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लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि का दर्जा सर्वोपरि माना गया है। ये जनप्रतिनिधि निश्चित तौर पर सभी के आदरपात्र होते हैं। इनके क्रियाकलाप अनुकरणीय होते हैं। ये हमारे मार्ग दर्शक और लोकतंत्र के रक्षक माने गए हैं। जनप्रतिनिधि के रूप में इनकी दी गई सेवाएं अमूल्य होती हैं। ये हमारे आदर्श होते हैं। इनका आदर और सम्मान होना भी चाहिए, लेकिन ये वातावरण तभी बनते हैं, जब ये जनप्रतिनिधि के स्वरूप को सही रूप में अपने जीवन में उतार पाते हैं। आज के हमारे अधिकांश जनप्रतिनिधि कैसे हैं, किसी से छिपा नहीं है। सदन में आए दिन जो हालात चर्चा के दौरान उभर कर आ रहे हैं, हम सभी भलीभांति परिचित हैं। संसदीय सत्र के दौरान हो हल्ला होना, सत्र का अनुचित बहिष्कार, सदन के अध्यक्ष के पास खड़े होकर अशोभनीय शब्द प्रहार आज आम बात है। लोकसभा अध्यक्ष के बार-बार किए गए अनुरोध को भी सहज ढंग से अस्वीकार कर देना संसदीय परंपरा बन गई है। इस तरह से भी बदतर हालात राज्यों के विधानसभा सत्र के दौरान देखे जा सकते हैं, जब सदन की अराजक स्थिति से अपने बचाव के लिए सदन के अध्यक्ष को मेज के पीछे छिपना पड़ा हो।
विधानसभा के सत्र के दौरान कुर्सी, मेज, माइक, जूते-चप्पल आदि पटकने, तोड़ने-फेंकने की प्रवृत्ति भी देखी जा सकती है। क्या इस तरह के परिवेश से संसद-विधानसभा की गरिमा कम नहीं होती? जनसेवक की भावना से जनसेवा क्षेत्र में उभरे आज के जनप्रतिनिधि वेतनभोगी, पेंशनधारी और सुविधाभोगी हो चले हैं। इस तरह के हालात को किस रूप में लिया जाना चाहिए? कुछ सांसदों-विधायकों के आचरण से हमारे देश की संसद, विधानसभा की गरिमा दिन पर दिन धूमिल नहीं होती जा रही है? इसके लिए कौन जिम्मेवार है? इस तरह के अनेक सवाल हमारे सामने हैं, जिन पर गंभीरता से मंथन होना चाहिए। आखिर जनता में अपने जनप्रतिनिधियों के लिए इस तरह के भाव क्यों पनप रहे हैं? यह सही है कि रामलीला मैदान में जिस तरह से अभिनेता ओमपुरी ने सभी सांसदों के खिलाफ टिप्पणी की उसे सही नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन हमें इस तथ्य पर भी गौर करना होगा कि एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है। ऐसे में हमें अपना प्रतिनिधि चुनते समय उसके आचरण, उसकी योग्यता पर ध्यान तो देना ही होगा। दूसरी तरफ आज हमारे जनप्रतिनिधि बुराई के खिलाफ कम, बदले की भावना से ज्यादा काम कर रहे हैं। साथ ही अपने प्रभाव से जन आवाज को भी दबाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं।
काले धन को विदेशी बैंकों से वापस भारत लाने को लेकर बाबा रामदेव द्वारा छेड़ी गई मुहिम में जिस तरह पुलिस प्रशासन ने दमनचक्र रचा, फिर बाबा रामदेव के सहयोगी बालकृष्ण और खुद उन्हें घेरने के लिए सरकार ने अपनी मशीनरी को तैयार किया, क्या इससे यह जाहिर नहीं होता कि यह सब बदले की भावना से किया गया है। इसी तरह टीम अन्ना से जुडे़ लोगों के खिलाफ अचानक मोर्चा खोलते हुए उनके खिलाफ आनन-फानन में कार्रवाई को क्या कहा जाएगा? जन लोकपाल मुहिम से जुडे़ अरविंद केजरीवाल को जिस तरह आनन-फानन में आयकर विभाग ने नोटिस जारी किया, कोई भी कह सकता है कि यह सरकार के इशारे पर हो रहा है। इस तरह यह कहा जा सकता है कि सरकार एक बार फिर अपनी करतूतों के खिलाफ उठने वाली आवाज को खामोश करने पर उतारू हो गई है। सरकार के इस दुष्चक्र और बदले की कार्रवाई के खिलाफ आखिरकार अन्ना हजारे को बोलना पड़ा कि सरकार अपने इस रवैये में बदलाव लाए। साथ ही अन्ना ने केजरीवाल के अब तक के अतीत और उनकी पृष्ठभूमि का भी हवाला दिया और सरकार को चेताया कि इस तरह के हालात लोकतंत्र के लिए खतरा है। बहरहाल, लोकतंत्र को बचाने के लिए जनप्रतिनिधियों को अपनी कार्यशैली और अपने आचरण में बदलाव लाना होगा। इससे देश की गरिमा सर्वोपरि बनी रहेगी और लोकतंत्र भी मजबूत होगा। फिर कोई संसद और इसके सदस्यों की तरफ उंगली भी नहीं उठा सकेगा।
लेखक भरत मिश्र प्राची स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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