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पंथनिरपेक्ष ढांचे पर प्रहार

जागरण मेहमान कोना
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A.Surya Prakashअल्पसंख्यक तुष्टीकरण के अपने एजेंडे पर प्रतिबद्ध संप्रग सरकार एक ऐसा कानून बनाने जा रही है जो सांप्रदायिक सौहार्द को नष्ट-भ्रष्ट कर सकता है, संविधान की संघीय विशेषताओं को कमजोर कर सकता है और केंद्र सरकार को राज्यों के शासन में दखल देने के नए बहाने उपलब्ध करा सकता है। प्रस्तावित विधेयक को सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा रोकथाम बिल नाम दिया गया है और इसका जो उद्देश्य बताया जा रहा है वह सांप्रदायिक संघर्ष की घटनाओं पर अंकुश लगाना, लेकिन इसका निर्माण इस पूर्वाग्रह के साथ किया गया है कि सभी स्थितियों में धार्मिक बहुसंख्यक ही अल्पसंख्यक समुदाय पर जुल्म करता है। लिहाजा बहुसंख्यक समाज के सदस्य दोषी हैं और अल्पसंख्यक समुदाय के लोग पीड़ित। चूंकि यही धारणा इस कानून का आधार है इसलिए यह स्वाभाविक है कि प्रस्तावित कानून 35 राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों में से 28 में बहुसंख्यक हिंदुओं को सांप्रदायिक हिंसा के लिए जिम्मेदार मानता है और मुस्लिम, ईसाई तथा अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों को पीड़ित के रूप में देखता है।


इस कानून का मसौदा उस राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने तैयार किया है जो छद्म सेक्युलरिस्टों, हिंदू विरोधियों और नेहरू-गांधी परिवार के समर्थकों का एक समूह है और कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी जिसकी अध्यक्ष हैं। इस परिषद को केंद्र की एक ऐसी सरकार से बराबर महत्व मिल रहा है, जिसका नेतृत्व पहली बार अल्पसंख्यक समाज के एक सदस्य द्वारा किया जा रहा है। इस प्रस्तावित कानून के प्रावधान ऐसे हैं कि यह सांप्रदायिक सौहार्द को प्रोत्साहन देना तो दूर रहा, हिंदुओं के बीच पंथनिरपेक्षता की प्रतिबद्धता को ही कमजोर कर सकता है।


विधेयक के मसौदे के अनुसार ”यदि किसी समूह की सदस्यता के कारण जानबूझकर किसी व्यक्ति के खिलाफ ऐसा कृत्य किया जाए जो राष्ट्र के सेक्युलर ताने-बाने को नष्ट करने वाला हो..।” सबसे बड़ी शरारत शब्द समूह की परिभाषा में की गई है। इसमें कहा गया है कि समूह का तात्पर्य भारत के किसी राज्य में धार्मिक अथवा भाषाई अल्पसंख्यक या अनुसूचित जाति अथवा जनजाति से है। इसका अर्थ है कि हिंदू, जो आज ज्यादातर राज्यों में बहुसंख्यक हैं, इस कानून के तहत समूह के दायरे में नहीं आएंगे। लिहाजा उन्हें इस कानून के तहत संरक्षण नहीं मिल सकेगा, भले ही वे मुस्लिम अथवा ईसाई सांप्रदायिकता, घृणा या हिंसा के शिकार हों। अनेक विश्लेषकों ने कहा भी है कि इसका अर्थ है कि यदि 2002 में यह कानून लागू होता तो जिन 59 हिंदुओं को गुजरात के गोधरा स्टेशन में साबरमती स्टेशन में जलाकर मार दिया गया उनकी हत्या के संदर्भ में एफआइआर दर्ज नहीं कराई जा सकती थी, क्योंकि इस कानून के तहत गुजरात में हिंदू बहुसंख्यक हैं, लेकिन मुस्लिम गोधरा बाद के दंगों के लिए इस कानून के प्रावधानों का इस्तेमाल कर सकते थे। इसका सीधा अर्थ है कि सांप्रदायिक हिंसा का शिकार होने वाले हिंदुओं को दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में देखा जाएगा और यह काफी कुछ पाकिस्तान जैसे इस्लामिक राज्य में लागू हिंदू विरोधी कानूनों की तरह है।


