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जंग के अड्डे बनते स्कूल

जागरण मेहमान कोना
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लंबे संघर्ष और प्रतीक्षा के बाद संविधान ने सभी को शिक्षा का मौलिक अधिकार तो दे दिया, परंतु शिक्षा के अधिकार के कानून बन जाने मात्र से देश के नक्सल प्रभावित ग्रामीण इलाकों में दहशत और अराजकता भरे माहौल में पल रहे बच्चे शिक्षा से नहीं जुड पा रहे हैं। देश के दुर्गम इलाकों में शिक्षा की राह में सबसे बड़ा रोड़ा स्कूलों पर नक्सली हमले और सरकारी कब्जे का है। स्कूलों पर हो रहे हमलों के कारण यह समस्या एक त्रासदी बनकर उभरी है। इन बातों के कारण मासूम बच्चों के मन में दहशत बनी रहती है। हिंसा के बाद तनाव स्वाभाविक है। वर्षो से स्कूलों में पुलिस छावनियों के कारण पूरी ग्रामीण शिक्षा की बुनियाद हिल जाती है। बच्चे हिंसा, तनाव एवं पुलिसिया कार्रवाई के चक्रव्यूह में घिरकर बस नियति के हाथों अंधेरे भविष्य की तरफ कदम बढ़ाने को मजबूर होते हैं। वर्षो तक नक्सली विद्रोह एवं सुरक्षा बलों के बीच जारी संघर्ष के कारण बच्चों की पढ़ाई स्वाभाविक रूप से बाधित होती है, लेकिन इन घटनाओं का प्रभाव मासूम बच्चों के अंतर्मन पर वर्षो तक हावी रहता है। दूसरी ओर निरीह अभिवावकों के मन में भी अपने बच्चों के असुरक्षा का भय व्याप्त रहता है। बच्चों की शिक्षा प्राप्ति के रास्ते में नक्सली हमले और सरकारी कब्जे दोनों गंभीर रुकावट खड़ी करते रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि स्कूलों में अनावश्यक रूप से सुरक्षा बलों की मौजूदगी के कारण वहां नक्सली हमलों का खतरा बना ही रहता है।

 

गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार पिछले पांच वर्षो में नक्सलियों ने भारत के 260 स्कूलों को अपना निशाना बनाया है। हालांकि आज तक स्कूलों पर हमले ऐसे समय में हुए हैं, जब बच्चे स्कूलों में मौजूद नहीं होते थे। ऐसे स्कूलों में अपने शिविर स्थापित करके सुरक्षाकर्मी छात्रों को पुलिस चौकी पर किए जाने वाले रात्रि हमले के दौरान दोनों ओर की गोलीबारी के बीच फंसने के खतरे में डाल देते हैं। ऐसे प्रतिकूल वातावरण में स्कूल के छात्र एवं छात्राएं स्कूल आना बंद कर देते हंै, जिसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। इस तरह प्रभावित स्कूलों में लड़कियों का तो पलायन ही हो जाता है और लड़कियां विशेष तौर पर स्कूल आना बंद करना ही बेहतर विकल्प पाती हैं। कुछ छात्र अन्य स्कूलों में स्थानानांतरण करवा लेते हैं, किंतु छात्राओं की तो पढ़ाई ही छूट जाती है। ऐसे अधिग्रहीत स्कूलों में छात्रों की पढ़ाई ही नहीं छूटती है, बल्कि नए छात्रों का प्रवेश भी बंद हो जाता है। जिन स्कूलों के कुछ हिस्से क्षतिग्रस्त हो चुके होते हैं, उनके दूसरे हिस्सों में बच्चों की भीड़ अधिक हो जाने से पढ़ाई ठीक तरीके से नहीं हो पाती है। कई स्कूलों के छात्रों को जाड़ा, गर्मी एवं बरसात में भी पेड़ों के नीचे बैठाया जाता है। दूसरी ओर स्कूल पर कब्जे के कारण बच्चों को विशेष सुविधाओं की प्राप्ति में भी बाधा खड़ी हो जाती है। नक्सली हमले में शौचालय कभी-कभी पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाते हैं, जिससे लड़कियों को विशेष परेशानी होती है और इस वजह से भी लड़कियों का स्कूल आना बंद हो जाता है।

 

