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पिछले दिनों केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अपने एक अध्ययन में पाया कि देशभर के 900 से अधिक शहरों और कस्बों का 70 फीसदी गंदा पानी पेयजल की प्रमुख स्त्रोत नदियों में बिना शोधन के ही छोड़ा जा रहा है। ये शहर और कस्बे प्रतिदिन 38,254 मिलियन लीटर गंदा पानी प्रतिदिन छोड़ते हैं जबकि ऐसे पानी के शोधन की क्षमता महज 11,787 एमएलडी ही है। बोर्ड के मुताबिक नदियों को प्रदूषित करने में बढ़ते उद्योगों की प्रमुख भूमिका है। इसमें दो राय नहीं है कि देश के सामने आज नदियों के अस्तित्व का संकट है। देश की 70 फीसदी नदियां प्रदूषित हैं और मरने के कगार पर हैं। इनमें गुजरात की अमलाखेडी, साबरमती और खारी, हरियाणा की मारकंदा, मध्य प्रदेश की खान, उत्तर प्रदेश की काली और हिंडन, आंध्र की मुंसी, दिल्ली में यमुना और महाराष्ट्र की भीमा को मिलाकर 10 नदियां सर्वाधिक प्रदूषित हैं। वैसे गोमती, नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी, ब्रह्मपुत्र, झेलम, सतलज, चिनाव, रावी, व्यास, भगीरथी, भिलंगना, जैसी नदियों भी अस्तित्व रक्षा के लिए जूझ रही हैं। यह उस देश में हो रहा है जहां आदि काल से नदियां जीवनदायिनी रही हैं। उनकी देवी की तरह पूजा होती है। समाज में इनके प्रति सदैव सम्मान का भाव रहा है।
प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने में भी हमने कोताही नहीं बरती है। वह चाहे नदी जल हो या भूजल, जंगल हो या पहाड़ सभी का भरपूर दोहन किया गया है। प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का खामियाजा सबसे ज्यादा नदियों को ही भुगतना पड़ा है। सर्वाधिक पूज्य धार्मिक नदी गंगा, यमुना को ही लें तो उनको हमने इतना प्रदूषित कर डाला है कि इन्हें प्रदूषण मुक्त करने के लिए अब तक करीब 15 अरब रुपये खर्च किए जा चुके हैं। यह अलग बात है कि इनकी हालत 20 साल पहले से भी ज्यादा बदतर है। कन्नौज, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और पटना सहित कई जगहों पर गंगा जल आचमन लायक भी नहीं है। इसमें एक जहरीला रसायन आर्सेनिक मिलने से वैज्ञानिक काफी चिंतित हैं। केंद्रीय भूजल बोर्ड के वैज्ञानिक डॉ. राम प्रकाश के शोध ने यह साबित कर दिया है कि कानपुर और इलाहाबाद में गंगा के पानी में आर्सेनिक का मानक 10 माइक्रोग्राम के मुकाबले 9 से 27 माइक्रोग्राम प्रति लीटर पाया गया है। कानपुर से आगे का जल पित्ताशय के कैंसर और आंत्रशोध जैसी भयंकर बीमारियों का सबब बन गया है। यही नहीं कभी खराब न होने वाला गंगा जल का यह खास गुण भी अब खत्म होता जा रहा है। गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के प्रो. बीडी जोशी के निर्देशन में हुए शोध से यह प्रमाणित हो गया है। दिल्ली के 56 फीसदी लोगों की प्यास बुझाने वाली यमुना आज खुद अपने ही जीवन के लिए जूझ रही है। जिन्हें वह जीवन दे रही है, वह अपनी गंदगी, मलमूत्र, उद्योगों का कचरा व तमाम जहरीले रसायन व धार्मिक अनुष्ठान के कचरे तोहफे में देकर उसका जीवन लेने पर तुले हैं। यमुना की सफाई को लेकर भी कई परियोजनाएं बन चुकी हैं और यमुना को लंदन की टेम्स नदी जैसा बनाने का नारा भी लगाया जा रहा है, लेकिन परिणाम ढाक के तीन पात हैं। यमुना नदी मथुरा, वृदांवन क्षेत्र में कैडमियम, लेड, निकिल, मैंगनीज, जिंक, आयरन जैसे विषाक्त धातुओं से प्रदूषित पाई गई है। यही प्रमुख वजह है कि गंगा-यमुना में आर्सेनिक मिलने की रिपोर्ट आते ही विश्व बैंक ने समूचे गंगा बेसिन में जल गुणवत्ता की गहन जांच की सिफारिश की है।