प्रस्तावित कानून के मसौदे के अनुसार एक पीड़ित की व्याख्या अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य के रूप में की गई है, जिसे सांप्रदायिक हिंसा की घटना में शारीरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक और आर्थिक क्षति पहुंची हो या उसकी संपत्ति को नुकसान हुआ हो। इसके दायरे में उसके संबंधी, कानूनी अभिभावक और उत्तराधिकारी भी शामिल हैं। इस व्याख्या के आधार पर देश के किसी हिस्से में कोई मुस्लिम या ईसाई का यदि किसी सामान्य मुद्दे पर अपने हिंदू पड़ोसी से विवाद होगा तो वह इस कानून का इस्तेमाल कर अपने पड़ोसी पर यह आरोप लगा सकता है कि उसने उसे मनोवैज्ञानिक नुकसान पहुंचाया है। यदि वह किसी कारण ऐसा न करे तो उसके संबंधी ऐसा कर सकते हैं।


इस पूरी कवायद का जो बुनियादी मकसद नजर आता है वह है हिंदुओं को निशाना बनाना। विधेयक कहता है कि इसे पूरे भारत में लागू किया जाएगा, लेकिन जब देश के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य जम्मू-कश्मीर की बात आती है तो इसमें कहा गया है कि केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर राज्य की सहमति से इसे वहां लागू कर सकती है।


यद्यपि इस विधेयक को इस तरह अंतिम रूप दिया गया है कि हिंदू समुदाय इसके विचित्र प्रावधानों की मार झेले, लेकिन मुस्लिम, ईसाई और सिखों को भी परेशानी झेलनी पड़ सकती है, क्योंकि बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक के निर्धारण के लिए राज्य ही इकाई है। 2001 के जनगणना आंकड़ों के मुताबिक सिख पंजाब में 59.9 प्रतिशत हैं, जबकि हिंदुओं की आबादी 36.9 प्रतिशत है। यदि यह कानून लागू हो जाता है तो बहुसंख्यक सिख समाज को हिंदुओं की शिकायत पर परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। इसी तरह ईसाई तीन राज्यों-नागालैंड , मिजोरम (87 प्रतिशत) और मेघालय (70.30 प्रतिशत) में बहुसंख्यक हैं। यदि इन राज्यों में हिंदुओं ने इस कानून का मनमाना इस्तेमाल शुरू कर दिया तो ईसाई समाज को मुसीबतें उठानी पड़ सकती हैं। लिहाजा मुस्लिम, ईसाई और सिख समुदाय को कांग्रेस पार्टी के इस दावे पर कदापि भरोसा नहीं करना चाहिए कि यह विधेयक पंथनिरपेक्षता को मजबूत करेगा, क्योंकि यह विधेयक सांप्रदायिक हिंसा और घृणा के सभी दोषियों को बराबरी पर नहीं देखता।


प्रत्येक राज्य में बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के निर्धारण में एक अन्य विसंगति भी है। मणिपुर में 46 प्रतिशत हिंदू हैं और अरुणाचल प्रदेश में 34.60 प्रतिशत। चूंकि इन राज्यों में किसी धार्मिक समूह के पास स्पष्ट बहुमत नहीं है लिहाजा किसे पीड़ित माना जाएगा और किसे दोषी? इसके अतिरिक्त यदि अनुसूचित जाति और जनजाति को हिंदू समुदाय से अलग कर दिया जाए तो इन राज्यों में हिंदू आबादी का प्रतिशत क्या होगा? केरल का मामला भी है, जहां 56.20 प्रतिशत हिंदू हैं। अगर इससे 22 प्रतिशत अनुसूचित जाति और जनजाति को अलग कर दिया जाए तो हिंदुओं का प्रतिशत क्या होगा? यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि जो कानून बनाया जा रहा है वह दरअसल सांप्रदायिक भी है और एक समुदाय यानी हिंदुओं को निशाना बनाने वाला भी। अगर इस विधेयक के सूत्रधार अपने मंसूबे में सफल रहे तो भारत की एकता और अखंडता खतरे में पड़ जाएगी। ऐसा विधेयक वह व्यक्ति नहीं बना सकता जो लोकतांत्रिक और पंथनिरपेक्ष भारत से प्यार करता है। हमें इसकी जांच करनी चाहिए कि विधेयक का मूल मसौदा कहां से आया है?


लेखक ए. सूर्यप्रकाश वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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