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ब्याज दरों की कड़वी घुट्टी

जागरण मेहमान कोना
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रिजर्व बैंक से आई ब्याज दरें बढ़ाने की खबर पर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने जिस अंदाज में टिप्पणी की, वह आम आदमी की चिंताओं के प्रति सरकारी प्रतिष्ठान के उपेक्षाभाव को ही प्रकट नहीं करती, यह भी दिखाती है कि हमारा सत्ता तंत्र जमीनी हकीकतों से किस कदर कट गया है। अहलुवालिया ने रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में की गई बढ़ोतरी को शुभ समाचार बताया था। बढ़ती ब्याज दरों और महंगाई का दंश झेल रहे गरीब और मध्यवर्गीय समुदाय के लिए इससे बड़ा मजाक और कोई नहीं हो सकता। माना कि रिजर्व बैंक की पहली चिंता मुद्रास्फीति है, माना कि रिजर्व बैंक के गवर्नर दुव्वुरी सुब्बाराव की एक निर्मम अर्थशास्त्री तथा कुशल प्रशासक की छवि है और इसीलिए पिछले दिनों उन्हें एक्सटेंशन भी मिला है, लेकिन पिछले अठारह महीनों में बारहवीं बार जनता को कड़वी घुट्टी पिलाने से पहले उन्हें थोड़ा संवेदनशील होकर सोचने की जरूरत थी।


मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए ब्याज दरें बढ़ाना ही एकमात्र विकल्प नहीं है। दूसरे, भले ही आर्थिक तरक्की का लाभ आम नागरिकों तक किसी न किसी रूप में पहुंच रहा हो, इस तरह के प्रत्यक्ष आर्थिक आघात झेलने की उनकी क्षमता का आखिर कोई तो अंत है! दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था सिर्फ 25 बेसिस प्वाइंट्स की बढ़ोतरी से हिल जाती है और यहां प्रति व्यक्ति आय के मामले में दुनिया में 129वें नंबर पर आने वाले हम भारतीय पिछले डेढ़ साल में साढ़े तीन फीसदी बढ़ोतरी झेल चुके हैं। अब तो बस कीजिए! विपक्ष की भारी आलोचना और जन आक्रोश के बावजूद अगर सरकार ब्याज दरें बढ़ाती जा रही है तो इसलिए कि वह महंगाई के भूत को किसी भी तरह काबू कर लेना चाहती है। यहां तक कि राजनीतिक जोखिम उठाकर भी। मगर यह भूत है कि काबू में आता ही नहीं।


मुद्रास्फीति से सरकार कितनी भयभीत है, यह उसकी इस नीति से स्पष्ट है कि अगर रिजर्व बैंक के कदमों से आर्थिक विकास (जीडीपी) की वृद्धि दर थोड़ी-बहुत घटती भी है तो देखा जाएगा लेकिन सबसे पहले महंगाई पर लगाम लगाना जरूरी है। इसे सरकार का दुर्भाग्य कहें या फिर अल्पदृष्टि पर आधारित उपायों की सीमा कि एक के बाद एक कठोर कदम उठाने के बावजूद मुद्रास्फीति खतरे के निशान से नीचे आने का नाम नहीं ले रही। दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था में धीमापन आना शुरू हो गया है। ऐसे में रिजर्व बैंक, वित्त, उद्योग, परिवहन, आयात-निर्यात, वाणिज्य, कर, पेट्रोलियम आदि का जिम्मा संभालने वाले दूसरे मंत्रालय और विभाग वैकल्पिक रास्तों की तलाश में क्यों नहीं जुटते? डेढ़ साल से अर्थव्यवस्था को बढ़ी ब्याज दरों का इन्जेक्शन लगाने के बावजूद यदि बीमार की हालत ठीक नहीं हो रही तो शायद उसे होम्योपैथी या आयुर्वेद की जरूरत हो? क्या ब्याज दर कोई संजीवनी बूटी है जिसके अतिरिक्त और कोई उपाय किया ही नहीं जा सकता? ऐसा नहीं है।


महंगाई को प्रभावित करने वाले पहलू और भी हैं, जिन पर या तो सरकार का ध्यान जाता नहीं या फिर उसके पास इन्हें अनुशासित करने की इच्छाशक्ति नहीं है। मुद्रास्फीति की समस्या को सिर्फ रिजर्व बैंक के हवाले कर देने की बजाए अगर उसमें केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों की भी भूमिका हो तो विकल्प और भी कई निकल सकते हैं। दैनिक उपयोग की चीजों की कीमतें बढ़ने के पीछे काफी हद तक पेट्रोलियम पदाथरें की बढ़ी हुई कीमतें जिम्मेदार हैं। अगर सरकार पेट्रोलियम क्षेत्र में सब्सिडी के संदर्भ में नरमी बरतती रहे तो महंगाई प्रभावित हो सकती है। भारत में यकायक पैदा हुई महंगाई को कई अर्थशास्त्री वायदा कारोबार के प्रतिफल के रूप में भी देखते हैं। गेहूं, चावल, दालों आदि के वायदा भावों में तेजी राष्ट्रीय स्तर पर इन पदाथरें के भावों को प्रभावित करने लगी है। वायदा कारोबार के प्रभावी नियमन की दिशा में कदम उठाए जाने चाहिए। बहुत जल्द, रिटेल बाजार में विदेशी कंपनियों का आगमन भी भावों को प्रभावित कर सकता है। इसके अलावा जमाखारों के खिलाफ भी कड़ी कार्रवाई करने की जरूरत है।


बालेंदु स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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