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पदोन्‍नति में आरक्षण की प्रासंगिकता

जागरण मेहमान कोना
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देश की सबसे बड़ी अदालत ने उत्तर प्रदेश में पदोन्नति में आरक्षण के फैसले को रद करने का कदम उठाया तो आरक्षण की सियासत पर राजनीति की रोटी सेंकने वाले एक बार फिर से खुद को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का मसीहा साबित करने में जुट गए। सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठता के साथ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को पदोन्नति में आरक्षण देने के मायावती सरकार के कानून संशोधन को असंवैधानिक ठहरा दिया है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में हार के बाद मायावती अब एक बार फिर इस मुद्दे के जरिये अपना राजनीतिक दांव खेलने को तैयार हैं और उन्होंने केंद्र सरकार से संसद के मौजूदा सत्र में संशोधन विधेयक लाकर अदालत की व्यवस्था को पलटने की बात कही है। कुछ ऐसा ही हाल कांग्रेस पार्टी का भी है, उत्तर प्रदेश में पार्टी महासचिव राहुल गांधी के दलितों के घर रुकने और उनके साथ भोजन करने के बाद भी पार्टी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में खुद को खड़ा नहीं कर सकी। केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने भले ही उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान आरक्षण कोटे को बढ़ाने और पसमांदा मुस्लिमों के लिए जान देने की बात कही, लेकिन प्रदेश में कांग्रेस का हश्र किसी से छिपा नहीं है। ज्यादातर राज्यों में हाशिये पर आ चुकी कांग्रेस पार्टी ने अब भी वोट बैंक की राजनीति से खुद को अलग नहीं किया है। यही वजह है कि पदोन्नति में आरक्षण पर रोक के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर उत्तर प्रदेश से कांग्रेस सांसद पीएल पुनिया सवाल खड़े कर रहे हैं।


पीएल पुनिया का कहना है कि इस फैसले से देश भर में भ्रांतियां फैल गई हैं और केंद्र सरकार को इस बारे में स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए। इस तरह की बयानबाजी करके दरअसल, पीएल पुनिया खुद को दलितों का मसीहा बताने में जुटे हैं, जबकि 16 नवंबर, 1992 को सुप्रीम कोर्ट ने पिछड़े वर्ग के आरक्षण को लेकर जो फैसला सुनाया था, उसमें आरक्षण की सीमा को पचास फीसद से कम रखने की बात कही गई थी और इसके साथ ही आरक्षण को सिर्फ प्रारंभिक भर्तियों पर लागू करने की बात थी, लेकिन पदोन्नति में किसी भी तरह के आरक्षण से बचा गया था। सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमीलेयर यानी पिछड़े में अगड़ों को भी आरक्षण से बाहर रखने की बात कही थी और इसके साथ ही विकास और अनुसंधान के काम में लगे संगठनों, संस्थाओं में तकनीकी पदों के संबंध में आरक्षण लागू नहीं करने का आदेश दिया था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक इंडियन एयरलाइंस और एयर इंडिया के पायलट, परमाणु और अंतरिक्ष कामों में लगे वैज्ञानिकों आदि के पदों में आरक्षण लागू नहीं किया जा सकता। नवंबर 1992 के इस ऐतिहासिक फैसले में न्यायालय ने साफ कहा था कि यह सूची केवल उदाहरण के तौर पर है और अब यह केंद्र सरकार पर निर्भर करता है कि वह उन सेवाओं और पदों के बारे में तय करे जिन पर आरक्षण लागू नहीं होना चाहिए। क्या 16 नवंबर 1992 को पिछड़े वर्गो के आरक्षण को लेकर दिया गया सुप्रीम कोर्ट का फैसला आरक्षण नीति के लिए एक नजीर नहीं बन सकता था। क्या चिकित्सा और अन्य तकनीकी पदों पर योग्यता को नजरअंदाज करके कोई भी फैसला करना समाजहित में कहा जा सकता है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी हों या फिर देश के कई और दूसरे बड़े नेता जो खुद का इलाज कराने के लिए विदेश जाना पसंद करते हैं तो क्या चिकित्सा में आरक्षण से भारतीय चिकित्सा व्यवस्था की गुणवत्ता पर असर नहीं पड़ेगा।


