते। जैसे ही सब्जियों की आवक कम होगी वैसे ही वे महंगी होने लगेंगी। दूसरे, महंगाई के आंकड़ों की गणना थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर की जाती है जबकि उपभोक्ताओं को खुदरा बाजार की कीमतें चुकानी पड़ती हैं। चूंकि भारत के आपूर्ति ढांचे में बिचौलियों की भरमार है इसलिए थोक मूल्यों में हुई गिरावट उपभोक्ताओं तक पहुंचते-पहुंचते नगण्य रह जाती है। यह भी देखना होगा कि खाद्य महंगाई के नकारात्मक होने के बाजवूद नवंबर महीने में सकल महंगाई दर 9.11 फीसदी पर बनी हुई है।
भले ही सरकार खाद्य महंगाई पर अपनी पीठ थपथपा रही हो लेकिन कुल महंगाई दर मार्च तक 7 फीसदी पर लाना उसके लिए आसान काम नहीं है। पिछले दो साल से सरकार इस लक्ष्य को हासिल करने की कोशिश कर रही है लेकिन उसे अब तक कामयाबी नहीं मिल पाई है। कच्चे तेल, औद्योगिक वस्तुओं की महंगाई और डॉलर के मुकाबले रुपये के मूल्य में गिरावट के साथ-साथ ऊंची ब्याज दरें अब भी महंगाई को खाद-पानी दे रही हैं। पिछले एक साल की तुलना में भले ही खाद्य महंगाई घटकर नकारात्मक हो गई हो लेकिन देश के बड़े शहरों के खुदरा बाजार से जुटाई गई जानकारी के मुताबिक इस दौरान खाने-पीने की वस्तुएं 21 से 22 फीसदी तक महंगी हुई हैं। दरअसल, महंगाई पर लगाम तभी लगेगी जब उत्पादन से लेकर आपूर्ति तक के मोर्चे पर दीर्घकालिक नीति बने। लेकिन उदारीकरण के दौर में सरकार का जोर बीज, उर्वरक, सिंचाई, भंडारण-वितरण जैसी सुविधाओं पर न होकर सब्सिडी व सस्ते ऋण बांटने तक सीमित रहा है। इसी का परिणाम है कि जो आलू-प्याज कभी उपभोक्ताओं के आंसू निकाल देते हैं उन्हीं को किसान सड़कों पर फेंकने के लिए बाध्य हैं। उत्पादन से बिक्री तक के मोर्चे पर व्यवस्थित नेटवर्क की कमी के कारण खेती घाटे का सौदा बन गई। इस घाटे की अभिव्यक्ति किसानों की आत्महत्याओं के रूप में हो रही है।
1995 से 2010 के बीच ढाई लाख से अधिक किसान खुदकुशी कर चुके हैं। खेती-किसानी की दीर्घकालिक नीतियों के अभाव का ही परिणाम है कि पैदावार के मोर्चे पर हम अब भी विश्व औसत से काफी पीछे हैं। चीन और भारत दोनों देशों की परिस्थितियां न सिर्फ एक जैसी हैं बल्कि 1970 के दशक तक दोनों पैदावार के मामले में लगभग एक जैसी स्थिति में थे। लेकिन उसके बाद चीन ने कृषि सुधारों के बल पर पैदावार के मोर्चे पर ऊंची छलांग लगाई, लेकिन भारत रेंगता रहा। इसका परिणाम यह रहा कि भारत की तुलना में कम कृषि योग्य भूमि के बावजूद चीन भारत से 40 फीसदी ज्यादा गेहूं और धान पैदा करता है।
लेखक रमेश दुबे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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