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होम करते हाथ जले

जागरण मेहमान कोना
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धार्मिक आयोजनों में जताई जाने वाली श्रद्धा और भक्ति से यह आशय कतई नहीं निकाला जा सकता कि वाकई इनमें भागीदारी से इहलोक और परलोक सुधरने वाले हैं, बल्कि जिस तरह से धार्मिक स्थलों पर हादसे घटने का सिलसिला शुरू हुआ है, उससे तो यह साफ हो रहा है कि हम इनमें शिरकत कर अपने सुरक्षित जीवन को ही खतरे में डाल रहे हैं। विश्व में सद्भावना और शांति के लिए हरिद्वार में गायत्री परिवार द्वारा आयोजित विशाल यज्ञ में हुए हादसे से तो यही संदेश जनमानस में गया है। पं. श्रीराम शर्मा जन्मशताब्दी महोत्सव के अवसर पर 1551 यज्ञ बेदियों में अपनी आहुति देने देश के कोने-कोने से ही नहीं, दुनिया के 80 देशों से श्रद्धालु आए थे। हादसे के दिन ही इनकी संख्या करीब साढ़े चार-पांच लाख थी। यज्ञ कुंडों में आहुति देने की जल्दबाजी के चलते व्यवस्था भंग होने में क्षणमात्र ही नहीं लगा, 20 लोगों का जीवन आहुति देने की अभीप्सा में पंचतत्व में क्षण भर में विलीन हो गया। चूंकि व्यवस्था की संपूर्ण जिम्मेवारी खुद गायत्री परिवार के प्रमुख प्रणव पंड्या ने उठाई थी, इसलिए उन्होंने हादसे की नैतिक जिम्मेदारी भी स्वीकार ली, किंतु इससे प्रशासन और पुलिस अपने कानूनी दायित्व से बारी नहीं हो जाते? यज्ञ में आहुति की पहली ज्ञात कथा भगवान शिव की अद्र्धागिनी सती की है। उनके पिता दक्ष प्रजापति ने देव-शक्तियों को प्रसन्न करने के लिए महायज्ञ कराया था, लेकिन इस यज्ञ में अपने दामाद शिव को आमंत्रित नहीं किया ताकि उनका सार्वजनिक अपमान हो।


पति की इस उपेक्षा से सती बेहद दुखी हुई और उन्होंने अपने पिता का दंभ तोड़ने की दृष्टि से यज्ञ स्थल पर पहंुच यज्ञ कुंड में छलांग लगाकर अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। तत्ववेत्ता, महाबोधि और परमसत्य के ज्ञाता माने जाने वाले भगवान शिव भी यह नहीं जान पाए थे कि अगले कुछ घंटों में क्या कुछ अनहोनी होने वाली है। और न ही वे यज्ञ में घटित होने वाले अशुभ का भान कर पाए। दरअसल, जब-जब पर्याप्त व पुख्ता इंतजाम कमजोर साबित हुए हैं, तब-तब पुण्य कमाने के आलौकिक उपायों का मृत्यु के सत्य से ही साक्षात्कार हुआ है। सती के बलिदान से लेकर हरिद्वार हादसे तक यह सनातन सत्य अपने को बार-बार दोहराता चला आ रहा है। इस बानगी से यह भी सत्य उभरता है कि सर्वज्ञानी भी स्वयं की भाग्य लिपि नहीं बांच पाते। भाग्य ही सब कुछ हो और पुण्य के उपायों से भाग्य रेखा बदली जा सकती होती तो कर्म का तो कोई अर्थ और महत्व ही नहीं रह जाता? निस्संदेह पं. श्रीराम शर्मा आचार्य युगदृष्टा थे। उन्होंने अपने आत्मबल, इच्छाशक्ति व कठोर परिश्रम से कर्मकांड के पाखंड की उस जड़ता पर कुठाराघात किया, जिसके संपादन के अधिकारी केवल ब्राह्मण थे। आज दुनियाभर में स्थापित गायत्री विज्ञापीठ मंदिरों में किसी भी जाति के पुजारी पूजा-अर्चना, यज्ञ, हवन और पाणिग्रहण व मुडंन संस्कार कराते देखे जा सकते हैं।


आचार्य श्रीराम ने इस परंपरा को तोड़ने के साथ-साथ वैदिक साहित्य के पुनर्लेखन में भी उल्लेखनीय व अविस्मरणीय योगदान किया। उन्होंने चारों वेदों, उपनिषदों, पुराणों के संस्कृत भाष्यों की हिंदी में सरल व्याख्या की। यही नहीं, शांति कुंज हरिद्वार में गीता पे्रस, गोरखपुर की तरह एक छापाखाना स्थापित कर इस साहित्य को छापकर इसे सस्ते मूल्य में देश-विदेश में विक्रय का सफल प्रबंधन भी किया। उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान को विज्ञान से जोड़कर उसे मनुष्य जीवन के लिए उपयोगी बनाया। इसलिए उनकी दिव्यता किसी भी स्थिति में नजरअंदाज करने लायक नहीं है। यह भीड़-तंत्र ही है, जो हरेक धार्मिक आयोजन को परलोक सुधारने का माध्यम बनाने की भूल करती है। प्रशासन के साथ हमारे राजनेता भी धार्मिक लाभ लेने की होड़ में व्यवस्था को भंग करने का काम करते हैं। इनकी वीआइपी व्यवस्था और यज्ञ कुंड तक वाहन हर हाल में पहुंचने की जरूरत मौजूदा प्रबंध को संकुचित बनाने का काम करती हैं। नतीजतन भीड़ ठसाठस के हालात में आ जाती है। ऐसे में कोई महिला या बच्चा गिरकर अनजाने में भीड़ के पैरों तले रौंद दिया जाता है और भगदड़ मच जाती है। हादसे के बाद मजिस्ट्रेट जांच के बहाने हादसे के कारणों की खोज का कोई कारण नहीं रह जाता, क्योंकि इन कारणों की पड़ताल की जरूरत तो हादसे की आशंका के परिप्रेक्ष्य में पहले की जरूरत रहती है। हैरानी इस बात पर भी है कि हमारे कई नेता हादसे के वक्त यज्ञ में आहुति देने का काम कर रहे थे। इससे पता चलता है कि वे कितने संवेदना शून्य हो चुके हैं। ऐसे निर्मम नेताओं का बहिष्कार और अधिकारियों को दंडित करने की जरूरत है।


लेखिका पारुल भार्गव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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