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नीयत पर नीति का पर्दा

जागरण मेहमान कोना
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नीति स्वयं पूर्ण नहीं होती। सही नीति का सही पालन और सही क्रियान्वयन भी जरूरी होता है। नीति और क्रियान्वयन की शुद्धता में ही जनकल्याण की गारंटी है। इसलिए नीति और क्रियान्वयन, दोनों का पारदर्शी होना जरूरी है। यही बात सीबीआइ के निदेशक रंजीत सिन्हा ने एक समारोह में कही, लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नीति की आड़ लेकर सीबीआइ को हदें बताईं। मंत्री चिदंबरम ने भी संस्थाओं को हड़काने की केंद्रीय नीति को आगे बढ़ाया और सीबीआइ व कैग पर नीतिगत फैसलों को अपराध में बदलने का आरोप लगाया। प्रधानमंत्री हद बताने के काम में हदें तोड़ने के विशेषज्ञ हैं। उन्होंने न्यायपालिका को भी हदें बताई थीं। महालेखाकार को हदें बताने के काम में पूरी सरकार जुटी ही हुई है। सीबीआइ को धमकाने की अपनी वजह हैं। सीबीआइ संवैधानिक स्वायत्त है नहीं। सरकार इसे हमेशा की तरह मनमाफिक इस्तेमाल करना चाहती है, लेकिन 2जी और कोयला घोटालों की जांच ने सरकार को कहीं का नहीं छोड़ा। कोयला जांच रिपोर्ट कानून मंत्री ने भी जांची। यह बात मीडिया में गई। कानून मंत्री पदत्याग को विवश हुए। फिर कोयला आवंटन में हिंडाल्को पर एफआइआर हो गई। प्रधानमंत्री कार्यालय ने बिड़ला कंपनी के कोल आवंटन को सही ठहराया, बात तो भी नहीं बनी। प्रधानमंत्री भी जांच के दायरे में हैं। वह स्वाभाविक ही गुस्सा हैं। इसीलिए सीबीआइ को ‘नीति शास्त्र’ पढ़ाया जा रहा है।1नीति निर्धारण का अधिकार बेशक प्रधानमंत्री की मंत्रिपरिषद का ही है, लेकिन इस नीति को लागू करना भी उसका कर्तव्य है। ब्रिटिश व्यवस्था में मंत्रिपरिषद को ‘नीति का चुंबक’ कहा जाता है।

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वही राष्ट्रीय प्रश्नों पर नीति निर्धारित करती है। मंत्रिपरिषद नीति निर्णयों को लागू करने के लिए जरूरी संसदीय कानून बनवाता है और प्रशासनिक विधि भी गढ़ता है। नीति काफी नहीं। क्रियान्वयन के लिए जरूरी कानून, नियम और तंत्र गढ़ना भी सरकार की ही जिम्मेदारी है। कानून मंत्री ने कोयला घोटाले की जांच रिपोर्ट पढ़ी। क्या यह मंत्रिपरिषद का सामूहिक निर्णय था? नहीं था, तो इस व्यक्तिगत फैसले को क्या प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति को सूचित किया? सूचित करते तो राष्ट्रपति अग्रिम आदेश देते कि इसे मंत्रिपरिषद में रखिए। कोयला आवंटन की नीति सरकार ने बनाई। इस नीति को लागू करने के लिए जरूरी विधि, नियम या उपनियम भी क्यों नहीं बनाए? कैग या पुलिस विधि स्थापित उपलब्ध नियमों के अधीन ही जांच/विवेचना करते हैं। 1सरकार की नीयत में ही खोट था। खोटी नीयत से ही खोटी नीति आई। सरकार की नीति ही कपटपूर्ण थी। इसीलिए भ्रष्टाचार हुआ। सरकार की सुस्थापित नीति यह है कि सीबीआइ जांचों को सरकार की सुविधानुसार ही चलना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने जांच का पर्यवेक्षण किया तो भी सरकारी नीति के अनुसार कानून मंत्री व एक संयुक्त सचिव ने हस्तक्षेप किया। प्रधानमंत्री कहेंगे कि जांच में हस्तक्षेप सरकारी नीति है और नीतिगत प्रश्नों को अपराध नहीं कहा जा सकता। आखिरकार आपराधिक कृत्य को भी नीति क्यों माना जाए? किसी कृत्य का अपराध कर्म होना कानून से तय होता है। कोयला आवंटन में कदाचार और भ्रष्टाचार हुआ है। प्रधानमंत्री का मासूम तर्क है कि फैसले में चूक को अपराध नहीं माना जा सकता। अंतरष्ट्रीय विधि शास्त्र में ऐसा कोई सिद्धांत नहीं है।


अपराध अपराध ही है। वह सोच समझकर युक्तिपूर्वक किया गया है तो गुरुतर है, बिना सोचे ही किया गया है तो भी कमतर नहीं है। बेशक केंद्र ने कोयला आवंटन में बाद के बवाल के आकलन में चूक की। उसे ऐसे बड़े संकट की कल्पना नहीं थी। प्रधानमंत्री जी! कोई भी नीति निरपेक्ष नहीं होती। हरेक देश की समाजनीति होती है। राजनीति भी होती है। राजव्यवस्था की दंडनीति होती है। अर्थनीति भी होती है। विदेशनीति भी होती है। कुल मिलाकर एक राष्ट्रनीति होती है। कोयला आवंटन के घोटाले को आप किस नीति में रखेंगे। प्रधानमंत्री के अनुसार यह सरकार का नीतिगत निर्णय है। इसलिए विधि सम्मत दंडनीति में आता नहीं। विपक्षी दल विरोध करते हैं, प्रधानमंत्री वित्तमंत्री के अनुसार यह वास्तविक राजनीति का मुद्दा नहीं। सरकार की अर्थनीति असफल है ही। जीडीपी रो रही है, आमजन प्याज रोटी भी नहीं खा सकते। विदेश नीति पर क्या टिप्पणी करें? अलगाववादी हमारी अपनी राजधानी में ही पाकिस्तानी प्रतिनिधियों से मिलते हैं। चीन आंखें तरेर रहा है। अमेरिका भारत की तुलना में पाकिस्तान को तवज्जो देता है। राष्ट्र नीति पर केंद्र का असमंजस मनमोहन है। अल्पसंख्यक वरीयता और बहुसंख्यक वर्ग की उपेक्षा राष्ट्रीय एकता पर दंश है। आंतरिक सुरक्षा राष्ट्रनीति का प्रमुख भाग है। माओवादी और इंडियन मुजाहिद्दीन जैसे संगठन राष्ट्र के लिए खतरा हैं। कुल मिलाकर यही वर्तमान नीतिशास्त्र है। 1राष्ट्रनीति राष्ट्ररीति का विस्तार होती है। कथनी और करनी में एका राष्ट्र-रीति और नीति है। संवैधानिक जनतंत्र संस्थाओं से चलते हैं। न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका, कैग आदि संवैधानिक संस्थाए हैं। संप्रग सबका अपमान करती है। सीबीआइ प्रतिष्ठित संस्था है। इसे स्वायत्त बनाने की मांग पुरानी है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मांग को बल दिया है, लेकिन इसकी वैधानिकता पर भी एक हाईकोर्ट ने सवाल उठाए हैं।


कायदे से प्रधानमंत्री को सीबीआइ के स्वर्ण जयंती समारोह में सीबीआइ को स्वायत्त बनाने की सरकारी नीति का खुलासा करना चाहिए था, लेकिन उन्होंने इसकी जांच प्रविधि पर ही हल्ला बोला। स्वायत्तता की बात को भी सिरे से खारिज कर दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय में सरकार द्वारा पेश हलफनामे में भी यही संकेत हैं। तोता जब तक मालिक के कहे अनुसार बोलता था तब तक बड़ा प्यारा था। अब उसी सुर में नहीं बोलता तो मालिक उसकी गर्दन मरोड़ने के मूड में हैं। क्या यही सरकारी नीति है? 1सीबीआइ को मजबूत और स्वायत्त बनाने का समय आ गया है। इसका गठन दिल्ली पुलिस स्पेशल स्टेब्लिसमेंट एक्ट की धारा 2 में वर्णित सरकारी अधिकार के अंतर्गत किया गया था। संबंधित प्रस्ताव में इस अधिनियम का उल्लेख भी नहीं है। गुवाहाटी हाईकोर्ट ने इसे असंवैधानिक बताया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश को रोक दिया है। सरकार को फौरी राहत ही मिली है, लेकिन सुनवाई चलेगी। सुप्रीम कोर्ट व देश सीबीआइ की स्वायत्तता चाहता है। सरकार को तत्संबंधी एक व्यापक विधेयक लाना चाहिए। इस विधेयक में स्वायत्तता, पूछताछ के लिए बुलाने या गिरफ्तारी के अधिकार सहित सभी पहलुओं को शामिल किया जाना चाहिए। सरकार सभी दलों से भी राय ले सकती है। बहुत संभव है कि गुवाहाटी कोर्ट के फैसले की सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट भी कुछ ऐसा ही निर्णय/सुझाव दे, लेकिन केंद्र की नीयत और नीति ऐसी नहीं है। वह नीति का परदा डालकर तोते की ही गर्दन मरोड़ रही है। तोता चिल्ला रहा है। चिदंबरम उसे रोने भी नहीं देते। वह कहते हैं कि सीबीआइ असहाय होने का ढोंग कर रही है, लेकिन असहाय सीबीआइ ही नहीं, घोटाले में फंसी केंद्र सरकार भी है। नीति के घूंघट में उसका विलाप इसी लाचारी का प्रतीक है।

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