नक्सल विरोधी अभियान के कारण वर्षो तक सुरक्षा बल के जवान स्कूलों पर कब्जा जमाए रखते हैं। इस दौरान सुरक्षा बल स्कूलों की समस्त सुविधाओं पर कब्जा कर लेते हैं और स्कूल करीब-करीब पूरी तरह से बंद ही हो जाता है। इस प्रकार इन स्कूलों की सीमित कक्षाओं में ही पढ़ाई का कार्य संभव हो पाता है। फिर इन स्कूलों को चुनाव के दौरान बूथ के रूप में भी उपयोग किया जाता है या फिर सुदूर इलाकों में नक्सली विरोधी अभियान को जारी रखने के लिए अड्डे के तौर पर उपयोग किया जाता है। कई बार स्कूलों की दीवारों पर व्यवस्था विरोधी नारे लिखे होते हैं। इनमें चुनाव के बहिष्कार के नारे ज्यादा होते हैं। सुरक्षा बल प्राय: मजबूत दीवारों वाले स्कूलों की इमारतों को स्थायी व अस्थायी तौर पर इस्तेमाल करते हंै। जनता, मीडिया और सरकारी लोग स्कूलों के इस प्रयोग को लेकर भलीभांति वाकिफ होते हैं। जब एक बार सुरक्षा बल किसी स्कूल पर कब्जा कर लेते हैं तो उसे वे सैन्य रंग में रंग देते हैं और फिर धीरे-धीरे उसे किले का रूप दे देते हंै। इस तरह वे पूरे स्कूल के लोगों को बाहर का रास्ता दिखा देते हैं। एक अध्ययन के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र के बच्चों की पढ़ाई में रुकावट नक्सली हमले तथा स्कूलों का पुलिस के इस्तेमाल हेतु अधिग्रहण किया जाना है।

 

आंकड़ों के अनुसार पिछड़े राज्यों में बिहार सहित झारखंड, ओडिशा एवं छत्तीसगढ़ आदि राज्यों के स्कूलों में हमले ज्यादा हुए हैं इससे बच्चों के शिक्षा के मौलिक अधिकारों का गंभीर हनन हुआ है। वर्ष 2008-09 में देश में घटी कुल घटनाओं में 86 प्रतिशत इन्हीं राज्यों से संबंधित थे। इन राज्यों में पहले से ही शिक्षा की स्थिति देश में सबसे बदतर है। आंकड़ों के अनुसार नक्सलियों ने जनवरी एवं जुलाई 2009 के मध्य झारखंड में 11 स्कूलों को तथा बिहार के नौ स्कूलों को अपना निशाना बनाया। वर्ष 2006 से 2009 के मध्य देश में सबसे अधिक छत्तीसगढ़ में 131 स्कूलों पर हमले हुए है। इसी अवधि में क्रमश: झारखंड के 63 एवं बिहार के 46 स्कूलों को निशाना बनाया गया। आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2009 में नक्सल प्रभावित देश के छह राज्यों में छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, ओडिशा, महाराष्ट्र तथा आंध्र प्रदेश में कुल 71 स्कूलों को ध्वस्त किया गया। वर्षवार आंकड़ों पर गौर करें तो 2006 में कुल 59 स्कूलों, 2007 में 43 स्कूलों, 2008 में 25 स्कूलों, 2010 में 39 स्कूलों को तथा नवंबर 2011 तक कुल 21 स्कूलों को ध्वस्त कर दिया गया। यूनेस्को की एक रिर्पोट से पता चलता है कि वर्ष 2009 में नक्सलियों ने बिहार एवं झारखंड में कुल 50 स्कूलों को अपना निशाना बनाया। दरअसल, जनयुद्ध करने का दावा कर रहे नक्सली संगठनों द्वारा पहले से ही वंचित बच्चों को और अधिक वंचित करना किसी भी मायने में सही नहीं ठहराया जा सकता।

 

शहरों की अपेक्षा गांवों में पढ़ने वाले सुविधाविहीन बच्चों की बड़ी संख्या है जो आधारभूत सुविधाओं जैसे शिक्षक, भवन, शौचालय आदि की कमी के शिकार रहे हैं। ऐसे में शिक्षा पर हमला करने वाले वास्तव में बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करते हैं जो पहले से ही तमाम सुविधाओं एवं अवसरों से वंचित होकर गांव की सुविधाविहीन शिक्षा पर निर्भर हैं। विश्व के मानचित्र पर आर्थिक महाशक्ति बनने का सपना देख रहे भारत के सभी बच्चों को अच्छी सुविधाएं मुहैया कराना जरूरी है। दुर्भाग्य से गांव के वातावरण के निर्माण एवं क्षतिग्रस्त स्कूलों की निर्माण प्रक्रिया को लेकर ठोस काम नहीं हो पा रहा है। क्षतिग्रस्त स्कूलों की निर्माण प्रक्रिया अत्यंत धीमी होने की वजह से शिक्षा के अधिकार कानून के क्रियान्वयन की उम्मीद नहीं की जा सकती है। सरकार कभी भी स्कूलों को सैनिक बलों से मुक्त रखने के प्रति गंभीर नहीं दिखी। सरकार को उस अंतरराष्ट्रीय कानून का सम्मान करना चाहिए, जिसके तहत सैन्य कार्यो के लिए स्कूल भवनों के इस्तेमाल को अपराध माना गया है। सरकार को क्षतिग्रस्त स्कूलों के मरम्मत के प्रति गंभीर होना चाहिए।

 

राजीव कुमार  स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं

 

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