आरक्षण के माध्यम से नौकरी में प्रारंभिक भर्ती तक की बात तो ठीक है, लेकिन क्या पदोन्नति में योग्यता और वरिष्ठता को नजरअंदाज कर आरक्षण देना किसी भी हिसाब से उचित ठहराया जा सकता है। क्या ऐसा करना समता के मौलिक अधिकार का हनन नहीं होगा? कांग्रेस या किसी भी राजनीतिक दल को यह समझना होगा कि आरक्षण का झुनझुना पकड़ाकर किसी समुदाय विशेष का वोट हासिल नहीं किया जा सकता। संविधान में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए शुरुआत के दस वर्षो के लिए किए गए प्रावधान को संविधान संशोधन करके हर बार दस-दस साल के लिए बढ़ाया जाता रहा। बात यहीं नहीं रुकती, कभी कोई राजनीतिक पार्टी आरक्षण की सीमा बढ़ाए जाने की बात करती है तो कभी आरक्षण दायरे में बाकी बिरादरियों को शामिल करने की मांग रखी जाती है। 20 सितंबर 1978 को तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने बिंदेश्वरी मंडल की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग की घोषणा की थी जिसकी रिपोर्ट 21 दिसंबर, 1980 को आ गई थी, लेकिन बहुत दिनों तक धूल खाती इस रिपोर्ट के जरिये वीपी सिंह ने खुद को पिछड़ा वर्ग का तथाकथित मसीहा बनाने की ठान ली।


वर्ष 1989 में जनता दल सरकार के अस्तित्व में आने के बाद इस मसले पर कार्यवाही प्रारंभ की गई तो इसके विरोध में देशभर में नौजवान सड़कों पर उतर आए और आत्मदाह करने वालों का तांता लग गया। तब सरकार ने तमाम विरोध को दरकिनार करते हुए सात अगस्त 1990 को मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा कर दी, पर इसके विरोध में जगह-जगह आगजनी और आत्मदाह की घटनाओं को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक अक्टूबर 1990 को इस पर रोक लगा दी। कांग्रेस वापस फिर सत्ता में आई, लेकिन मंडल के कमंडल को पूरी तरह दरकिनार कर वह पिछड़े तबके की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहती थी। कांग्रेस ने राष्ट्रीय मोर्चा की आरक्षण नीति में संशोधन किया और 16 नवंबर, 1992 को सुप्रीम कोर्ट ने पिछड़े वर्ग के आरक्षण पर फैसला सुना दिया। सुप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले में आरक्षण के नकारात्मक परिणामों को एक सीमा तक कम करने की बात कही गई थी। इसी बीच तमिलनाडु की विधानसभा में 69 फीसदी आरक्षण संबंधी विधेयक पारित कर दिया गया जिसे राष्ट्रपति ने अपनी मंज़ूरी भी दे दी, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के फैसले को उलट दिया गया। पिछड़े वर्ग के आरक्षण के संबंध में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के संदर्भ में तत्कालीन केंद्र सरकार आरक्षण को लेकर कोई स्पष्ट नीति बना सकती थी, लेकिन आज तक किसी भी सरकार या राजनीतिक दल ने वोट बैंक की खातिर ऐसी कोई भी पहल नहीं की।


पदोन्नति में आरक्षण पर रोक के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को कांग्रेस नेता पीएल पुनिया भ्रांति फैलाने वाला बता रहे हैं और बसपा नेता मायावती संविधान में संशोधन की बात कर रही हैं, लेकिन क्या ये लोग इस बात से वाकिफ हैं कि आज भी अनुसूचित जाति के 52 फीसदी से ज्यादा और अनुसूचित जनजाति के 63 फीसदी से ज्यादा बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। यही नहीं, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में हालात और भी बदतर हैं। पदोन्नति में आरक्षण की बात कहकर खिसक चुके जनाधार को दोबारा हासिल करने वालों को समझना होगा कि कोरे वादों की राजनीति का दौर खत्म हो चुका है। आरक्षण का राग अलापकर आखिर वे कब तक समाज के इस तबके को छलते रहेंगे?


लेखक शिव कुमार राय स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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