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नशा मुक्ति के तमाम प्रयासों के बावजूद बच्चों और युवाओं में मादक पदार्थो की लत बढ़ना चिंता की बात है। महानगरों से लेकर छोटे शहरों तक में बच्चों द्वारा नशा करने के मामले सामने आ रहे हैं। बीते दिनों मानव व्यवहार विज्ञान संस्थान (इहबास) एवं मेडिकल साइंसेज विश्वविद्यालय ने दिल्ली स्कूल स्वास्थ्य योजना के तहत 24 निजी व 12 सरकारी स्कूलों के 11,234 बच्चों का अध्ययन किया। अध्ययन में पाया गया कि 12 प्रतिशत बच्चे नशे की लत से जुड़े हैं। यह नशा सिगरेट या शराब का नहीं है। यह बच्चे नई तरह का नशा सूंघ कर ले रहे थे। विभिन्न शोधों से भी यही निष्कर्ष सामने आया है कि निम्न वर्ग के ही नहीं, बल्कि मध्यम एवं उच्च वर्ग के बच्चे इरेजर फ्लुइड, ग्लू, दर्द निवारक मलहम, पेंटथिनर, नेलपॉलिश रिमूवर जैसे नशे के आदी हैं। इसके अलावा पांच से आठ प्रतिशत युवा एम फेटेमाइन टाइप ऑफ स्टीमुलेट्स (एटीएस) का शिकार हैं और उनकी यह तादाद दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है।
संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय नारकोटिक्स नियंत्रण बोर्ड द्वारा जारी वर्ष 2009 की रिपोर्ट बताती है कि देश में पहली बार नशा करने वालों की उम्र महज 10 से 11 वर्ष होती है और नशा करने वाले 37 प्रतिशत स्कूली विद्यार्थियों को यह पता होता है कि वे कौन सा मादक पदार्थ ले रहे हैं। सच तो यह है कि देश की भावी पीढ़ी को नशा पूरी तरह खोखला करता जा रहा है। नशे की गिरफ्त में संभ्रांत परिवारों से लेकर निचले तबके के परिवारों के बच्चे शामिल हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन और सयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से देश में पिछले दशक में कराए गए सर्वे से भी खतरनाक होती स्थिति का पता चलता है। रिपोर्ट के मुताबिक नौंवीं कक्षा में आने से पहले 50 प्रतिशत किशोर किसी एक नशे का कम से कम एक बार सेवन कर चुके होते हैं। प्रश्न उठता है कि आखिर क्यों ये बच्चे नशे की गिरफ्त में फंस रहे हैं? बच्चे स्वभाव से जिज्ञासु होते हैं बिना यह जाने कि कि उनके लिए क्या उचित है और क्या अनुचित। वह हर नई चीज को आजमाने की कोशिश करते हैं और यही प्रवृत्ति उन्हें अनजाने में नशे की ओर धकेल देती है। किशोरावस्था तक पहुंचते-पहंुचते बच्चों के लिए परिवार की बजाय अपने दोस्तों का साथ अच्छा लगने लगता है और उनके द्वारा किए गए कार्य को वह स्वयं करने में झिझकते नहीं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण कारण, बच्चों का भावनात्मक रूप से अकेला होना है।
संयुक्त परिवार बिखर रहे हैं और एकल परिवार में माता-पिता के पास ज्यादा समय होता नहीं। ऐसे में अकेलेपन में बच्चे खुद को एक ऐसी दुनिया में धकेल रहे हैं जहां वहां कुछ पलों के लिए ही सही, खुद को जीवन की सच्चाई से दूर कर लेते हैं। वहीं निर्धन बच्चे अपनी दो वक्त की रोटी की जुगाड़ में, संघर्ष करते-करते जीवन के सुखों को नशे में ढूंढने की कोशिश करते हैं। परंपरागत नशे के विपरीत सूंघकर किए जाने वाले नशे की सहज उपलब्धता नन्हे बच्चों को आसानी से अपनी गिरफ्त में ले लेता है। शोध बताते हैं कूड़ा बीनने वाले बच्चों में 75 प्रतिशत ड्रग एडिक्ट होते हैं। सूंघकर किए जाने वाले नशे की गिरफ्त में निरंतर बच्चों की संख्या बढ़ने का एक कारण यह भी है कि लंबे समय तक अभिभावकों को इसके बारे में पता ही नहीं चलता, क्योंकि इन नशों का प्रभाव तुरंत दिखाई नई देता। चिकित्सकों का मानना है कि लंबे समय तक इसका सेवन करने से दिमाग की कोशिकाओं के क्षतिग्रस्त होने की संभावना बढ़ जाती है तथा कैंसर का खतरा रहता है। किशोर बच्चों की ये आदत युवा होते-होते खतरनाक नशीले पदार्थ के सेवन में परिवर्तित हो जाती है। नशे की ओर बढ़ते इन बच्चों के कदमों को रोकने के लिए जरूरी है कि उन्हें स्नेह दिया जाए। यह हर अभिभावक का दायित्व बनता है कि किशोरावस्था की ओर बढ़ते अपने बच्चों के वह मित्र बनें और उनकी हर खुशी एवं परेशानी में उनके साथ रहें। भावनात्मक संबलता ही नशे की गिरफ्त में फंसते बच्चों को रोकने का उपाय है।
लेखिका डॉ. ऋतु सारस्वत स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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