Menu
blogid : 5736 postid : 1225

अब बस भी करो महा-रथी

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

Pradeep Singhक्रिकेट और राजनीति में कई समानताएं हैं। अनिश्चितता दोनों का स्थायी स्वभाव है। दोनों में ग्लैमर भी है और पैसा भी। क्रिकेटर की ही तरह राजनेता भी नहीं तय कर पाता है कि उसे कब संन्यास ले लेना चाहिए। कपिल देव महान भारतीय क्रिकेटर हैं। भारत में उनके सरीखा दूसरा हरफनमौला खिलाड़ी नहीं हुआ। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को उन्हें एक तरह से जबरन रिटायर करना पड़ा था। क्या लालकृष्ण आडवाणी भाजपा के कपिल देव बनेंगे? यह सवाल गैर भाजपाइयों से ज्यादा भाजपाइयों की जबान पर है।


भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने जब एक और रथयात्रा पर जाने की घोषणा की तो मुझे एक घटना बरबस ही याद आ गई। बात करीब आठ नौ महीने पहले की है। पार्टी के एक वरिष्ठ राष्ट्रीय नेता से मुलाकात हुई। सीधे यह पूछने की बजाय कि आडवाणी जी कब रिटायर हो रहे हैं, घुमाकर एक सवाल पूछा कि आडवाणी जी जैसे कद्दावर नेता के रहते हुए उन्हें काम करने में दिक्कत नहीं होती? वह मुस्कुराए और बोले दलाईलामा का एक निमंत्रण मेरे पास आया था। कार्यक्रम था उनके संन्यास और उत्तराधिकारी के चयन का। एक साथी नेता ने कहा कि यह निमंत्रण पत्र आडवाणी जी के पास भिजवा दीजिए।


ऐसे समय जब पार्टी की नई पीढ़ी लालकृष्ण आडवाणी के संन्यास लेने और उत्तराधिकारी की घोषणा का इंतजार कर रही थी, उन्होंने केंद्रीय भूमिका में लौटने का ऐलान कर दिया। यह उसी तरह है जैसे सचिन तेंदुलकर घोषणा कर दें कि वह भारतीय क्रिकेट टीम का कप्तान बनना चाहते हैं। पता नहीं आडवाणी को अपने सहयोगियों के ये विचार पता हैं कि नहीं। उनकी रथ यात्रा की घोषणा ऐसे समय हुई है जब पार्टी और संघ परिवार में इस बात पर चर्चा चल रही थी कि 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा करनी चाहिए या नहीं।


जनसंघ-भाजपा को बनाने और केंद्र में सत्ता तक पहुंचाने में लालकृष्ण आडवाणी का बहुत बड़ा योगदान रहा है। 1951-52 में जनसंघ की स्थापना से 1998 में केंद्र में सत्ता में आने तक आडवाणी का राजनीतिक कद और पद उत्तरोत्तर बढ़ता ही रहा है। 1998 में वह गृहमंत्री बने और बाद में उप प्रधानमंत्री। उसके बाद के तेरह साल के घटनाक्रम पर नजर डालें तो पाएंगे कि उनका पद भले ही बरकरार रहा हो पर राजनीतिक कद ढलान पर ही है। उनके करीबी साथी उन्हें छोड़ गए या उनसे दूर होते गए। उनका आभामंडल धुंधला गया है। संसद में उन्हें उस तरह नहीं सुना जाता जैसे कभी अटल बिहारी वाजपेयी को सुना जाता था। पाकिस्तान से लौटने के बाद संघ परिवार और पार्टी में उनकी हैसियत जो घटी तो घटती ही गई। पार्टी में वह सर्वमान्य नेता की हैसियत में नहीं हैं। 2009 चुनाव के बाद उन्होंने लोकसभा में नेता विपक्ष बनने से मना कर दिया था। वह अपने फैसले पर टिके रहते तो उनका नैतिक बल बना रहता। संघ और पार्टी में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो उन्हें पीढ़ी परिवर्तन के रास्ते में बाधा मानने लगे हैं।


आडवाणी और उनके समर्थकों को लगता था कि अटल बिहारी वाजपेयी की छाया से निकलकर वह और ताकतवर होकर उभरेंगे। पर हुआ इसका उल्टा। वाजपेयी की छाया से निकलकर वे और कमजोर हो गए। न चाहते हुए भी भाजपा और संघ ने 2009 का लोकसभा चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ा और जनता ने उन्हें नकार दिया। बात केवल उम्र की नहीं है। 74 साल की उम्र में अन्ना हजारे को इस देश की युवा पीढ़ी ने सर-माथे पर बिठाया। बात भविष्य के प्रति उम्मीद की है। आडवाणी का नेतृत्व भविष्य के प्रति उम्मीद जगाने की बजाय अतीत की ओर ले जाता है। और वह अतीत 2011 के भाजपा कार्यकर्ताओं को भी नहीं लुभाता। लोकसभा चुनाव के बाद संघ ने भाजपा संगठन में खुलेआम दखल दिया। तय किया कि पार्टी संगठन नितिन गडकरी संभालेंगे और संसदीय दल की जिम्मेदारी सुषमा स्वराज और अरुण जेतली। ये लोग सामूहिक नेतृत्व के सिद्धांत पर काम करेंगे। भाजपा का यह नया नेतृत्व अयोध्या आंदोलन और उग्र हिंदुत्व की राजनीति के इतिहास के बोझ से मुक्त था। भाजपा की छवि एक ऐसे उदार राजनीतिक दल की बनाने की कोशिश हो रही थी जो देश के युवा मतदाता से तारतम्य बिठा सके। आडवाणी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा उन्हें भविष्य तो छोड़िए वर्तमान को भी नहीं देखने दे रही है। 83 साल की उम्र में एक और रथ यात्रा पर निकलने का फैसला उनके जीवट और जिजीविषा का प्रतीक है। पर वह शायद भूल गए हैं कि बाड़ खेत की रक्षा के लिए लगाई जाती है। बाड़ ही जब खेत खाने लगे तो समझ लेना चाहिए कि कठोर फैसला लेने का वक्त आ गया है।


आडवाणी के बाद जिन्हें पार्टी का नेतृत्व संभालना है वे सब उनके बनाए हुए नेता हैं। जिन्ना प्रकरण के बाद ये लोग एक बार उनके खिलाफ खड़े हो चुके हैं। दोबारा उनके खिलाफ होने का साहस इनमें नहीं है। अगर होता तो ये उनके पास जाते और कहते कि हे महा-रथी अब बस भी करो। आडवाणी के फैसले का समर्थन करना उनके लिए दूसरी बार गुरु दक्षिणा देने जैसा है।


देश का मतदाता वर्तमान सत्ताधारियों से निराश है। संसदीय जनतंत्र में ऐसे समय में मतदाता मुख्य विपक्षी दल की ओर उम्मीद भरी नजर से देखता है। अन्ना हजारे और उनके साथियों का समर्थन करके उसने बता दिया है कि वह क्या चाहता है। इतिहास के ऐसे नाजुक मोड़ पर देश का मुख्य विपक्षी दल भविष्य की बजाय इतिहास में आगे की राह तलाश रहा है।


लेखक प्रदीप सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh