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यह सरकार का काम नहीं है

जागरण मेहमान कोना
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Anjali Sinhaकेंद्र सरकार ने कहा है कि वह सब्सिडी नीति में बदलाव जाएगी। पहले पांच साल बाद हज यात्रा करने पर सब्सिडी दी जाती थी। अब एक व्यक्ति को जीवन में एक बार ही हज यात्रा के लिए सब्सिडी दी जाएगी। प्राथमिकता उन्हें दी जाएगी, जो पहली बार यात्रा पर जा रहे हैं। पिछले दिनों अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि प्रस्तुत सब्सिडी का लाभ उठाकर राजनेताओं और नौकरशाहों के हज यात्रा पर जाने की व्यवस्था तुरंत समाप्त की जाए। ज्ञात हो कि भारत सरकार द्वारा एक सद्भावना प्रतिनिधि मंडल हज यात्रा पर भेजा जाता रहा है, जिसका उद्देश्य हज यात्रा के दौरान देश की छवि का प्रचार-प्रसार करना रहा है। इसे भारत-पाक युद्ध (1967) के बाद सरकार ने शुरू किया था, क्योंकि कहा गया था कि पाकिस्तान इस यात्रा का फायदा उठाकर भारत विरोधी भावना को भड़काता है। पहले इस सद्भावना प्रतिनिधिमंडल में 30 सदस्य भेजे जाते थे, जिनकी संख्या अब दस कर दी गई है। कोर्ट का कहना है कि अब सरकार को इस परंपरा को समाप्त करना चाहिए।


धार्मिक यात्राओं पर सब्सिडी का औचित्य


जस्टिस आफताब आलम और जस्टिस रंजना देसाई की खंडपीठ ने यह बात कही है। हालांकि अदालत ने सद्भावना प्रतिनिधिमंडल के संदर्भ में यह बात कही है और उसकी गलत पात्रता का मुद्दा उठाया है या सरकार जीवन में एक बार हज सब्सिडी की बात कर रही है, मगर मुद्दा तो इसके आगे का है। दरअसल, मामला गलत या सही पात्रता का नहीं है, बल्कि यह पूछे जाने का है कि इस देश की सरकार जनता के टैक्स के पैसे से सब्सिडी देकर लोगों को धार्मिक यात्रा क्यों करवा रही है। यह सवाल किसी भी धर्म के संदर्भ में उठता है कि क्या यह सरकार का काम है कि वह लोगों का स्वर्ग सुधारे? वह हज यात्रा करवाए, वह कुंभ मेले पर खर्च करे या कुछ मंदिरों तक जाने के लिए स्पेशल ट्रेन या विशेष सुविधाएं मुहैया करवाए। पर पूछा तो यह जाना चाहिए कि लोग धार्मिक यात्रा करें या न करें, इससे हमारी इस पंथनिरपेक्ष सरकार को लेना-देना क्यों होना चाहिए? धर्म और आस्था लोगों का निजी मसला है, उस पर सरकार क्यों नीति बनाने लगी? लेकिन सरकारों के पास इतनी दृढ इच्छा नहीं है कि वे मजबूत स्टैंड ले सकें। हज यात्रा को लेकर हमेशा राजनीति की जाती रही है और मुस्लिम समुदाय के लोगों के साथ दिखावटी पक्षधरता के लिए होड़-सी मची रहती है। मामला न सिर्फ हज यात्रा का है, बल्कि अन्य तीर्थस्थानों की यात्रा के लिए सब्सिडी या सुविधाएं प्रदान करने का है।


चूंकि हमारे यहां अलग-अलग समुदायों के वोटों पर कब्जा बनाए रखने के लिए राजनीतिक दलों के बीच होड़ मची रहती है, इसलिए यहां पर भी प्रतियोगिता चलती है। याद रहे कि पाकिस्तान स्थित पुराने कटासराज मंदिर की यात्रा कराने के लिए भी मध्य प्रदेश सरकार ने सब्सिडी की घोषणा कर रखी है। हालिया खबरों के मुताबिक तो मिशन-2013 की तैयारी में जुटी इस सरकार ने घोषणा की है कि वह इस साल एक लाख बुजुर्गो को तीर्थ यात्रा कराएगी। ध्यान रहे कि इस मुख्यमंत्री तीर्थाटन योजना में सभी धर्मो के श्रद्धालु शामिल किए जाएंगे। इस साल इस योजना पर 20 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। यह वही सरकार है, जो बुजुर्गो को दी जाने वाली पेंशन में मामूली बढ़ोतरी करने में कई सालों से संकोच कर रही है। कंुभमेला भारतीय जीवन का अनिवार्य अंग बन गया है, जिसमें करोड़ों लोग एकत्रित होते हैं। जिला प्रशासन इसके लिए महीनों से तैयारी करता रहता है। यह विचारणीय है कि प्रशासन तथा सरकार के पास एकत्रित संसाधन कहां से आते हैं? वह जनता द्वारा दिए गए करों पर ही आधारित होता है, जिसका बड़ा हिस्सा साधारण जनता के जेब से ही जाता है। जिस पैसे को नागरिक सुविधाओं पर खर्च किया जाना चाहिए, उसे अगर विशिष्ट धार्मिक आयोजनों पर खर्च किया जाए, यह बात कहां तक वाजिब है। जिस काम को लोग अपनी-अपनी आस्था के अनुरूप करते हैं, वह जिम्मेदारी लोगों के टैक्स के पैसे से क्यों उठाई जाए। जो राशि शिक्षा, स्वास्थ्य या अन्य तमाम विकास कार्यो पर खर्च की जानी चाहिए, उसे लोगों के पुण्य और मोक्ष प्राप्ति जो सिर्फ उनकी जरूरत है, उस पर क्यों खर्च करना चाहिए? एक सेक्युलर कहे जाने वाले देश में क्या सरकारों का यही काम रह गया है कि कुंभमेला के वक्त लोगों के पवित्र स्नान का इंतजाम किया जाए, हज के लिए हवाईयात्रा के टिकट में छूट दे दे।


लेखिका अंजलि सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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