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पिछले कई महीनों से लगातार गिरते हुए रुपया 22 नवंबर 2011 को एक बार तो अपने न्यूनतम स्तर 52.72 रुपये प्रति डॉलर तक पहुंच गया। सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक का यह कहना है कि विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा बड़ी मात्रा में डॉलर बाहर ले जाने के कारण उसकी मांग यकायक बढ़ गई और रुपया इस कारण कमजोर हो रहा है। रुपये को कमजोर करने में बढ़ते आयातों का भी बड़ा हाथ है। हालांकि भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा गिरते रुपये को थामने के लिए कुछ दीर्घकालीन उपायों की घोषणा की गई है, लेकिन हाल-फिलहाल में गिरते रुपये को थामने के लिए उसने अपनी क्षमता पर स्वयं ही सवालिया निशान लगा दिया है। रिजर्व बैंक का कहना है कि इन हालात में उसके द्वारा बाजार में किया गया हस्तक्षेप नुकसानदायक हो सकता है। भारत सरकार के आर्थिक मामलों के विभाग ने भी इस बात को स्वीकारा है और यह माना है कि आने वाले समय में रुपया कमजोर ही रहेगा। डॉलर या कोई अन्य विदेशी मुद्रा और रुपये की विनिमय दर का निर्धारण डॉलरों की मांग और पूर्ति के आधार पर होता है।
आयातों के बढ़ने और विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा डॉलर बाहर भेजने से उसकी मांग बढ़ती है और निर्यातों के बढ़ने और विदेशी निवेशकों द्वारा विदेशी मुद्रा लाए जाने से डॉलरों की पूर्ति बढ़ती है। ऐसे में जब भी आयातक ज्यादा आयात करते हैं या विदेशी निवेशक डॉलर बाहर भेजते हैं तो स्वाभाविक तौर पर रुपया कमजोर होता है यानी प्रत्येक डॉलर के लिए अब ज्यादा रुपये देने पड़ते हैं। देश की मुद्रा का कमजोर होना निर्यातकों के लिए तो वरदान हो सकता है, क्योंकि उनके लाभ काफी बढ़ जाएंगे, लेकिन पहले से ही महंगाई से पिसती जनता की मुश्किलें बढ़ती हैं। गिरते रुपये के चलते तेल के आयात तो महंगे होंगे ही, अन्य आयातित कच्चे माल, धातुओं और तैयार माल की बढ़ती कीमतों से पहले से ही दो अंकों तक पहुंची मुद्रा स्फीति और अधिक भयंकर रूप धारण कर सकती है। रुपये के गिरने-बढ़ने का सिलसिला वर्ष 1990 से प्रारंभ नई आर्थिक नीति के बाद रुपया लगातार कमजोर होता रहा और वर्ष 1990-91 में 17 रुपये प्रति डॉलर से घटता हुआ वर्ष 2005-06 तक 44 रुपये प्रति डॉलर तक पहुंच गया, लेकिन वर्ष 2007-08 तक आते-आते रुपये में मजबूती आई और वह 40 रुपये प्रति डॉलर तक पहुंच गया। पर उसके अगले ही वर्ष अमेरिका और उसके साथ ही साथ पश्चिमी यूरोप के देशों में आई भयंकर मंदी ने रुपये को फिर से कमजोर कर दिया और वह 52.21 रुपये के ऐतिहासिक न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि विदेशी संस्थागत निवेशकों ने बड़ी मात्रा में डॉलर बाहर भेजने शुरू कर दिए। ऐसा इसलिए नहीं था कि उन्हें भारतीय बाजारों में नुकसान की आशंका थी, बल्कि इसलिए कि ये निवेशक अपने देशों में भारी आर्थिक तंगी का सामना कर रहे थे। अमेरिकी और यूरोपीय सरकारों द्वारा भारी सहायता के चलते इन निवेशकों की स्थिति बेहतर हुई और वे फिर से भारत की ओर रुख करने लगे। रुपया फिर संभला और मार्च 2011 तक आते-आते पुन: 44.5 रुपये प्रति डॉलर तक पहुंच गया।
