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सत्याग्रह पर व्यर्थ के सवाल

जागरण मेहमान कोना
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Raj kihoreअब यह लगभग निश्चित हो चला है कि अन्ना हजारे अगले महीने की 16 अगस्त को एक बार फिर अनिश्चित कालीन उपवास पर बैठने जा रहे हैं, लेकिन इस बार स्थिति पहले की तुलना में कुछ अलग होगी। पिछली बार सरकार ने उनके कार्यक्रम में कोई बाधा नहीं पैदा की थी। उलटे सहयोग ही किया था। तब सत्याग्रह के दूसरे दिन से ही सरकार के प्रतिनिधियों ने उनसे सम्मानपूर्वक बातचीत शुरू कर दी थी। अंत में आपसी समझौता भी सम्मानजनक वातावरण में हुआ था, लेकिन इस बार सरकार उनसे और उनकी टीम से खासा क्षुब्ध है इसलिए वह अन्ना हजारे के सत्याग्रह को कुचलने में कुछ भी उठा नहीं रखना चाहेगी। यह संभावना साफ-साफ दिखाई दे रही है। यह बहस तो अभी से शुरू हो गई है कि सत्याग्रह ब्लैकमेल का ही एक सभ्य तरीका है। हालांकि, इस तरह की चर्चा करते समय यह बात बड़ी आसानी से भुला दी जाती है कि ब्लैकमेल के पीछे निजी स्वार्थ होता है जब कि सत्याग्रह का संबंध सार्वजनिक हित से है। सत्याग्रह किसी न किसी रूप में महात्मा गांधी के पहले भी था।


गांधीजी ने इसे एक व्यवस्थित सिद्धांत पर खड़ा करके एक दर्शन का रूप दिया और स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान राजनीतिक प्रतिकार के रूप में इसका इस्तेमाल किया। उन्होंने ही इसके नियम भी विकसित किए और पूर्व शर्ते निर्धारित कीं। फिर भी अभी तक सत्याग्रह का कोई निश्चित स्वरूप उभर कर नहीं आ सका है। हालांकि, जरूरत इस बात की थी कि गांधीजी के बाद सत्याग्रह के और भी प्रयोग होते जिससे यह औजार अपनी पूरी चमक और प्रभाव के साथ हमारे सामने आता और हर औरत-आदमी अपने निजी जीवन में ही नहीं, बल्कि सार्वजनिक जीवन में भी इसका सार्थक और असरदार इस्तेमाल कर सकता। उपवास की समस्याओं से महात्मा गांधी अनजान नहीं थे। इस बारे में उन्होंने लिखा है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उपवास वस्तुत: जोर-जबरदस्ती करने का साधन बनाया जा सकता है। उदारहण के तौर पर किसी स्वार्थ सिद्धि के लिए किए गए उपवास ऐसे ही श्रेणी के अंतर्गत आते हैं।


किसी आदमी से रूठने, ऐंठने या किसी व्यक्तिगत उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया गया उपवास जोर-जबरदस्ती या अनुचित प्रभाव के प्रयोग की सीमा में आता है। इस बारे में गांधीजी कहते हैं कि मैं नि:संकोच ऐसे अनुचित प्रभाव का प्रतिकार करने का समर्थन करूंगा। गांधीजी ने यह भी कहा कि यदि कोई व्यक्ति चाहे वह कितना ही लोकप्रिय या महान क्यों न हो यदि वह किसी अनुचित मुद्दे को उठाता है और अपने उस अनौचित्यपूर्ण लक्ष्य की रक्षा के लिए उपवास करता है अथवा इसका सहारा लेता है तो यह उसके मित्रों, सहयोगियों और संबंधियों-जिनमें मैं अपनी गिनती भी करता हूं का कर्तव्य बनता है कि उसकी प्राणरक्षा के लिए अनुचित मुद्दे को मनवाने की अपेक्षा उसे मर जाने दें। उद्देश्य अनुचित हो तो शुद्ध से शुद्ध साधन भी अशुद्ध बन जाते हैं। सत्याग्रह की उपयोगिता या सफलता के बारे में गांधीजी के जीवनकाल में ही गंभीर संदेह और मतभेद उभरे थे। उनकी हंसी उड़ाते हुए लोग यहां तक कहा करते थे कि भूखा रहने से कहीं आजादी मिलती है। यहां तक कि गोपालकृष्ण गोखले भी जिन्हें महात्मा गांधी अपना राजनीतिक गुरु मानते थे-सत्याग्रह को शक की निगाह से देखते थे। इसकी तुलना में नेताजी सुभाषचंद्र बोस का यह आह्वान लोगों को ज्यादा आकर्षित करता था कि तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा। नेताजी के इस आह्वान के पीछे आकर्षण का कारण यह था कि खून देने और खून लेने की घटनाओं से इतिहास पटा पड़ा है। खून ले-लेकर ही अंग्रेजों ने भारत को अपने कब्जे में कर लिया था, लेकिन गांधीजी इस परंपरा को उलटना चाहते थे। यह जनहित के साथ उनका पूर्ण तादात्म्य था और उनके व्यक्तित्व की ऊंचाई भी कि लाखों लोगों ने उनके रास्ते को अपनाया।


