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शिक्षा के स्तर पर बढ़ते सवाल

जागरण मेहमान कोना
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Vishesh Guptaदेश में उच्च शिक्षा पर नई बहस छिड़ी है। पहले केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश और फिर एक अग्रणी साफ्टवेयर कंपनी के चेयरमैन एनआर नारायणमूर्ति ने आइआइटी के स्तर पर सवाल उठाया। इस बहस को और अधिक गंभीरता प्रदान की है प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार रघुराम राजन ने। उनके मुताबिक चूंकि सरकार अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं कर पा रही है इसलिए हमारे देश की शिक्षा पद्धति असफल हो रही है। सच यह है कि विश्व स्तर पर भी 2011-2012 की व‌र्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग में भारत की उच्च शिक्षा को इस बार भी पृष्ठभूमि में डाल दिया गया। विश्व के 200 श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों तथा तकनीकी संस्थानों में भारत का कोई भी स्थान नहीं है। इस सर्वेक्षण में शोध की गुणवत्ता, स्नातक स्तर पर रोजगार के अवसरों की उपलब्धता, शिक्षा की विषयवस्तु व शिक्षण प्रतिबद्धता जैसे महत्वपूर्ण बिंदुओं को शामिल करते हुए निष्कर्ष निकाले गए। वैश्विक स्तर पर उच्च शिक्षण संस्थाओं के इस सर्वेक्षण के निष्कर्षो से साफ संकेत मिले हैं कि विश्व की सर्वोच्च दो सौ संस्थाओं में भारत की किसी भी उच्च शिक्षण संस्था को कोई भी रैंक प्राप्त नहीं हुआ है। आश्चर्य की बात है कि विश्व स्तर पर मुंबई, दिल्ली, गुवाहाटी, मद्रास तथा खड़गपुर से जुड़े आइआइटी संस्थानों की अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग लगातार नीचे गिर रही है। यह भी विचार का विषय है कि चीन को छोड़कर जापान, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, थाईलैंड, इजरायल, तुर्की व ताइवान जैसे छोटे देश उच्च शिक्षा के इस अंतरराष्ट्रीय बेंचमार्क में भारत से आगे निकल गए।


इसमें संदेह नहीं कि देश में उच्च शिक्षा का स्तर संतोषजनक नहीं, लेकिन विगत चार-पांच वर्षो से विश्व स्तर पर हमारी उच्च शिक्षा की तस्वीर को दोषपूर्ण तरीके से प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है। इसका अर्थ यह हुआ कि विदेशी विश्वविद्यालय अपने शैक्षिक बाजार व नौकरीयुक्त ढांचे की ब्रांडिंग हमसे बेहतर तरीके से कर रहे हैं। तभी उनसे जुड़ी रैंकिंग प्रदान करने वाली संस्थाएं अपने ब्रांड को श्रेष्ठ बताकर विकासशील देशों में प्रस्तुत कर रही हैं, परंतु हम अपनी उच्च शिक्षा के मानकों में पिछड़ रहे हैं। संपूर्ण विश्व में आज भारत के टेक्नोक्रेट्स अपनी योग्यता का लोहा मनवा रहे हैं। आज भारत अपनी शैक्षिक श्रेष्ठता के बलबूते ही अंतरराष्ट्रीय आउटसोर्सिग बाजार में कई विकसित देशों को चुनौती दे रहा है। फिर ऐसा क्या है जो भारत की उच्च शिक्षण संस्थाओं विश्व स्तर की रैंकिंग में लगातार पिछड़ रही हैं?


दरअसल यहां उच्च शिक्षा से जुड़ा सच यह है कि इसका विकास विचित्र तरह से हुआ। इसके सर्वोच्च शिखर पर आइआइटी, आइआइएम, एम्स तथा केंद्रीय विश्वविद्यालय जैसी लगभग दो सौ संस्थाएं हैं जिनमें बमुश्किल एक लाख छात्र प्रवेश पाते हैं। इसकी निचली पायदान पर तीन सौ राज्य विश्वविद्यालय और लगभग बीस हजार कॉलेज हैं, जिनमें डेढ़ करोड़ के लगभग छात्र पढ़ते हैं। इसके मध्य में डीम्ड विश्वविद्यालय हैं जिनमें कुछ को छोड़कर शेष को औसत अथवा निम्न स्तरीय श्रेणीक्रम में रखा जा सकता है। अंत में स्ववित्त पोषित संस्थाएं हैं, जिन्होंने उच्च शिक्षा की गुणवत्ता की परवाह किए बिना स्वयं को एक बड़े बाजार के रूप में विकसित कर लिया है। राजनीति ने भी उच्च शिक्षा का भला न करके उसे अपने हित साधनों का माध्यम बना लिया है। गुणवत्ता की परवाह किए बिना कस्बे के साथ गांव-गांव में डिग्री कॉलेज और नगरों में विश्वविद्यालय खोल दिए गए। इसी कारण राष्ट्रीय उच्च शिक्षा मूल्यांकन परिषद ने भी अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट में स्पष्ट कर दिया है कि भारत में 68 फीसदी विश्वविद्यालयों और 90 फीसदी कालेजों में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता या तो मध्यम दर्जे की है या दोषपूर्ण है। साथ ही पाठ्यक्रम, ज्ञान, कौशल और परीक्षा पद्धति अभी भी पुराने ढर्रे पर ही चलने के कारण ज्ञान का स्तर मात्र सैद्धांतिक होकर रह गया है। असल में यही वे उच्च शिक्षा के मानक बिंदु हैं जो शिक्षा के अंतरराष्ट्रीय बेंच मार्क का निर्धारण करते हैं। उच्च शिक्षा के इन्हीं मानकों पर हम लगातार कमजोर पड़ रहे हैं। सच यह है कि विकसित देश आज भारत को एक विशाल बाजार के रूप में देख रहे हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था में शिक्षा का बहुत बड़ा बाजार है। भारत की स्थिति यह है कि यहां मात्र 12 फीसदी छात्र ही उच्च शिक्षा में भर्ती हैं तथा तीन लाख से भी अधिक छात्र ब्रिटेन, अमेरिका, जर्मनी और आस्ट्रेलिया उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए जाते हैं। लिहाजा अभी भी भारत का एक बड़ा हिस्सा उच्च शिक्षा प्राप्त करने से वंचित है। इतनी बड़ी संख्या में युवाओं को विश्वस्तरीय उच्च शिक्षा उपलब्ध कराना भारत सरकार के लिए लगभग असंभव है। यही कारण है कि भारत सरकार भी देश में विश्वस्तरीय उच्च शिक्षा को विस्तार देने के लिए विदेशी विश्वविद्यालयों को आमंत्रित करने को मजबूर है।


पिछले दिनों मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने विदेशी शैक्षिक संस्थान विधेयक-2010 को मील का पत्थर बताते हुए उच्च शिक्षा के क्षेत्र में दूरसंचार से भी बड़ी क्रांति की कल्पना की है, परंतु अभी तक उसके लक्षण दिखाई नहीं पड़ते। यहां यह प्रश्न भी विचारणीय हैं कि हम विदेशी विश्वविद्यालयों के पिछलग्गू क्यों बनना चाहते हैं? क्यों हम अपनी उच्च शिक्षण संस्थाओं में विश्व स्तर के ढांचागत विकास से कतराते हैं? देश में उच्च शिक्षा के स्वरूप से जुड़े तमाम संशयों के बावजूद आज भी उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों के लिए विश्वविद्यालयों की रैकिंग महत्वपूर्ण है। विश्व स्तर पर भारत की उच्च शिक्षा का जो श्रेणीक्रम तैयार किया गया है वह हमारे लिए आंखें खोलने वाला है। वास्तव में यह देश की उच्च शिक्षा के लिए आत्ममंथन का समय है।


लेखक डॉ. विशेष गुप्ता समाज शास्त्र के प्राध्यापक हैं


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