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पिछले करीब एक साल से सचिन तेंदुलकर लगातार सुर्खियों में हैं। वैसे तो सचिन ने जब से अपने अंतरराष्ट्रीय कॅरियर की शुरुआत की थी, तबसे ही सुर्खियों में रहते थे। अब तक उन्हें इस बात की आदत भी पड़ चुकी होगी, लेकिन पिछले एक साल से उनके खबरों में बने रहने की वजहें थोड़ी अलग हैं। फिलहाल सचिन राज्यसभा की सदस्यता मिलने की वजह से चर्चा में हैं। इस मुद्दे पर हर व्यक्ति की अलग-अलग राय है। कोई इसे सही फैसला बता रहा है तो कोई गलत। इस मुद्दे पर सचिन ने कुछ दिनों तक तो चुप्पी साधे रखी, लेकिन आखिरकार पुणे में एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने इन अटकलों पर विराम लगा ही दिया कि वे आने वाले समय में राजनीति करेंगे। सचिन ने साफ शब्दों में कह दिया कि राज्यसभा के सदस्य के तौर पर मनोनीत किए जाने को वे सिर्फ एक सम्मान के तौर पर देखते हैं। वैसे वे एक खिलाड़ी हैं और खिलाड़ी ही रहेंगे। सचिन तेंदुलकर ने यह भी साफ कर दिया है कि राज्यसभा की सदस्यता लेने का उनका फैसला वैसा ही है, जैसे वे भारतीय एयरफोर्स से बतौर ग्रुप कैप्टन जुड़े हुए हैं। वैसे देखा जाए तो सचिन तेंदुलकर के मन में अगर कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हैं तो उसमें कुछ भी गलत नहीं है। राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं पालने के अधिकार से उन्हें कोई नहीं रोक सकता। सवाल इस बात को लेकर उठ रहे थे कि इस महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए उन्हें बैकडोर एंट्री की जरूरत क्यों पड़ी। सचिन तेंदुलकर को राज्यसभा के जरिये राजनीति करने की क्या जरूरत थी? जाहिर है कि सचिन तेंदुलकर देश के उन बेहद गिने-चुने लोगों में शामिल हैं, जो मुंबई से लेकर मेघालय तक और चेंबूर से लेकर चिकमंगलूर तक कहीं से भी लोकसभा का चुनाव लड़ेंगे तो उनकी जीत पक्की है। सचिन की लोकप्रियता को देखते हुए इस बात पर शायद ही कोई शक कर सकता है।
हालांकि अब सचिन तेंदुलकर के ताजा बयान के बाद इस बहस ने दम तोड़ दिया है। चर्चा यह भी थी कि सचिन का राज्यसभा की सदस्यता को स्वीकार करना कहीं उनके संन्यास के बाद के प्लान में तो शुमार नहीं है। लेकिन अब यह थ्योरी भी दम तोड़ती नजर आ रही है। अब सवाल सिर्फ यही है कि क्या सचिन तेंदुलकर क्रिकेट के साथ-साथ अपनी राज्यसभा सदस्य की जिम्मेदारियों का दोहरा बोझ उठा पाएंगे? सचिन जैसे जिम्मेदार नागरिक से यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि उन्होंने राज्यसभा की गरिमा बढ़ाने भर के लिए सदस्य बनना स्वीकार किया है, उनसे कई बड़ी उम्मीदें होंगी। उनसे उम्मीद की जाएगी कि वे देश में खेलों के स्तर में सुधार के लिए काम करें। ऐसे में सवाल यही है कि क्या सचिन ऐसा कर पाएंगे? क्योंकि, अब तक तो यही देखा गया है कि एक खिलाड़ी के तौर पर सचिन तेंदुलकर दोहरी जिम्मेदारियों का बोझ उठाने से बचते रहे हैं। साल 1996 में सचिन तेंदुलकर को भारतीय टीम की कप्तानी सौंपी गई थी, लेकिन साल 2000 आते-आते उन्होंने इस जिम्मेदारी से खुद को मुक्त कर लिया। हाल ही में इंडियन प्रीमियर लीग में मुंबई इंडियंस की कप्तानी भी उन्होंने छोड़ दी। यह जिम्मेदारी उन्होंने हरभजन सिंह को सौंप दी। जिस खिलाड़ी के लिए बल्लेबाजी के साथ-साथ कप्तानी की जिम्मेदारी एक अतिरिक्त बोझ की तरह रही हो, वह अब उसी जिम्मेदारी के साथ-साथ एक सांसद की जिम्मेदारी कैसे उठाएगा? यह एक जायज सवाल है। यह सवाल तब तक उठेगा, जब तक सचिन राज्यसभा में अपनी सदस्यता को मैदान के बाहर अपनी सक्रियता से दूर नहीं कर देते। वरना, एक बार फिर उनकी आलोचना का दौर शुरू हो जाएगा।
सचिन को राज्यसभा पहुंचाकर क्या साबित करना चाहती है सरकार !!