दरअसल, कई एक शहरों में पेयजल आपूर्ति नदियों पर ही टिकी है। पेयजल में इन विषाक्त धातुओं व कीटनाशकों आदि के उपचार की वहां कोई व्यवस्था नहीं है। नतीजन शहरवासी भयंकर जानलेवा बीमारियों के जाल में फंसने को मजबूर हैं। यमुना के पानी में हरियाणा के पानीपत, सोनीपत और समालखा के औद्योगिक प्रतिष्ठानों से निकलने वाले रसायन में अमोनिया के चलते बीते साल दिल्ली जलबोर्ड के दो जल शोधन संयंत्रों को बंद करने तक की नौबत आ गई थी। कारण अमोनिया की मात्रा .002 से बढ़ते-बढ़ते 13 हो जाना था, जिससे यमुना का पानी अत्यंत जहरीला हो गया था। इस कारण पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा को चेतावनी देने को बाध्य होना पड़ा था कि वह औद्योगिक व घरेलू सीवेज बिना ट्रीटमेंट के यमुना में छोड़े जाने पर तत्काल पाबंदी लगाएं अन्यथा केंद्र पर्यावरण संरक्षण कानून की धारा 5 के तहत सीधी कार्यवाही करने से नहीं हिचकेगा। देश की प्रदूषित हो चुकी नदियों को साफ करने का अभियान पिछले लगभग 25 वर्षो से चल रहा है। इस काम में अरबों रुपये भी खर्च हो चुके हैं, लेकिन असलियत यह है कि अब भी शहरों और कस्बों का 70 फीसदी गंदा पानी बिना शोधित किए हुए ही इन नदियों में गिर रहा है। हालांकि लगता है गंगा और यमुना के दिन अब फिरने वाले हैं। अब वैज्ञानिक भी गंगा को शैवालों के जरिये प्रदूषण मुक्त करने पर उतारू हो गए हैं। उनके प्रयासों से लगता है कि गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की मुहिम अब परवान चढ़ती नजर आ रही है। वैज्ञानिकों ने शैवालों की दस हजार ऐसी प्रजातियों का पता लगाया है जो गंगा में फैले विष का पान करेंगे।
प्रयोगशाला में तैयार किए जा रहे ये शैवाल गंगा में रोपित किए जाएंगे। नर्मदा को ही लें जो अमरकंटक से शुरू होकर विंध्य और सतपुड़ा की पहाडियों से गुजरकर अरब सागर में गिरने तक कुल 1,289 किमी यात्रा में इसका अथाह दोहन हुआ है। 1980 के बाद शुरू हुई इसकी बदहाली के गंभीर परिणाम सामने आए हैं। यही दुर्दशा बैतूल जिले के मुलताई से निकलकर सूरत तक जाने वाली व आखिर में अरब सागर में मिलने वाली सूर्य पुत्री ताप्ती की है जो आज दम तोड़ने के कगार पर है। तमसा नदी बहुत पहले विलुप्त हो गई थी। बेतवा की कई सहायक नदियों की छोटी-बड़ी धाराएं सूख चुकी हैं। गोमती को ही लें तो लखनऊ में इस नदी में बिना ट्रीटमेंट के कुल मिलाकर 25 से ज्यादा नालों, दर्जनों कारखानों का औद्योगिक कचरा जा रहा है। यदि आंकड़ों की मानें तो इसके 12 किमी के दायरे में कुल मिलाकर 33 करोड़ लीटर गंदे पानी के साथ-साथ 1800 टन घरेलू कचरा रोज गोमती में गिर रहा है। गोमती के प्रदूषण का तो यह हाल है कि बीते साल किनारे के घाट हफ्तों तक मरी मछलियों से पटे रहे थे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में चीनी मिलों ने जीवनदायिनी नदियों को जहरीला बना दिया है। जिले के नानौता ब्लाक के भनेड़ा खेमचंदपुर के लिए तो कृष्णा नदी काल बन चुकी है। क्षेत्र में स्थित चीनी मिल से निकलने वाले कैमिकलयुक्त अपशिष्ट ने कृष्णा नदी के पानी को काली कर दिया है। यही वजह है कि गांव का भूमिगत जल भी प्रदूषित हो चुका है। अब तक तीस ग्रामीण असमय काल के गाल मे समा चुके हैं। हैंडपंपों से निकलने वाले दूषित जल को पीकर गांव के लोग कैंसर, टीबी और त्वचा के रोगी हो रहे हैं। विकट होते हालात के मद्देनजर, बड़ी आबादी गांव से पलायन भी कर चुकी है। इतना सब होने के बावजूद शासन-प्रशासन ने गांव की ओर झांकने की जहमत तक नहीं उठाई है। यही हाल पिछले सालों में ब्रह्मपुत्र का रहा जहां औद्योगिक कचरेयुक्त प्रदूषित पानी से लाखों मछलियां मर गई। इसमे गुवाहाटी के तेल शोधक कारखाने के औद्योगिक कचरे की भूमिका अहम रही। गंगोत्री से निकलने वाली भिलंगना, अस्सीगंगा, अलकनंदा की कई धाराएं सूख चुकी हों तो भावी जल संकट के खतरे का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।
लेखक ज्ञानेंद्र रावत स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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