Menu
blogid : 5736 postid : 3001

नागार्जुन की कविताएं

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

हिंदी में अगर किसी कवि को लोककवि का दर्जा प्राप्त है तो वह हैं बाबा नागार्जुन। आम जनता से जुड़ी किसी भी समस्या का मंच हो नागार्जुन वहां जरूर मिलेंगे। बिहार हो, दिल्ली हो, उड़ीसा हो या बंगाल हो बाबा हर जगह मौजूद मिलेंगे। आम आदमी के दर्द, पीड़ा को अभिव्यक्ति देते हुए। सत्ता और व्यवस्था किसी की भी हो, बाबा की कवितांए उससे सवाल पूछती मिलेंगी। अपने विचारों में घोर जनवादी और व्यवहार में घोर व्यवस्था विरोधी नागार्जुन हिंदी साहित्य की एक अलग ही धारा बने रहे। नागार्जुन का असली नाम पं. बैजनाथ मिश्र था। मधुबनी बिहार से आने वाले बैजनाथ मिश्र को हिंदी और मैथिल के अलावा संस्कृत, पाली और प्राकृत में भी महारत हासिल थी। वह पं. राहुल सांकृत्यायन से काफी प्रभावित थे। उनके संपर्क में आने के बाद उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली तब वह बैजनाथ मिश्र से नागार्जुन हो गए। अपने शुरुआती दिनों में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में अध्यापकी की, लेकिन वहां उनका मन ज्यादा नहीं लगा। नौकरी छोड़कर घोषित तौर पर लेखन में आ गए। वह लोकजीवन से जुड़े कवि थे। कथ्य से लेकर भावभंगिमा तक, चिंतन से पहनावे और व्यवहार तक में वह लोकधर्मी थे। वह अपने जीवन में कई आंदोलनों से जुड़े। स्वामी सहजानंद सरस्वती के किसान आंदोलन, महात्मा गांधी के स्वतंत्रता आंदोलन और जेपी के आपातकालीन आंदोलन से उनका गहरा नाता रहा।


आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी पर लिखी उनकी कविता-आओ रानी हम ढोएंगे पालकी.. काफी प्रसिद्ध हुई। उनकी यह कविता भी चर्चित रही-डेमोक्रेसी की डमी/ संजय की मम्मी वह प्रतिपक्ष के कवि रहे और अपनी इस पक्षधरता को कभी छिपाने का प्रयास नहीं किया। उनका काव्य नितांत जनवादी है और जीवन व जगत के ठोस धरातल पर स्थित है। उनकी कविताओं में पूरा लोकजीवन समाया हुआ है किसी भी प्रकार का उत्पीड़न, गांव का जीवन, और प्रकृति नागार्जुन के प्रमुख काव्य विषय रहे हैं। उनकी दृष्टि मूलत: यर्थाथवादी है-आ रहा हूं पीता/ अभाव का आसव ठेठ बचपन से/कवि हूं मैं दबी हुई दूब का। राजनीति उनका प्रिय विषय है। नागार्जुन पर तात्कालिकता का आरोप लगाया जाता है कि उनकी ऐसी कविताएं अल्पजीवी हैं, लेकिन नागार्जुन मानते थे कि विरोध की संस्कृति को बचाना महत्वपूर्ण है न कि कालजयी कविता की रचना। जब हर तरफ सन्नाटा हो तो कविता में ही इतनी ताकत होती है कि वह विरोध में खड़ी हो। नागार्जुन की तमाम कविताएं कालजयी हैं। सच तो यह है कि उनकी प्रतिपक्षी चेतना अधिक व्यापक है। वह सामान्य मानव प्रेम या प्रकृति प्रेम की कविता लिखकर भी राजनैतिक दृष्टि का प्रमाण दे पाते हैं। प्रयोगशील तो नागार्जुन हैं ही लेकिन यह स्थापित प्रयोगशीलता से कुछ अलग हैं। एक भिन्न साहसी चरित्र अथवा गुणसंपन्न प्रयोगशीलता जो सामाजिक यथार्थ के कठिन रूपों को नए वैचारिक व संवेदनात्मक आघात के साथ उपस्थित करने में सक्षम है। कविता और जीवन मूल्यों के लिए उनके आदर्श निराला थे। निराला को वह अपने समय का सबसे बड़ा कवि मानते थे।


निराला से वह काफी प्रभावित थे। अनेक मामलों में निराला को वह रवींद्रनाथ टैगोर से भी सवाया, ड्यौढ़ा मानते थे। सौंदर्यबोध में वह कालिदास को गुरु मानते थे। मेघदूत उनकी बहुत ही मनलग्गू पुस्तक थी। सच तो यह है कि प्रकृति प्रेम का बीज वहीं से उन्हें मिला था। कालिदास की तरह बादल नागार्जुन का भी प्रिय बिंब रहा है-बादल को घिरते देखा है. उनकी श्रेष्ठ कविताओं में से एक है। कालिदास पर उन्होंने कविता भी लिखी है कालिदास सच सच बतलाओ/इंदुमती के शोक में /अज रोया था या तुम रोए थे उनके कुल 15 कविता संग्रह प्रकाशित हुए। गद्य में भी नागार्जुन ने काफी लिखा है। उनके 12 उपन्यास छपे जिनमें बालचम्मा, बाबा बटेसरनाथ, कुंभी पाक, रतिनाथ की चाची ने काफी ख्याति दर्ज करवाई। अपने वैचारिक पक्ष में भी नागार्जुन यायावर ही रहे। ठेठ ब्राह्मणवादी होने से लेकर आर्यसमाजी, बौद्ध, मा‌र्क्सवादी और जनवादी तक। इन सारी विचारधाराओं से गुजरने के बाद बाबा ने अपने आप को ठेठ जनवादी ही माना।


मा‌र्क्सवाद से वह गहरे प्रभावित रहे, लेकिन मा‌र्क्सवाद के तमाम रूप और रंग देखकर वह खिन्न थे। वह पूछते थे कौन से मा‌र्क्सवाद की बात कर रहे हो, मा‌र्क्स या चारु मजूमदार या चे ग्वेरा की? इसी तरह उन्होंने जेपी का समर्थन जरूर किया, लेकिन जब जनता पार्टी विफल रही तो बाबा ने जेपी को भी नहीं छोड़ा-खिचड़ी विप्लव देखा हमने/भोगा हमने क्रांति विलास/अब भी खत्म नहीं होगा क्या/पूर्णक्रांति का भ्रांति विलास। क्रांतिकारिता में उनका जबरदस्त विश्वास था इसीलिए वह जेपी की अहिंसक क्रांति से लेकर नक्सलियों की सशक्त क्रांति तक का समर्थन करते थे-काम नहीं है, दाम नहीं है/तरुणों को उठाने दो बंदूक/फिर करवा लेना आत्मसमर्पण लेकिन इसके लिए उनकी आलोचना भी होती थी कि बाबा की कोई विचारधारा ही नहीं है, बाबा कहीं टिकते ही नहीं हैं। नागार्जुन का मानना था कि वह जनवादी हैं। जो जनता के हित में है वही मेरा बयान है। मैं किसी विचारधारा का समर्थन करने के लिए पैदा नहीं हुआ हूं। मैं गरीब, मजदूर, किसान की बात करने के लिए ही हूं। उन्होंने गरीब को गरीब ही माना, उसे किसी जाति या वर्ग में विभाजित नहीं किया। तमाम आर्थिक अभावों के बावजूद उन्होंने विशद लेखन कार्य किया।


इस आलेख के लेखक गोविंद मिश्र हैं


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh