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भूमंडलीकरण के इस युग में सबसे ज्यादा प्रभावित आज का मेहनतकश वर्ग ही है। सरकार की नई आर्थिक नीतियों के तहत सार्वजनिक क्षेत्र के कई बड़े उद्योग घाटे के कारण बंद कर दिए गए तो कुछ को निजी हाथों में सौंप दिया गया। इन उद्योगों में कार्यरत अधिकांश मजदूरों को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना के तहत पहले ही मुक्त कर बेरोजगार कर दिया गया। आज इनके परिवारों के सामने रोटी का संकट है। इस दिशा में मजदूरों के हित में बने संगठन भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं। हालात ऐसे हैं कि मजदूर संगठनों की आवाज भी नहीं सुनी जा रही। इसका ताजा उदाहरण हाल में देश के सभी मजदूर संगठनों द्वारा सरकार की मजदूर विरोधी नीतियों एवं बढ़ती महंगाई के खिलाफ एक दिन की आम हड़ताल थी। लेकिन सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ा। इस हड़ताल में पहली बार देश के सभी श्रमिक संगठन शामिल हुए तथा औद्योगिक क्षेत्रों, सार्वजनिक बैंकों में हड़ताल शत-प्रतिशत सफल रही। आज के बदलते परिवेश में देश के श्रमिक संगठनों को श्रमिकों के हित में अपनी कार्यशैली एवं तौर-तरीके बदलने होंगे।
श्रम, श्रमिक, श्रमिक संगठन एवं श्रमिक दिवस एक दूसरे के पूरक है। श्रमिक श्रम करता है और उसके हित की रक्षा एवं सामाजिक सुरक्षा बहाल करने के दायित्व का भार श्रमिक संगठन लेता है। श्रमिक दिवस श्रमिकों के लिए राष्ट्रीय त्योहार जैसा है। इस दिन दुनियां के श्रमिक संगठन जगह-जगह समारोह आयोजित कर श्रमिकों के मौलिक अधिकार को बताने का प्रयास करते हैं। वर्तमान समय में देश में श्रमिक हित हेतु गठित मुख्य तौर पर अखिल भारतीय स्तर के चार-पांच श्रमिक संगठन हैं जिनमें प्रमुख हैं भाकपा की नीतियों से जुड़ी अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस यानी एटक, माकपा से जुड़ी सेंटर ऑफ ट्रेड यूनियन यानी सीटू, कांग्रेस की छत्रछाया में भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस यानी इंटक तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं भाजपा के विचारधारा से जुड़ी भारतीय मजदूर संघ यानी बीएमएस है। इसके अलावा इन विभिन्न संगठनों के बीच कई बार स्वार्थ के वशीभूत होकर आपसी मतभेद भी देखने को मिले। इनमें से अनेक पुराने श्रमिक संगठन भी अपनी भूमिका निभा रहे हैं जिनमें हिंदुस्तान मजदूर पंचायत, हिंदुस्तान मजदूर सभा, किसान ट्रेड यूनियन आदि। इन पर भी किसी न किसी राजनीतिक दलों की छाया और विचारधारा विराजमान है। श्रमिकों के हित का संकल्प लेने वाले ये श्रमिक संगठन देश के मजदूरों को कभी भी एक मंच पर नहीं आने देते। देश के प्राय: सभी संगठन एक मई को मजदूर दिवस के रूप में मनाते है पर संगठन का एक मंच न होना मई दिवस की प्रासंगिकता को कुछ मायनों में नकारता भी है। इसी परिवेश के कारण आज यहां का श्रमिक वर्ग दिन पर दिन शोषण का शिकार होता जा रहा है। इससे श्रमिकों के हित की सुरक्षा खतरे में पड़ रही है तथा पूंजीवादी व्यवस्था उन पर हावी हो रही है।
देश में जब कभी भी श्रमिकों के हित में श्रमिक संगठनों द्वारा व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन की बात उठी तब-तब अलग-अलग खेमे में बंटे होने के कारण बड़े आंदोलनों को सफलता नहीं मिल पाई है। इन सबके कारण श्रमिकों की समस्या आज भी ज्यों की त्यों रह गई है। जब कभी भी देश में श्रमिक संगठनों के बीच इस दिशा में एक होकर आवाज उठी है वह आवाज परिवर्तन का कारण बनी है। इस बात का इतिहास भी साक्षी है, परंतु इस तरह की स्थिति कभी-कभी ही बन पाती है। आर्थिक उदारीकरण के कारण आज संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों के श्रमिक प्रभावित हो रहे हैं। इस नीति के कारण देश के उद्योग-धंधों पर प्रतिकूल प्रभाव तो पड़ ही रहा है, भारतीय अर्थव्यवस्था भी चरमरा रही है। लाखों लोगों को रोजगार देने वाले सार्वजनिक प्रतिष्ठान धीरे-धीरे बंद होने के कगार पर खड़े होते दिखाई दे रहे हैं।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बाढ़ ने सामान्य मजदूरों का जीना ही मुश्किल कर दिया है। नए श्रमिक कानून के फंदे में श्रमिकों को फंसाने की आज साजिश हो रही है। सामाजिक सुरक्षा नाम की कोई चीज ही नहीं है और पूंजीवादी व्यवस्था की मनमर्जी की दास्तान लिखी जा रही है। कारपोरेट कंपनियों में छंटनी के फलस्वरूप बदलाव साफ दिखाई देने लगा है। इन गतिविधियों के कारण लाखों लोगों के बेकार होने की संभावनाएं उभर चली हैं। यह समस्या सभी प्रकार के श्रमिक वर्गो के सामने है। इस बात को अब धीरे-धीरे सभी श्रमिक संगठन समझने तो लगे हैं परंतु अलग-अलग रंग में रंगे होने के कारण एक मंच पर उनका खड़ा हो पाना संभव नहीं जिस कारण मई दिवस की प्रासंगिकता भी धूमिल हो रही है।
लेखक भरत मिश्र प्राची स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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