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हाल ही में पाकिस्तान के समाचारपत्र डॉन ने ब्रिटेन के एक थिंक टैंक द्वारा किए गए सर्वेक्षण के निष्कर्ष छापे हैं, जिनके अनुसार पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में असंतुष्ट लोगों का प्रतिशत आजाद कश्मीर (भारतीय शासन वाला कश्मीर) की तुलना में अधिक है। इससे निश्चित ही भारतीय नीति-निर्माताओं की बांछें खिल गई होंगी। अब तक जितने भी सर्वेक्षण हुए हैं, उनमें से इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च ऑन इंडिया एंड इंटरनेशनल स्टडीज के सर्वेक्षण में आजादी की एक बिल्कुल ही भिन्न परिभाषा सामने आई है। इंस्टीट्यूट के निष्कर्षों के अनुसार 54 प्रतिशत नौजवानों ने आजादी को जम्मू-कश्मीर की अंतिम मंजिल बताया। इसका मतलब यह हुआ कि 46 प्रतिशत का आजादी में विश्वास नहीं है। ध्यान देने लायक बात यह है कि इन 54 प्रतिशत नौजवानों में भी आजादी के मतलब अलग-अलग हैं। इनमें से 56 प्रतिशत नौजवान आजादी को कश्मीरियों का राजनीतिक अधिकार, नागरिक अधिकार और आर्थिक अधिकार समझते हैं। जिन लोगों के लिए आजादी के मायने इलाके के लिहाज से पृथक कश्मीर से हैं, उनमें 8 प्रतिशत ऐसे लोग हैं, जो जम्मू-कश्मीर को एक संप्रभुता-संपन्न और स्वतंत्र प्रदेश के रूप में देखते हैं।
11 प्रतिशत भारत से आजादी चाहते हैं। 10 प्रतिशत अलग कश्मीर तो चाहते हैं, लेकिन इसका विवरण नहीं देते। इसके अलावा, 15-35 वर्ष की आयु-वर्ग के 67 प्रतिशत कश्मीरी नौजवानों के लिए सबसे बड़ी तीन समस्याओं में भ्रष्टाचार प्रमुख है। 48 प्रतिशत मानवाधिकार उल्लंघन को सबसे अधिक, 34 प्रतिशत रोजगार को तथा 18 प्रतिशत शिक्षा को सर्वाधिक प्राथमिकता देते हैं। पिछले सर्वेक्षणों में सबसे अधिक स्वीकार्य 2009 में इंग्लैंड के चाथम हाउस द्वारा किया गया सर्वेक्षण था। यह व्यापक सर्वेक्षण नियंत्रण रेखा के दोनों ओर के कश्मीर में किया गया था, जिसके लिए 3,700 कश्मीरियों को लक्षित आबादी के तौर पर लिया गया था। इसके नतीजों के अनुसार जम्मू-कश्मीर के केवल दो प्रतिशत लोगों ने पूरे कश्मीर के पाकिस्तान में विलय का पक्ष लिया था। 43 प्रतिशत कश्मीरियों ने पूरे कश्मीर के लिए आजादी की बात कही थी, जिसका मतलब यह कि 57 प्रतिशत आजादी के पक्ष में नहीं थे। ध्यान देने लायक बात यह है कि जम्मू-कश्मीर के 87 प्रतिशत लोगों के लिए बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्या थी, जबकि 68 प्रतिशत के लिए भ्रष्टाचार, 45 प्रतिशत के लिए सुस्त आर्थिक विकास और 43 प्रतिशत के लिए मानवाधिकारों का दुरुपयोग एक बड़ी समस्या थी। एक और सर्वेक्षण टाइम्स आफ इंडिया ने कराया था, जिसे एक बाजार सर्वेक्षण कंपनी साइनोवेट इंडिया ने अप्रैल 2005 में किया था।
सर्वेक्षण के परिणाम इस प्रकार हैं। 84 प्रतिशत लोग पाकिस्तान के साथ टकराव को कश्मीर समस्या का समाधान नहीं मानते। 62 प्रतिशत का मानना है कि लोकतांत्रिक चुनावों से शांति स्थापित होगी और उससे राज्य सरकार का बेहतर प्रतिनिधित्व होगा। 25 प्रतिशत मानते हैं कि आतंकवादी, विकास को रोक रहे हैं। 84 प्रतिशत लोगों का कहना था कि बातचीत से कश्मीर समस्या का समाधान खोजा जा सकता है। वर्ष 2002 में ब्रिटेन की एक स्वतंत्र बाजार शोध कंपनी एमओआरआइ के सर्वेक्षण से पता चला कि नागरिकता के सवाल पर 61 प्रतिशत कश्मीरियों ने भारतीय नागरिक के रूप में खुद को राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से बेहतर बताया और केवल 6 प्रतिशत ने ही पाकिस्तान का नागरिक होना पसंद किया। 33 प्रतिशत इस बारे में कुछ भी नहीं कह सके। 93 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने क्षेत्र के विकास पर जोर दिया। इन सभी निष्कर्षों का निचोड़ यह है कि जम्मू-कश्मीर में आजादी की मांग लफ्फाजी होकर रह गई है। आजादी का ढोल पीटने वाले अपने स्वार्थ के लिए इस मुद्दे को उछाल रहे हैं।
कश्मीर को लेकर हुए सर्वेक्षणों पर अडनी ब्यूरो की रिपोर्ट
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