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सुरक्षा तंत्र की खामियां

जागरण मेहमान कोना
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B.R. Lallभारत में एक के बाद एक हो रहे आतंकी हमले और इन्हें रोक पाने में मिल रही विफलता हमारे लिए चिंता की बात है। आखिर कमी है कहां? अभी तक हम मुंबई और दिल्ली बम धमाकों के कसूरवारों की न तो धरपकड़ कर सके और न ही सुबूत जुटा पाए हैं। अब यह साफ हो गया है कि आतंकवादियों के मन में पकड़े जाने का खौफ नहीं रहा। वे जान चुके हैं कि पकड़े जाने पर भी उन्हें सजा नहीं मिलने वाली। इसी कारण आतंकवादी अपनी योजनाओं को बड़ी निर्भीकता से अंजाम दे रहे हैं। दिल्ली हाईकोर्ट में पूर्व में बम विस्फोट की घटना के बावजूद वहां कैमरे और मेटल डिटेक्टर का मौजूद न होना हमारी सुरक्षा तैयारियों की जमीनी हकीकत बयान करने के लिए काफी है। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री का बयान आया कि अब आतंकवाद और नक्सलवाद हमारे लिए गंभीर खतरा बन चुके हैं और इनसे कड़ाई से निपटना जरूरी है। हालांकि इस बयान में नया कुछ नहीं है, लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि आतंकवाद के साथ-साथ नक्सलवाद का नाम लिया गया। इसलिए यह साफ करना पुन: आवश्यक है कि आतंकवाद और नक्सलवाद दो भिन्न-भिन्न समस्याएं हैं। दोनों के उद्देश्य अलग-अलग हैं इसलिए इनसे निपटने की रणनीति भी अलग-अलग होनी जरूरी है।


नक्सलवाद जहां देश के ही एक वर्ग की खराब हालत और उनके लगातार शोषण का परिणाम है तो आतंकवादी देश से अलग होना चाहते हैं और इसके लिए उन्हें कुछ पंथिक संगठनों के अलावा बाहरी देशों से भी मदद मिल रही है। इन देशों में पाकिस्तान का नाम सबसे प्रमुख है। इसके अलावा खाड़ी के कुछ देशों से भी इन्हें आर्थिक मदद मिलती है। एक तरफ भारत पाकिस्तान के साथ विश्वास बहाली के उपाय जारी रखे हुए है तो दूसरी ओर पाकिस्तान के इशारे और उसकी मदद से आतंकवादी हम पर लगातार हमले कर रहे हैं। दिल्ली हमलों में भी हूजी और इंडियन मुजाहिदीन का नाम आ रहा है। यह संगठन पाकिस्तान और बांग्लादेश की धरती से खाद-पानी पा रहे हैं यह सबको मालूम है, लेकिन हमारी स्थिति मोहम्मद तुगलक जैसी हो गई है जो अपने ऊपर होने वाले मुगलों के हमलों को धन देकर टाल देता था या उन्हें लौटा देता था। आज भारतीय विदेशनीति भी कुछ इसी तरह की है। भले ही भारत के ऊपर हमले होते रहें, आतंकी बम विस्फोट करते रहे, लेकिन सरकार किसी भी कीमत पर अपने पड़ोसी देशों से सख्ती से निपटने को तैयार नहीं। आतंकवाद से लड़ाई लड़ते समय भी हम भूल जाते हैं कि अमेरिका अपने यहां आतंकी हमले इसी कारण लगभग खत्म कर सका, क्योंकि वह आतंकवादियों को मदद देने वाले देशों से सख्ती से पेश आया और उन पर हर तरह के दबाव बनाए। इसी तरह काले धन के मामले में भी अमेरिका को स्विट्जरलैंड ने जब खातेदारों के नाम बताने से इंकार किया तो अमेरिका ने स्विस बैंक की सभी अमेरिकी शाखाओं को बंद करने और धन को जब्त करने का दबाव बनाया। परिणाम यह हुआ कि स्विट्जरलैंड ने उसे कुछ राज बता दिए, लेकिन जब भारत की बारी आती है तो हम कागज पर अंतरराष्ट्रीय संधियों और संबंधों तक सिमटकर रह जाते हैं और जमीन पर कुछ नहीं करते।


