Menu
blogid : 5736 postid : 3075

म्यांमार से दोस्ती के मायने

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

1886 से 1939 तक ब्रिटिश भारत का हिस्सा रहने के बावजूद बर्मा सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण देश रहा है, लेकिन 1963 के बाद से दोनों देशों के सम्बंधों में एक ठहराव सा आ गया। सामरिक लिहाज से म्यांमार के साथ भारत का मैत्री और सदभावपूर्ण संबंध जरूरी है। म्यांमार के सक्रिय सहयोग के बिना मणिपुर, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश में शांति कायम करना मुश्किल है। भारत, बर्मा की आजादी का प्रमुख समर्थक था और 1948 में ब्रिटेन से आजादी पाने के बाद सबसे पहले भारत का राजनयिक संबंध कायम हुआ। जब बर्मा क्षेत्रीय विद्रोहों से निपट रहा था तब भारत ने उसकी काफी मदद की। बाद में सैन्य शासक जुंटा द्वारा लोकतांत्रिक सरकार का तख्ता पलट के बाद दोनों के संबंधों में खटास पैदा हो गया। भारत ने लोकतंत्र के दमन की निंदा की जिससे बर्मा दुनिया में अलग-थलग पड़ गया। केवल चीन ने ही बर्मा के साथ निकट संबंध कायम रखे। 1987 में जब भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी म्यांमार गए तब संबंधों में सुधार आया, लेकिन 1988 में जुंटा द्वारा लोकतांत्रिक आंदोलन के हिंसक दमन के बाद संबंध फिर खराब हो गए। 1993 के बाद पीवी नरसिंहाराव और अटल बिहारी वाजपेयी ने संबंध सुधारने के प्रयास किए। इस तरह क्षेत्रीय नेता के रूप में चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने की कोशिश की गई। दोनों देशों के संबधों में सुधार आने से म्यांमार का दुनिया से अलगाव घटा और चीन पर म्यांमार की निर्भरता कम हुई।


भारत म्यांमार के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति अपना रहा है। इसी नीति के तहत भारत ने कहा है कि म्यांमार के लोगों को खुद ही लोकतंत्र हासिल करना होगा। एशिया में चीन के प्रभाव को संतुलित करने के लिए भारत की लुक ईस्ट नीति का असर दिखने लगा है। इस वर्ष अक्टूबर में म्यांमार के राष्ट्रपति थिएन सिएन भारत यात्रा पर आए। यात्रा इसलिए महत्वपूर्ण थी कि संसदीय चुनावों के बाद अप्रैल में राष्ट्रपति पद संभालने के बाद सिएन ने चीन और जकार्ता की यात्रा की थी। यात्रा के महत्व को इस बात से भी समझा जा सकता है कि आने से कुछ दिन पहले ही म्यांमार ने एक चीनी कंपनी द्वारा बनाए जा रहे 36 अरब डालर की लागत वाले एक विवादास्पद बांध को रोकने की घोषणा की। दरअसल, म्यांमार को समझ में आ गया है कि उसे पूरी तरह चीन की झोली में जाता हुआ नहीं दिखना चाहिए। उसने बीजिंग पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए पश्चिमी देशों से संबंध सुधारने भी शुरू कर दिए हैं।


चीन के साथ म्यांमार की निकटता इसलिए बढ़ रही थी कि भारत ने म्यांमार में बुनियादी ढांचे के विकास और उसके प्राकृतिक संसाधनों का फायदा उठाने की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया, लेकिन अब वह इस असंतुलन को दूर करना चाहता है। अक्टूबर-मध्य में भारत ने म्यांमार के पश्चिमी राखिने राज्य में सिट्टवे बंदरगाह के विकास की योजनाओं के बारे में गंभीर है। एस्सार ग्रुप ने बंदरगाह पर निर्माण कार्य शुरू कर दिया है और 2013 तक इसके पूरा होने की योजना है। इससे भारतीय जहाज अपना माल पूर्वी कोलकाता बंदरगाह से सिट्टवे भेज सकेंगे। भारत मणिपुर राज्य से म्यांमार के रास्ते थाईलैंड तक एक सड़क मार्ग विकसित करने की भी योजना बना रहा है। दोनों देश 2015 तक आपसी व्यापार को 3 अरब डॉलर का करने पर सहमत हुए हैं। चीनी रणनीतिकार म्यांमार को बंगाल की खाड़ी और उससे आगे के समुद्र के लिए एक पुल के रूप में देखते हैं। अगर ऐसा होता है और चीन म्यांमार पर कब्जा जमा लेता है तो वह अमेरिका से भी अधिक ताकतवर बन सकता है। अब म्यांमार को यह बात समझ में आने लगी है कि भारत की मदद से ही वह महत्वाकांक्षी चीन से निपट सकता है। अगर वह ऐसा नहीं करता तो उसके लिए और भारत के लिए विनाश का दिन दूर नहीं है।


लेखक वाइसी हलन स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh