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नेपाल में नेतृत्‍व परिवर्तन के निहितार्थ

जागरण मेहमान कोना
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Awdesh kumar दो करोड़ 86-87 लाख आबादी वाले हमारे महत्वपूर्ण पड़ोसी देश नेपाल की राजनीति कब क्या मोड़ लेगी, इसका आकलन बड़े-बड़े विशेषज्ञों के लिए भी अब कठिन हो गया है। माओवादी फिर से देश का नेतृत्व संभालेंगे, यह कुछ दिनों पहले तक दूर की कौड़ी नजर आ रही थी। नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी के बाबूराम भट्टराई इस समय देश के प्रधानमंत्री हैं और उन्हें नेपाली संसद में समर्थन उन सभी मधेसी दलों का है, जो माओवादी विरोधी रहे हैं और जिनके बीच स्वयं ऐसी एकता नहीं थी। जब 3 फरवरी 2011 को नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के झालनाथ खनाल ने माओवादियों के समर्थन से प्रधानमंत्री पद की शपथ ली तो वह भी एक अकल्पनीय घटना ही थी। माओवादी और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (नेकपा) नेपाल की राजनीति में एक-दूसरे के घोर विरोधी हैं। खनाल के पद पर रहते समय भी नेकपा के नेता माओवादियों को नेपाल के लिए सबसे बड़ी समस्या मानते रहे। इसलिए वहां कब कौन किसका साथ देगा और किसे छोड़ देगा, राजनीति किस करवट बैठेगी या लेटेगी कहना मुश्किल है। वस्तुत: भट्टराई अत्यंत कठिन परिस्थितियों में नेपाल के प्रधानमंत्री बने हैं। 10 अप्रैल 2008 के चुनाव के द्वारा संसद सह संविधान सभा का गठन हुआ। उसकी अवधि दो साल की थी।


इस बीच नेपाल के लिए संविधान का निर्माण हो जाना चाहिए था और उसके अनुसार नेपाल की नई राजनीतिक प्रणाली के तहत निर्वाचन और नई सरकार का गठन भी हो जाना चाहिए था। तीन साल में पांच प्रधानमंत्रियों के नेतृत्व में सरकारें बनीं। राजनीतिक अस्थिरता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है। जाहिर है, राजनीतिक दलों के आपसी मतभेद इतने गहरे हैं कि उनके बीच राष्ट्र के संवैधानिक पुनर्निर्माण के सवाल पर भी एकता स्थापित नहीं हो जाती। इसमें 24 दलों का प्रतिनिधित्व है और किसी को भी सरकार चलाने के लिए दूसरी विचारधाराओं एवं अपेक्षाओं वाले संगठनों का साथ चाहिए। संविधान निर्माण एवं उसकी स्वीकृति के लिए भी ऐसा ही है। राजनीतिक अनेकता मूलत: अविश्वास से पैदा होती है और इसकी जडें़ केवल वैचारिक मतभेद में नहीं, निजी और सामूहिक राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं, निहित स्वार्थ, दूसरे की श्रीवृद्धि से जलन आदि में निहित होती हैं। सच कहा जाए तो नेपाल इन्हीं का शिकार है। राजनीतिक मतभेद के पीछे किसी आदर्श वैचारिक आधार को ढूंढ़ना नासमझी होगी। आखिर नेपाल के बेहतर भविष्य के निर्माण से महान लक्ष्य क्या हो सकता है? साफ है कि भट्टराई को भी इस राजनीतिक अराजक मनोविज्ञान का सामना करना होगा। सच यह भी है कि माओवादी स्वयं नेपाल की संपूर्ण राजनीतिक गिरावट के साकार प्रतिबिंब हैं। माधव नेपाल की आम सहमति की सरकार के दौरान संविधान निर्माण में बाधाएं आने के ये मुख्य कारण थे। खनाल की सरकार इनके समर्थन से बनी, पर इस दौरान भी ये संविधान निर्माण की बाधा बने रहे तथा स्वयं सरकार का गला घोंट दिया। मधेसियों के अडि़यल रवैये को न्यायसंगत कहा जा सकता है, क्योंकि नेपाल के शासकों ने उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया है। मनुष्य की गरिमा के अनुरूप स्थान पाने के लिए मधेसियों ने लंबा संघर्ष किया और अप्रैल 2008 के चुनाव में वे एक प्रमुख शक्ति के तौर पर उभरे।