साफ है कि आतंकवाद के मामले में भी हमें सख्त होना होगा। इसके सही कारणों को जानकर उन्हें निर्मूल करना होगा। आतंकवाद के फलने-फूलने के लिए तीन चीजों-धन, मानव संसाधन और हथियारों की आवश्यकता होती है। जहां तक पैसे की बात है तो इसकी कोई कमी नहीं है, क्योंकि यह सऊदी अरब, बांग्लादेश व पाकिस्तान के रास्ते नकली नोट समझौता एक्सप्रेस और दूसरे तमाम जरियों से भारत पहुंचाया जा रहा है। इस बारे में हम दक्षिण कोरिया से सबक ले सकते हैं जिसने 2006 में बड़े नोटों का प्रचलन ही बंद करा दिया। इंडोनेशिया व भारत को छोड़कर दुनिया के किसी भी अन्य बडे़ देश में सौ इकाई से बड़े नोट या सिक्के प्रचलन में नहीं हैं, जबकि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के मुताबिक भारत में 80 फीसदी नोट पांच सौ और एक हजार के हैं। इससे न केवल काले धन का आदान-प्रदान आसान होता है, बल्कि आतंकवाद-नक्सलवाद जैसी गतिविधियों को बढ़ावा देने में इनका खुलकर उपयोग होता है। यही कारण है कि हमारी करेंसी कुल जीडीपी के 13 प्रतिशत के बराबर है जबकि अमेरिका में यह महज पांच-सात प्रतिशत है। यदि बड़े नोटों का प्रचलन बंद कर दिया जाए तो काले धन की अर्थव्यवस्था भी 50 प्रतिशत तक तत्काल गिर सकती है और यदि यह कम होगा तो गलत गतिविधियों का संचालन भी कठिन हो जाएगा।


आतंकी गतिविधियों के लिए दूसरी महत्वपूर्ण आवश्यकता लोगों की होती है। भारत में पाकिस्तान, बांग्लादेश से बड़ी संख्या में लोग आते हैं और यहीं बस जाते हैं। इनकी भाषा, रंग-रूप हमारे जैसा होने के कारण इन्हें पहचानना आसान नहीं होता। आज पाकिस्तान-बांग्लादेश से आए शरणार्थियों की आबादी देश के अलग-अलग हिस्सों में फैल गई है। इन्हें वापस अपने देश भेजने का अभियान इसलिए नहीं चलाया जाता, क्योंकि सरकारें वोट बैंक के लिए इनका इस्तेमाल करती हैं। दूसरे देश के नागरिकों की निष्ठा हमारे देश के साथ भला क्यों होगी? यही कारण है कि इन लोगों की मदद से पाकिस्तानी और भारतीय नागरिकों को थोड़ा-बहुत धन मुहैया कराकर आतंकी घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है। इसका समाधान तब तक आसान नहीं जब तक कि इन तथाकथित विदेशी नागरिकों को भारत से बाहर नहीं धकेला जाता, लेकिन क्या राजनेता ऐसा होने देंगे?


जहां तक विस्फोटकों का सवाल है, इसके लिए खाने-पीने और खेती में काम आने वाली चीजें इस्तेमाल होती हैं जो बाजार में आसानी से मिल जाती हैं। अमोनियम नाइट्रेट एक तरह का खाद है जिसे प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार विस्फोटक बनाने में इस्तेमाल होने वाली अन्य सामग्री भी आसानी से सुलभ हैं। इससे साफ है कि हमें आतंकवाद के बाकी साधनों पर ही नियंत्रण पाना होगा, जिसके लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। पर क्या हम ऐसा कर पाएंगे? जहां तक खुफिया एजेंसियों की विफलता की बात है तो यह एक हद तक ही सही है। सरकार ने सीआइए और एफबीआइ से मदद लेने की बात की है लेकिन सवाल है कि हम कब मजबूत होंगे? आज जरूरत बड़े ऑपरेशन की है न कि सामान्य उपचार की। इसके लिए हर स्तर पर काम करना होगा। फिर वह चाहे राजनीतिक-प्रशासनिक-आर्थिक सुधार हों अथवा पुलिस, खुफिया और सुरक्षात्मक कदम।


लेखक बीआर लाल हरियाणा के पूर्व डीजीपी व सीबीआइ के पूर्व संयुक्त निदेशक हैं


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