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पूरी दुनिया के हैं गांधीजी

जागरण मेहमान कोना
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इस माह के शुरू में जब यह खबर फ्लैश हुई कि महात्मा गांधी का एक गोल फ्रेम वाला चश्मा, उनका एक चरखा, कुछ पत्र और बापू के खून से सनी चुटकी भर मिट्टी 17 अप्रैल को ब्रिटेन में नीलामी होगी तो भारत में तमाम गांधीवादियों ने इस पर विरोध जताना शुरू कर दिया। यह वाकई वीभत्स है कि उस खून आलूदा मिट्टी को बचाकर रखा जाए, जिसमें महात्मा गांधी को गोली लगने के बाद उनके खून की कुछ बूंदें गिरी थीं और उस खून सनी सूखी मिट्टी को अब किसी धरोहर के रूप में नीलाम किया जाए। पूंजीवाद की यह सबसे निर्मम, भावहीन और कदाचित हिंसक प्रवृत्ति है कि वह हर गतिविधि को कारोबार बना देता है। चाहे वह भावनाओं को व्यक्त करने का नजरिया हो या किसी को याद करने का और उसके प्रति अपनी आत्मीयता प्रकट करने का तरीका हो। यह नीलामी भी इसी प्रवृत्ति का विस्तार है। ऐसा नहीं है कि जो व्यक्ति बापू से जुड़ी नीलाम होने वाली चीजों को खरीदेगा, वह अहिंसा के इस महान व्यक्तित्व से प्रभावित नहीं होगा या उन्हें आदर्श के रूप में नहीं देख रहा होगा।


बाजार में बिक रहे बापू


लेकिन पूंजीवादी श्रद्धा या भक्ति प्रदर्शित करने का तरीका यही है कि उसे भी कारोबारी गतिविधि का रूप दे दिया जाए। यह नीलामी योजना के मुताबिक मुलॉक्स ने आयोजित की और उसकी उम्मीद के मुताबिक इस नीलामी से 1 लाख पाउंड की रकम एकत्र हो गई। हालांकि नीलाम करने वाली संस्था ने महात्मा गांधी के खून से सनी मिट्टी, उनके कुछ दस्तावेजी पत्रों और उस सूखी घास जिस पर गांधीजी के खून की बूंदे गिरी थीं, की कीमत 10 से 15 हजार पाउंड तक ही आंक रही थी। यह शर्म और तरस खाने की बात है कि भावनाओं की कीमत भी निश्चित की गई और फिर उस निश्चित कीमत में भी उससे ज्यादा के फायदे का अनुमान लगाया गया। यानी नीलाम करने वाली संस्था पहले तो यह मान रही थी कि गांधीजी से जुड़ी इन विशिष्ट धरोहरों की कीमत बहुत ज्यादा नहीं है और फिर यह मानते हुए भी उस कीमत से कई गुना ज्यादा हासिल करने का अनुमान लगाया। यह घोर बेशर्मी है। इसलिए भारत या दुनिया में कहीं भी गांधीवादी अगर इस बात के लिए आंदोलन कर रहे हैं या प्रदर्शन कर रहे हैं कि नीलामी रद्द हो तो इसमें कुछ गलत नहीं है। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है, बल्कि सच तो यह है कि इस दूसरे पहलू के भी दो पहलू हैं। पहली बात तो यह है कि कुछ लोग चाह रहे हैं कि गांधीजी के जिन सामानों की नीलामी हो रही हो, उसे आगे बढ़कर भारत सरकार ज्यादा से ज्यादा कीमत देकर खरीद ले, जबकि इस नीलामी का विरोध करने वाला एक दूसरा वर्ग इसे राष्ट्रवादी भावनाओं से जोड़ रहा है। उसके मुताबिक गांधी भारतीय हैं, इसलिए भारत को इस तरह की किसी भी नीलामी का विरोध करना चाहिए। यह भारत का अपमान है। राष्ट्रपिता होने के नाते महात्मा गांधी भारत के सबसे बड़े और पहले प्रतिनिधि हैं।


इस नीलामी का विरोध करने वाला जो दूसरा तबका है, वह राष्ट्रवाद में आर्थिक हैसियत की परत तो नहीं चढ़ा रहा, लेकिन कुछ न कुछ कह ऐसा ही रहा है। यह दूसरा वर्ग इसलिए इस नीलामी को रोकना चाहता है कि उसे लगता है कि इससे भारत की एक महान शख्सियत का अपमान हो रहा है। यह तबका इस नीलामी को पूरी तरह से भारत बनाम गैरभारतीय हरकत का रंग दे रहा है। इसके विरोध का संदेश यह है कि गांधीजी चूंकि हमारे हैं, गांधीजी चूंकि भारत के हैं, इसलिए गांधीजी पर कोई भी फैसला सिर्फ हम ही करेंगे। दुनिया गांधी के बारे किसी प्रकार के भाव, विचार या प्रतिक्रिया न व्यक्त करे। यह कठमुल्ला सोच है। गांधी महान विचारक, महान व्यक्तित्व थे। ऐसे विचारक और ऐसे व्यक्तित्व पूरी दुनिया के होते हैं। उनमें किसी देश, किसी दौर की बपौती नहीं होती। यह तो हमारा सौभाग्य था कि गांधी भारत में पैदा हुए और अपनी तमाम सेवाएं, अपनी तमाम कोशिशें भारत को आजाद कराने, उसे एक बेहतर समाज में ढालने के लिए दीं। लेकिन कोई कहे कि कार्ल मा‌र्क्स जर्मनी में पैदा हुए थे, इसलिए उन पर कॉपीराइट जर्मनी का बनता है तो यह हास्यास्पद ही होगा या कोई कहे मा‌र्क्स यहूदी थे तो यहूदी ही तय करेंगे कि उनकी विचारधारा का विस्तार कहां तक हो, यह हास्यास्पद होगा। इसी तरह गांधी पर हमारी यह बपौती अच्छी नहीं है। गांधी पूरी दुनिया के हैं। उन्हें पूरी दुनिया का बने रहने दीजिए। अगर गांधी का अपमान हो रहा है तो सिर्फ हमें चिंता करने की जरूरत नहीं है। पूरी दुनिया के लोगों को यह चिंता करनी है। अगर गांधी का सम्मान हो रहा है, कोई उनकी व्यक्तिगत चीजें खरीदकर अपनी भावनाएं प्रकट करना चाहता है तो उसे ऐसा करने दें। गांधी सबके हैं।


लेखक लोकमित्र स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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