आज भी यह रास्ता खुला है अगर कोई इस पर पूरी शुद्धता और ईमानदारी के साथ चले। शुद्धता को जांचने के कई तरीके हैं। पहला, क्या किसी भी तरह के सत्याग्रह शुरू करने से पहले समस्या के समाधान अथवा सार्वजनिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अन्य सभी उपायों को आजमाया जा चुका है? अगर कोई अचानक ही उपवास की घोषणा कर दे तो इसके पीछे नीति नहीं राजनीति देखनी चाहिए। इसी तरह सत्याग्रह प्रसिद्धि पाने के लिए या किसी अन्य प्रयोजन के उद्देश्य से नहीं होना चाहिए और शक्ति प्रदर्शन के लिए तो बिल्कुल ही नहीं। इससे सत्याग्रह के उद्देश्य पर शक करने की गुंजाइश पैदा हो जाती है। तीसरा, एक सत्याग्रही का निजी जीवन स्वच्छ और सार्वजनिक रूप से पारदर्शी होना चाहिए। वह झूठ न बोलता हो, गलत दावे न करता हो, उसके मन में समृद्धि अथवा सफलता के प्रति आसक्ति न हो तथा गरीबों और आम लोगों की सहायता करने में उसे आनंद आता हो। चौथा, उसने अपने किसी काम को व्यवसाय का रूप न दिया हो और उससे मुनाफा कमाने की न तो इच्छा रखता हो और न ही धनार्जन करता हो। स्वयं दीनहीन की तरह रहने से कुछ नहीं होता। देखने की बात यह भी है कि उसके इर्द-गिर्द कोई आर्थिक सल्तनत अथवा साम्राज्य तो नहीं खड़ी हो रही है। यदि ईमानदारी से देखा जाए तो इन सभी कसौटियों पर अन्ना हजारे का सत्याग्रह खरा उतरता है। पता नहीं अन्ना के इस बार के सत्याग्रह को पहली बार जैसी लोकप्रियता मिलेगी अथवा नहीं। अगर नहीं मिल सके तो उम्मीद और निवेदन दोनों है कि वह हताश नहीं होंगे और अपने आंदोलन के चिराग को बुझने नही देंगे। जन लोकपाल के मुद्दे पर सरकार ने निश्चय ही उनके साथ वादाखिलाफी की है।


अगर सरकार को उन बातों पर अडिग रहना ही था जिन पर वह पहले से जोर दे रही थी तो विधेयक के प्रारूप पर विचार करने के लिए संयुक्त मसौदा समिति का गठन करने की जरूरत ही नहीं थी। इसे हम अन्ना हजारे और उनकी टोली की भलमनसाहत मानते हैं कि उन्होंने सरकार के आश्वासन पर सहज ही विश्वास कर लिया। अब जबकि यह स्पष्ट हो चुका है कि सरकार एक ऐसे लोकपाल के पक्ष में है जिसके पास जांच करने और सजा देने की शक्ति न हो। सरकारी तंत्र का एक बड़ा हिस्सा गैर-आइएएस अधिकारी और कर्मचारी उसके दायरे से बाहर हों तो हम सभी को यह आवाज उठानी ही चाहिए कि हमें सरकारी लोकपाल की जरूरत नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के साथ प्रभावी तरीके से निपट सकने वाला जन लोकपाल चाहिए।


लेखक राजकिशोर वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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