हालांकि मधेसी नेताओं में से अनेक ने नेतृत्व का आदर्श स्थापित करने की बजाय निजी हित एवं निजी महत्वाकांक्षाओं के वशीभूत अपनी भूमिका निभाई है, किंतु संविधान निर्माण न होने एवं सरकारों के समय पूर्व मृत्यु के मूल कारण माओवादी ही हैं। चुनाव के बाद प्रचंड के नेतृत्व में 15 अगस्त 2008 को गठित पहली सरकार 4 मई 2009 को अगर भंग हुई तो उसके पीछे भी मूल कारण वे स्वयं थे। सेना प्रमुख जनरल कटवाल को पद से हटाने के उनके निर्णय को राष्ट्रपति ने रोक दिया और प्रचंड ने विरोधस्वरूप इस्तीफा दे दिया तो वहां के राजनीतिक मनोविज्ञान एवं पृष्ठभूमि में भट्टराई सरकार को लेकर आशावादी होने का कोई ठोस आधार नजर नहीं आता। इस समय नेपाल के सामने सबसे बड़ा सवाल संविधान निर्माण का है। उच्चतम न्यायालय ने संसद की अवधि बढ़ाने की परंपरा डाल दी है। 28 अगस्त को संसद की कार्यकाल खत्म हो रहा थी, जिसे पुन: तीन माह के लिए बढ़ा दिया गया है। किंतु उच्चतम न्यायालय कब तक अवधि बढ़ता रहेगा? संविधान निर्माण नेपाल के लिए अंतहीन कथा हो गई है। आश्चर्य की बात यह कि जितनी चिंता हम-आप इसकी करते हैं, उतनी चिंता नेपाल के नेताओं को नहीं हैं। वे सब तो विचित्र किस्म के राहतपूर्ण जीवन का प्रदर्शन करते हैं। जो लोग एक बार जीत कर आ गए हैं, उनके लिए संसद की लंबी जिंदगी उपयुक्त है। संसद जितनी लंबी आयु तक जीवित रहेगी, ये उतने दिनों तक चुनाव में जाने से बचे रहेंगे। मधेसी पार्टियों ने स्वयं को खनाल सरकार से अलग रखा था, लेकिन धीरे-धीरे उनका मन बदला है और चारों प्रमुख मधेसी समूहों मधेसी जनाधिकार फोरम (लोकतांत्रिक), मधेसी जनाधिकार फोरम (गणतांत्रिक), तराई मधेस लोकतांत्रिक पार्टी और मधेसी जनाधिकार फोरम ने भट्टराई को सशर्त समर्थन दिया है। इनकी चार शर्ते हैं- संघीय राज्य का निर्माण, नेपाली सेना में मधेसी रेजीमेंट का निर्माण, मधेसी कार्यकर्ताओं पर से मुकदमा हटाने तथा मधेस क्षेत्र के विकास के लिए विशेष कोष का निर्माण। जाहिर है, भट्टराई इन शर्तो को पूरा नहीं करते तो उनकी सरकार बच नहीं पाएगी।


नेपाली कांग्रेस एवं नेकपा आज की स्थिति में उन्हें समर्थन देकर बचा नहीं सकते। इस प्रकार भट्टराई के सामने संविधान निर्माण के साथ पूर्व माओवादी लड़ाकों का पुनर्वास पहले से ही चुनौती थी, मधेसी समूहों की चारों शर्ते उन पर लद गई हैं। संभव है कि मधेसी रेजिमेंट के गठन के मोलभाव में इस बार भट्टराई अपने पूर्व लड़ाकों को सेना, पुलिस का भाग बनाने के लिए माओवादियों को तैयार कर पाएं। लेकिन इस पर राष्ट्रीय सहमति असंभव है। इसमें नेपाल को लेकर कोई भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। केवल आप वहां होने वाली घटनाओं के गवाह बन सकते हैं। नेपाल में राजनीतिक स्थिरता एवं संतुलित सरकार केवल उसके लिए नहीं, संपूर्ण दक्षिण एशिया की शांति एवं स्थिरता के लिए आवश्यक है। हमारी 1850 किलोमीटर सीमा उससे लगती है, जो उत्तराखंड से लेकर, बिहार, बंगाल और सिक्किम तक फैली है। इस नाते नेपाल से हमारी सुरक्षा गहराई से जुड़ी है, लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण दोनों देशों के लोगों का अनादिकाल से जुड़ाव है। दोनों देशों की संस्कृति और सभ्यता राजनीतिक रूप से बंटी होने, दो संप्रभु देश होने के बावजूद जनता के स्तर पर एक होने का साकार दृश्य प्रस्तुत करती है। नेपाल की अस्थिरता से भारत सीधे प्रभावित होता है। नेपाल की सीमा चीन के साथ भी 1414.88 किलोमीटर लगती है। चीन की चौकसी और अतिसक्रियता भारत के लिए चिंता का कारण बनी हुई है। भट्टराई ने दोनों देशों के बीच पंचशील सिद्धांत के आधार पर संतुलन बनाने की बात कही है, लेकिन यह छायावादी शब्दावली है, जिसका व्यवहार में कोई अर्थ नहीं। लेकिन नेपाल में इन दिनों भारत पर विस्तारवादी होने का आरोप लगाने वालों की संख्या बढ़ी है, जो कि हमारे संबंधों को आघात पहुंचा सकता है। इसलिए भारत को नेपाल की राजनीतिक प्रगति और भट्टराई की नीतियों पर चौकस नजर रखते हुए वहां बेहतर संविधान निर्माण के लिए विश्वसनीय प्रेरक की भूमिका निभानी होगी।



अवधेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं


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