आलोचनाएं नई बात नहीं 22 साल के कॅरियर में बीता करीब एक साल सचिन तेंदुलकर को खासा भारी पड़ा है। बीते 1 साल में वे लगातार आलोचना का शिकार होते रहे हैं। कभी किसी बात को लेकर तो कभी किसी बात को लेकर। पहले तो सचिन लंबे समय तक अपने सौंवे शतक के इंतजार को लेकर चर्चा में रहे। फिर पूरे आठ साल के बाद बांग्लादेश में एशिया कप खेलने की अपनी रजामंदी को लेकर चर्चा में रहे। सौंवा शतक लगा भी तो बांग्लादेश के खिलाफ, उस पर से भी उस मैच में भारतीय टीम हार गई। जाहिर है, चर्चा इस बात पर भी जमकर हुई। कई दिग्गजों ने संन्यास की सलाह दी। कई दिग्गजों ने उन्हें कम से कम वनडे छोड़ने की सलाह दी, लेकिन सचिन मजबूती के साथ बोले कि यह फैसला उन्हें करने दिया जाए। सचिन के सौंवे शतक के बाद आइपीएल शुरू हुआ तो वह फिर चर्चा में आए। आइपीएल शुरू होने से ऐन पहले उन्होंने मुंबई इंडियंस की कप्तानी का जिम्मा हरभजन सिंह को दे दिया। आइपीएल के शुरुआती मैच में उनकी उंगली में चोट भी लग गई। सचिन की उंगली में चोट भी लगातार चर्चा का विषय बनी रही। उंगली में जमे खून की तस्वीर जब उन्होंने ट्विटर पर पोस्ट की तो चोट के बहाने उनके क्रिकेट के दर्द का भी लोगों को पता चला।
कांग्रेस कर रही है इस्तेमाल! लगे हाथ इस बात पर भी चर्चा कर लेते हैं कि क्या कांग्रेस सचिन तेंदुलकर का इस्तेमाल कर रही है। बाल ठाकरे ने तो इसे कांग्रेस की डर्टी पिक्चर तक करार दिया था। सचिन इन बातों से अनजान नहीं हैं। उन्हें पता है कि अगर वे आने वाले दिनों में खुलकर कांग्रेस के मंच पर आते तो उन्हें सरकार के हर फैसले के साथ खड़ा होना पड़ता। सरकार की नाकामयाबियों और सरकार से जुड़े भ्रष्टाचार के मामलों पर भी अपनी स्थिति साफ करनी होती। इसीलिए सचिन ने राज्यसभा का सदस्य बनने के बाद अपनी स्थिति साफ करने में थोड़ा वक्त जरूर लिया, लेकिन जब मीडिया में आए तो सोच-समझकर बोले। सच्चाई यह है कि सचिन के राज्यसभा सदस्य बनने को लेकर हर किसी को मोटे तौर पर सिर्फ एक बात समझने की जरूरत है। सचिन तेंदुलकर ने अपनी पूरी जिंदगी में बगैर सोचे-समझे कोई काम नहीं किया है। किसी भी मुद्दे पर क्या करना है, इससे कहीं पहले सचिन यह तय कर लेते हैं कि उन्हें क्या नहीं करना है। क्रिकेट में अपने कॅरियर को लंबा खींचने के लिए उन्होंने काफी पहले ही तय कर लिया था कि वे देश के लिए टी-20 नहीं खेलेंगे। हालांकि वे इंडियन प्रीमियर लीग यानी आइपीएल खेलते रहे। उन्होंने खुद से ही वनडे क्रिकेट खेलना कम कर दिया। विश्वकप से पहले और विश्वकप जीतने के बाद उन्होंने वनडे क्रिकेट से लंबा ब्रेक लिया, लेकिन फिर वे बांग्लादेश में आठ साल बाद एशिया कप खेलने के लिए तैयार हो गए। जाहिर है, राज्यसभा का सदस्य बनने से पहले भी उन्होंने तय कर लिया होगा कि उन्हें आने वाले दिनों में क्या करना है। हां, दोहरी जिम्मेदारी का बोझ उठाने के लिए उन्हें कमर कसनी होगी।
लेखक शिवेंद्र कुमार सिंह खेल पत्रकार हैं
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