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सुधार की जरूरत

जागरण मेहमान कोना
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आखिरकार कोल इंडिया लिमिटेड की बोर्ड बैठक में बिजली उत्पादक कंपनियों के साथ 20 अप्रैल तक ईंधन आपूर्ति समझौता (एफएसए) करने पर मुहर लग ही गई। इसके मुताबिक सीआइएल को कंपनियों की जरूरत का 80 फीसदी कोयले की आपूर्ति करनी है। यदि वह ऐसा नहीं कर पाती है तो उसे कुल मूल्य का 0.01 फीसदी जुर्माना देना होगा। कोयले की किल्लत से जूझ रहे देश के लिए यह शुभ समाचार है, लेकिन कोयला उत्पादन के मौजूदा हालात और बढ़ती मांग को देखें तो सीआइएल के लिए एफएसए की शतरें को पूरी करना आसान नहीं होगा। इसका कारण है कि उदारीकरण के दो दशकों के सफर में कोयला क्षेत्र में सुधार दूर की कौड़ी है। कोयला खनन से लेकर उसकी बिक्री तक पर सरकार का एकाधिकार बना हुआ है जिसका परिणाम कोयला उत्पादन की धीमी रफ्तार के रूप में सामने आ रहा है। वैसे इसके लिए कई और कारण रहे हैं जैसे अवैध खनन, भूमि अधिग्रहण, पर्यावरण, नक्सलवाद, रेल रोको आंदोलन आदि।


गौरतलब है कि 2011-12 में 65 करोड़ कोयले की जरूरत थी, लेकिन उत्पादन हुआ महज 53 करोड़ टन। इस प्रकार मांग और पूर्ति की भरपाई के लिए 8 करोड़ टन कोयले का आयात करना पड़ा। कोयला आपूर्ति में कमी का सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव बिजली उत्पादन पर पड़ा क्योंकि अधिकतर बिजली परियोजनाएं कोयला आधारित हैं। फिर आयातित कोयला महंगा पड़ रहा है। इसी को देखते हुए बिजली उत्पादक कंपनियों ने प्रधानमंत्री कार्यालय से हस्तक्षेप का अनुरोध किया जिस पर पीएमओ ने पुलक चटर्जी की अध्यक्षता में एक समिति गठित की। समिति की सिफारिशों के आधार पर पीएमओ ने कोल इंडिया लिमिटेड को आदेश दिया कि वह 31 मार्च, 2012 तक बिजली कंपनियों के साथ एफएसए करे। लेकिन तय समयसीमा के भीतर सीआइएल द्वारा करार नहीं किए जाने पर सरकार ने 3 अप्रैल, 2012 को एक प्रेसिडेंसियल डायरेक्टियव जारी किया। इसी आदेश के चलते सीआइएल ने एफएसए करने में जल्दी दिखाई।


विशेषज्ञों के मुताबिक एफएसए करने से सीआइएल पेशेवर तरीके से काम करेगी जिससे कोयला उत्पादन में तेजी आएगी। लेकिन कोयला क्षेत्र में भ्रष्टाचार की लंबी परंपरा को देखें तो इस लक्ष्य को पूरा होने में संदेह है। गौरतलब है कि निजी कोयला खदानों में मजदूरों के शोषण और भ्रष्टाचार को देखकर ही 1973 में इंदिरा गांधी ने इस क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण किया था, लेकिन 1995 से सरकारी एकाधिकार वाली कंपनी कोल इंडिया ने भी ठेके पर कोयला खनन शुरू कर दिया, जिससे यहां भी भ्रष्टाचार और शोषण का सिलसिला शुरू हो गया। उदारीकरण के दौर में कोयला खनन में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के एकाधिकार को समाप्त करने और उत्पादन बढ़ाने के लिए सरकार ने 1993 से 2009 के बीच कोयला ब्लॉक आवंटित किए थे।


इन ब्लॉकों में करीब 3500 करोड़ टन कोयला भंडार होने का अनुमान था। इसमें से ज्यादातर ब्लॉंक निजी क्षेत्र की कंपनियों को दिए गए थे। अब आरोप लग रहे हैं कि सरकार ने इन कंपनियों को बेहद कम कीमत पर कोयला ब्लॉक आवंटित कर उन्हें मोटा मुनाफा कमाने में मदद की। बाद में कई कोल ब्लॉकों का आवंटन इस आधार पर रोक दिया गया कि वे प्रतिबंधित क्षेत्र में आ रहे थे। इसी तरह 155 कोल ब्लॉकों के आवंटन में तय प्रक्रिया की अनदेखी का आरोप लगा। कोयला खनन का लाइसेंस लेने वाली दो दर्जन से ज्यादा ऐसी कंपनियां हैं जिन्हें न तो ऊर्जा क्षेत्र का कोई अनुभव है और न ही कभी खदान से कोयला निकालने का। इसीलिए कोयला ब्लॉक आवंटित करने की नीति विफल रही। कोयला क्षेत्र में भ्रष्टाचार की परंपरा को देखते हुए जरूरत इस बात की है कि कोल ब्लॉक की नीलामी के लिए एक पारदर्शी नीति अपनाई जाए और सिर्फ चुनिंदा सीमेंट, बिजली और स्टील कंपनियों को ही कैप्टिव कोल ब्लॉक आवंटित होने चाहिए।


लेखक रमेश दुबे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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