अमेरिकी सरकार द्वारा अपने ऋणों को चुका पाने की असमर्थता के चलते स्टैंडर्ड एंड पुअरर्स द्वारा उसकी वित्तीय रेटिंग को लगातार दो बार घटाने से अमेरिका की मुश्किलें बढ़ती गई और दुनिया भर के शेयर बाजारों में भारी कमी रिकॉर्ड की गई। उसका असर भारत पर भी पड़ा। 2008-09 का अनुभव दोहराते हुए विदेशी संस्थागत निवेशकों ने फिर से डॉलरों को बाहर भेजना शुरू कर दिया, जिसका असर भारतीय रुपये पर पड़ा और वह 22 नवंबर तक आते-आते 52.71 के इतिहास में न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया। मजबूत रुपये के फायदे हालांकि कई बार ऐसा कहा जाता है कि रुपये का अवमूल्यन होने से निर्यात बढ़ाए जा सकते हैं और आयातों में कमी लाई जा सकती है, लेकिन भारत का अनुभव यह बताता है कि चूंकि परंपरागत रूप से भारत के अधिकतर आयातों मसलन कच्चे तेल, धातुओं आदि को घटाया नहीं जा सकता और दूसरी ओर हमारे निर्यातों को भी रुपये का अवमूल्यन करके बढ़ाने की संभावना बहुत कम है। इसलिए रुपये का कमजोर होना देश के लिए अहितकारी होता है, क्योंकि इससे आवश्यक वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाती हैं। इससे महंगाई तो बढ़ती ही है, उद्योगों के लिए भी कच्चा माल महंगा होने के कारण उनका विकास अवरुद्ध होता है। इसलिए रुपये का मजबूत होना ही देश के लिए मंगलकारी है। इससे महंगाई पर काबू पाया जा सकता है और रुपया मजबूत होने पर देश अपने ऋणों को रुपयों में ले सकता है, जिससे विदेशी मुद्रा में चुकाने का बोझ भी घटेगा। कैसे संभले गिरता रुपया दीर्घकाल में रुपये को मजबूत बनाना लाभकारी तो है ही, लेकिन फिलहाल देश के सामने बड़ी समस्या गिरते रुपये को थामने की है। इसके लिए सही नीतिगत उपाय अपनाने के लिए जरूरी है कि नीति निर्माता रुपये की कमजोरी का कारण समझें। यह सही है कि विदेशी संस्थागत निवेशकों को फिलहाल शेयर बाजारों में पैसा लगाने के बजाय अमेरिकी सरकार के बांडों में पैसा लगाना ज्यादा लाभकारी और सुरक्षित जान पड़ता है। इसलिए वे तेजी से भारत से डॉलर बाहर भेज रहे हैं, लेकिन रुपये के गिरने का मात्र यह कारण नहीं है। पिछले कुछ समय से भारत के आयातों में भारी वृद्धि हुई है। विशेषतौर पर बड़ी मात्रा में पॉवर प्लांट, टेलीकॉम उपकरण, उपभोक्ता वस्तुएं आदि आयात की जा रही हैं। ऐसे में हमारा व्यापार घाटा भी बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2010-11 में व्यापार घाटा बढ़कर 130 अरब डॉलर तक पहुंच गया। इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में व्यापार घाटा रिकॉर्ड 35.4 अरब डॉलर दर्ज किया गया।
हालांकि सॉफ्टवेयर निर्यातों में कोई विशेष गिरावट दर्ज नहीं हुई है, लेकिन एक ओर तो विदेशी संस्थागत निवेशक अतिरिक्त पैसा नहीं ला रहे, बल्कि पहले से निवेश किए हुए डॉलरों को भी बाहर भेज रहे हैं। विदेशी संस्थागत निवेशक हालांकि रुपये की कमजोरी का एक मुख्य कारण हैं, लेकिन वे एकमात्र कारण नहीं है। चीन से बढ़ते आयात भी हमारे व्यापार घाटे में खासी वृद्धि कर रहे हैं और चीन से होने वाले व्यापार का घाटा कुल घाटे का 20 प्रतिशत से भी अधिक है। सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक के ये बयान कि इन परिस्थितियों में उनके पास सीमित विकल्प हैं, बेहद निराशाजनक और अपनी जिम्मेदारी से मुख मोड़ने जैसे हंै। सरकार का दायित्व बनता है कि देश के सामने कमजोर होते रुपये की चुनौती के मद्देनजर कुछ ठोस कदम उठाए। इसके तहत सबसे पहले आयातों और विशेषतौर पर चीन से बढ़ते आयातों पर प्रभावी रोक लगाई जाए। विदेशी संस्थागत निवेशकों के लाभों पर टैक्स लगाया जाए और उनके द्वारा लाए गए निवेशों पर न्यूनतम तीन वर्ष की लॉक-इन शर्त लगायी जाए। ऐसे में विदेशी संस्थागत निवेशकों को अनुशासित करने में भी मदद मिलेगी।
लेखक अश्विनी महाजन आर्थिक मामलों के जानकार हैं
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